भाई ! हौं अवध कहा रहि लैहौं ।
राम-लकन-सिय-चरन बिलोकन काल्हि काननहिं जैहौं ॥
जद्यपि मोतें, कै कुमातु, तैं ह्वै आई अति पोची ।
सनमुख गए सरन राखहिंगे रघुपति परम सँकोची ॥
तुलसी यों कहि चले भोरहीं, लोग बिकल सँग लागे ।
जनु बन जरत देखि दारुन दव निकसि बिहँग मृग भागे ॥