हरि समान दाता कोउ नाहीं । सदा बिराजैं संतनमाहीं ॥१॥
नाम बिसंभर बिस्व जिआवैं । साँझ बिहान रिजिक पहुँचावैं ॥२॥
देइ अनेकन मुखपर ऐने । औगुन करै सोगुन करि मानैं ॥३॥
काहू भाँति अजार न देई । जाही को अपना कर लेई ॥४॥
घरी घरी देता दीदार । जन अपनेका खिजमतगार ॥५॥
तीन लोक जाके औसाफ । जनका गुनह करै सब माफ ॥६॥
गरुवा ठाकुर है रघुराई । कहैं मूलक क्या करूँ बड़ाई ॥७॥