जानकी जीवनकी बलि जैहों ।
चित कहै, राम सीय पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहों ॥१॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहों ।
मन समेत या तनुके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहों ॥२॥
स्त्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहों ।
रोकिहौं नैन बिलोकत औरहिं सीस ईसही नैहों ॥३॥
नातो नेह नाथसों करि सब नातो नेह बहैहों ।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहों ॥४॥