मंगलाचरण
सिद्ध सदन सुंदर बदन, गणनायक महाराज ।
दस आपका हूं सदा, कीजै जन के काज ॥
जय संकर जय गंगधर, जय-जय उमा भवानि ।
सियाराम कीजै कृपा, हरि-राधा कल्यानि ॥
जय सारद जय लच्छमी, जय-जय गुरूदयाल ।
देव, विप्र, गौ, संतजन, भारत देश बिसाल ॥
चरणकमल गुरुजनन के, नमन करूं धरि सीस ।
मो घर सुख-संपति भरो, देकर शुभ आसीस ॥
मातु सरन हूं आपकी दो श्री और संतोस ।
संत जनन के चरन हित खर्च होय मम कोस ॥
मां संतोषी तोष दो, हो भटकन से दूर ।
तव सेवा में मन लगे, अहंकार हो चूर ॥
व्रत माहात्म्य एवं विधि
संतोषी माता के पिता गणपति और माता ऋद्धि-सिद्धि हैं । इनका परिवार धन-धान्य, सोना-चांदी, मोती-मूंगा तथा रत्नों से भरा है ।
पिता गणेश की कृपा से दरिद्रता और कलह का नाश, घर में सुख तथा शांति, बाल-गोपाल से भरा परिवार, व्यापार में लाभ-ही-लाभ, मन की सर्वकामनाओं की पूर्ति और शोक, विपत्ति, चिंता आदि सब दूर होती है ।
कथा प्रारंभ करने से पहले पवित्र स्थान पर एक तांबे का कलश जल से भरकर रखें । उस कलश के ऊपर एक कटोरी में गुडं और चना रखें । ध्यान रहे, प्रसाद सदैव सवाया ही चढ़ाया जाता है जैसे सवा रुपये का, ढाई रुपये का आदि, अपनी क्षमता के अनुसार ही प्रसाद लें । माता प्रेम व श्रद्धा की भूखीं है, मात्रा की नहीं ।
कथा कहनेवाला अपने सीधे हाथ में गुड़ व चना रखे । कथा श्रवण करने वाले समय-समय पर 'संतोषी माता की जय' बोलते रहें । कथा समाप्त होने पर आरती करें तथा कलश में रखा जल पहले पूरे घर में छिड़कें फिर शेष जल तुलसी को चढ़ा दें । कथा कहने वाला अपने हाथ में रखा गुड़ और चना गऊ माता को खिलाए । इसके पश्चात् कटोरी में रखा प्रसाद कथा सुनने वालों तथा घर के सदस्यों में बांट दें । एक समय भोजन करें । जितने शुक्रवार व्रत करने का संकल्प किया हो, वह समय पूरा होने पर उद्यापन करना आवश्यक है । उद्यापन में घर के तथा पड़ोस के बच्चो को बुलाकर भोजन करवाकर यथाशक्ति दक्षिणा दें । इस दिन घर में कोई खटाई का सामान न बनाएं ।
विधि के अनुसार व्रत करने से व्रतकर्ता की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी । परिवार में सुखशांति और व्यापार में उन्नति के लिए यह व्रत सर्वोत्तम तथा अत्याधिक सरल है ।
संतोषी माता की कथा प्रारंभ
एक बुढ़िया के सात बेटे थे । छः बेटे कमाने वाले थे और एक बेटा निकम्मा था । बुढ़िया मां छहों पुत्रों का झूठा सातवें को देती । सातवां पुत्र एक दिन अपनी पत्नी से बोला, "देखो! मेरी माता का मुझ पर कितना प्रेम है ।" वह बोली, "क्यों नहीं, सबका झूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है ।" वह बोला, "जब तक आंखों से न देखूं मान नहीं सकता ।" पत्नी ने हंसकर कहा, "देख लोगे तब तो मानोगे?"
कुछ दिन बाद एक बड़ा त्योहार आया । घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने । वह पत्नी की बात को जांचने के लिए सिरदर्द का बहाना बनाकर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई में जाकर सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा । छहों भाई भोजन करने आए । उसने देखा, मां ने उनके लिये सुंदर-सुंदर आसन बिछाए, सात प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह कर-करके उन्हें भोजन कराती रही । वह देखता रहा । छहों भाई भोजन कर उठ गए तब मां ने उनकी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया । जूठन साफ कर मां ने उसे पुकारा, "उठ बेटा! तेरे भाइयों ने भोजन कर लिया, तू भी उठकर भोजन कर ले।" उसने कहा, "मां! मुझे भोजन नहीं करना । मैं परदेस जा रहा हूं ।" माता ने कहा, "कल जाना हो तो आज ही जा । वह बोला, "हां-हां, जा रहा हूं ।" यह कहकर वह घर से निकल गया । चलते समय उसे पत्नी की याद आई । वह गौशाला में कंडे थाप रही थी । वहां जाकर वह बोला, "मेरे पास तो कुछ नहीं है । यह अंगूठी है, सो ले लो और अपनी कोई निशानी मुझे दे दो ।" वह बोली, "मेरे पास क्या है? यह गोबर भरा हाथ है ।" यह कहकर पत्नी ने उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी ।
वह चल दिया । चलते-चलते दूर देश में पहुंचा । वहां एक साहूकार की दुकान थी । वहां जाकर बोला, "सेठ जी, मुझे नौकरी पर रख लो।" साहूकार ने कहा, "काम देखकर तनख्वाह मिलेगी ।" उसने कहा, "सेठ जी, जैसा आप ठीक समझें ।" उसे साहूकार के यहां नौकरी मिल गई । वह वहां दिन-रात काम करने लगा । कुछ दिन में दुकान का लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा । साहूकार के सात-आठ नौकर थे । वे सब चक्कर खाने लगे । लेकिन उसने अपनी लगन, परिश्रम और ईमानदारी से सभी को पीछे छोड़ दिया । उसे अपने किए का फल मिला । सेठ ने भी उसका काम देखा और तीन महिने में ही उसे मुनाफे में साझीदार बना लिया । परिश्रम करते-करते बारह वर्ष में ही वह नगर का नामी सेठ बन गया और सेठ अपना सारा कारोबर उसपर छोड़कर बाहर चला गया ।
इधर उसकी पत्नी पर क्या बीती वह सुनें । सास-ससुर उसे दुख देने लगे । गृहस्थी का काम करवाकर, उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते । इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती, उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेली में पानी दिया जाता । इस तरह दिन बीतते रहे ।
एक दिन वह जब जंगल में लकड़ी लेने जा रही थी तब उसे रास्ते में बहुत-सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं । वह वहां खड़ी होकर पूछने लगी, "बहनो, यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल होता है? इस व्रत के करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी।" उनमें से एक स्त्री बोली, "सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है । इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है, लक्ष्मी आती हैं । मन की चिंताएं दूर होती हैं । घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है । निपूती को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो वह शीघ्र लौट आता है, कुंवारी कन्या को मन-पसंद वर मिलता है, चलता मुकदमा खत्म हो जाता है, कलह क्लेश की निवृत्ति होती है, सुख-शांति होती है, घर में धन जमा होता है, धन-जायदाद का लाभ होता है तथा और भी मन में जो कुछ कामना हो सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती हैं । इसमें संदेह नहीं ।" वह पूछने लगी, "यह व्रत कैसे किया जाता है? यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी ।" वह स्त्री कहने लगी, "बिना परेशानी, श्रद्धा और प्रेम से जितना भी बन सके प्रसाद लेना । सवा पांच पैसे से सवा पांच आने तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति के अनुसार गुड़ और चना लें । हर शुक्रवार को निराहार रहकर कथा कहना, सुनना । इसके बीच क्रम नहीं टूटे । लगातार नियम पालन करना । सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जलाकर, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना, परंतु नियम न टूटे । जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्यसिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना । तीन मास में माता पुरा फल प्रदान करती हैं । यदि किसी के खोटे ग्रह हों तो भी माता एक वर्ष में अवश्य उन्हे अनुकूल करती हैं । कार्य सिद्ध होने पर ही उद्यापन करना चाहिए, बीच में नहीं । उद्यापन में अढाई सेर आटे का खाजा तथा इसी अनुसार खीर तथा चने का साग बनाना । आठ बच्चों को भोजन कराना । जहां तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु, कुटुंब के लड़के लेना, न मिलें तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़के बुलाना । उन्हें भोजन करा, यथाशक्ति दक्षिणा दे, माता का नियम पूरा करना । ध्यान रखना उस दिन घर में कोई खटाई न खाए।"
यह सून वह वहां से चल दी । रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़ चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली । रास्ते में संतोषी माता के मंदिर में जा, माता के चरणों में लोटने लगी । विनती करने लगी, 'मां! मैं दीन हूं, निपट मूर्ख हूं । व्रत के नियम कुछ जानती नहीं । मैं बहुत दुखी हूं । हे माता! मेरा दुख दूर कर । मैं तेरी शरण में हूं ।'
माता को दया आई । एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा । यह देखकर जेठानी मुंह सिकोड़ने लगी, "इतने दिनों बाद इतना पैसा आया । इसमें क्या बड़ाई है?" लड़के ताने देने लगे, "काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी।" बेचारी सरलता से कहती, "भैया पत्र आए, रुपया आए तो हम सबके लिए अच्छा है।" ऐसा कहकर, आंखों में आंसू भरकर, संतोषी माता के मंदिर में जा, मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी, "मां मैंने तुमसे पैसा नहीं मांगा । मुझे पैसे से क्या काम? मुझे तो अपने सुहाग से काम है । मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूं ।" तब माता ने प्रसन्न होकर कहा, "जा बेटी! तेरा स्वामी जल्दी ही आएगा । यह सुन खुशी से बावली हो वह घर आकर काम करने लगी । संतोषी मां विचार करने लगीं, 'इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति शीघ्र आएगा, पर आएगा कहांसे? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता । उसे इसकी याद दिलाने तो मुझे ही जाना पड़ेगा ।' संतोषी माता ने उस बुढ़िया के बेटे को स्वप्न में समझाया, "पुत्र! तेरी घरवाली कष्ट उठा रही है।" वह बोला, "हां माता! यह तो मुझे भी मालूम है, परंतु क्या करूं, वहां कैसे जाऊं? परदेश की बात है, लेन-देन का सारा हिसाब-किताब है, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता । आप ही कोई राह दिखाएं कि वहां कैसे जाऊं।"
मां कहने लगी, "सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर और दुकान पर जा बैठना । देखते-देखते तेरा लेन-देन चुक जाएगा, जमा माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जाएगा ।"
वह अगले दिन सुबह बहुत जल्दी उठा । उसने अपने मित्र-बंधुओं-परिचितों से स्वप्न में माता द्वारा कही गई बात कह सुनाई । वे सब उसकी बात सुनकर उसकी खिल्ली उड़ाने लगे । वे कहने लगे कि कहीं कभी सपने की बात भी सच्ची होती है ।
एक बूढ़ा व्यक्ति बहुत समझदार था । वह बोला, "देखो भाई! मेरी बात मानो, इस तरह सच या झूठ कहने के बदले देवता ने जैसा कहा है, वैसा ही करना । तेरा क्या जाता है?" बूढ़े की बात मानकर, नहा-धोकर उसने संतोषी माता को प्रणाम किया । फिर घी का दीपक जलाकर दुकान पर जा बैठा । शाम तक धन का ढेर लग गया । वह हैरान हुआ । मन में संतोषी माता का नाम ले, प्रसन्न हो, घर जाने के वास्ते गहना, कपड़ा व सामान खरीदने लगा । सब काम से निपट अपने घर को रवाना हुआ ।
उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने गई । लौटते वक्त थक जाने के कारण संतोषी माता के मंदिर पर विश्राम करने बैठ गई । यह तो उसका रोज रुकने का स्थान था । धूल उड़ती देख उसने माता से पूछा, "हे माता! यह धूल कैसी उड़ रही है?" मां ने कहा, "हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर, लकडियों के तीन बोझ बना । एक नदी के किनारे रख, दुसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख । तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देखकर मोह पैदा होगा । वह वहां रुकेगा, नाश्ता-पानी बना-खाकर मां से मिलने जाएगा । तू लकड़ी का बोझ उठाकर जाना और बीच चौक में गट्ठा डालकर तीन आवाजे जोर से लगाना- लो सासूजी! लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो! आज कौन मेहमान आया है?" संतोषी मां की बात सुनकर वह 'बहुत अच्छा मां' कहकर प्रसन्न मन से लकड़ियों के तीन गट्ठे बना लाई । एक नदी के तट पर, दूसरा माता के मंदिर पर रखा । इतने में ही मुसाफिर वहां आ पहुंचा । सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहीं विश्राम करे और भोजन बना खा-पीकर गांव चले ।
इस प्रकार भोजन कर, विश्राम कर, वह अपने गांव में आ गया । उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिए आई । उसने गट्ठा आंगन में डाल, जोर से तीन आवाजें दीं, "लो सासूजी, लकड़ी का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो । आज कौन मेहमान आया है?" यह सुनकर सास ने अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहा, "बहू, तू ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है । बैठ, मीठा भात खाकर कपड़े-गहने पहन।"
पत्नी की आवाज सुनकर उसका स्वामी बाहर आया और उसके हाथ में पहनी अंगूठी देख व्याकुल हो गया । उसने मां से पूछा, "मां, यह कौन है" मां बोली, "बेटा, यह तेरी पत्नी है । आज बारह वर्ष हो गए, जब से तू गया है, तब से सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है । काम-काज कुछ करती नहीं, चार समय आकर का जाती है । अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी मांगती है ।" वह बोला, "ठीक है मां, मैंने इसे भी देखा है और तुम्हें भी । अब मुझे दूसरे घर की चाबी दो, मैं उसमें रहूंगा।"
"ठीक है बेटा, जैसी तेरी मरजी।" कहकर मां ने ताली का गुच्छा बेटे के सामने रख दिया ।
उसने दूसरे घर को खोलकर सारा सामान जमाया । एक ही दिन में वहा राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया । अब क्या था, वह सुख भोगने लगी । अगला शुक्रवार आया तो उसने पति से कहा, "मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है।" पति बोला, "बहुत अच्छा, खुशी से कर ले।"
वह उद्यापन की तैयारी करने लगी । जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई, उन्होनें मंजूर किया । परंतु पीछे से जेठानी ने अपने बच्चों को सिखलाया, "देखो रे! भोजन के समय सब लोक खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो।" लड़के भोजन करने आए । खीर पेट भरकर खाई । परंतु बात याद आते ही कहने लगे, "हमें कुछ खटाई खाने को दो, खीर खाना हमें भाता नही, देखकर अरुचि होती है।" लड़के उठ खड़े हुए । बोले, "बोले, पैसे लाओ।" भोली बहू कुछ जानती न थी, उसने उन्हें पैसे दे दिए । लड़कों ने बाजार जाकर उन पैसों से इमली खरीदी और खाई ।
यह देखकर बहू पर माता जी ने कोप किया । राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गए । जेठ-जेठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे, "लूट-लुटकर धन इकट्ठा कर लाया था, सो राजा के दूत उसे पकड़कर ले गए हैं । अब सब मालूम हो जाएगा । जब जेल की रोटी खाएगा!" बहू से यह वचन सहन नहीं हुए । वह संतोषी माता के मंदिर में गई और कहने लगी, "माता! तुमने यह क्या किया, हंसाकर क्यों रुलाने लगीं?" माता बोली, "पुत्री! तूने मेरा व्रत भंग किया है । इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं ।" वह बोली, "माता! भूली तो नहीं हूं, न कुछ अपराध किया है । मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया । मुझे क्षमा करो मां ।" मां बोली, "ऐसी भूल भी कहीं होती है।" वह बोली, "मां! अब भूल नही होगी । अब बताओ, मेरे पति कैसे आएंगे?" मां बोली, "पुत्री! जा तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा।" वह मंदिर से निकलकर बाहर आई तो रास्ते में उसे अपना पति आता हुआ मिला । उसने पूछा, "कहां गए थे?" वह बोला, "इतना धन को कमाया है, उसका कर राजा ने मांगा था । वह भरने गया था।" वह प्रसन्न होकर बोली, "भला हुआ, अब घर चलो।" फिर अगला शुक्रवार आया । वह बोली, "मुझे माता का उद्यापन करना है ।" पति ने कहा, "ठीक है, करो।" वह फिर जेठ के लड़कों से भोजन को कहने गई । जेठानी ने लड़कों को सिखा दिया कि तुम पहले ही खटाई मांगना ।
लड़के भोजन करने बैठे परंतु भोजन करने से पहले ही कहने लगे, "हमें खीर-पूरी नहीं भाती । जी बिगड़ता है । कुछ खटाई खाने को दो।" बहू बोली, "खटाई खाने को नहीं मिलेगी, खाना हो तो खाओ ।" उनके उठकर चले जाने पर उसने ब्राह्मणों के लड़के बुलाकर भोजन करवाया । दक्षिणा की जगह उन्हें एक-एक फल दिया । इससे संतोषी माता प्रसन्न हो गई । माता की कृपा से नौ माह बाद उसको चंद्रमा के समान एक सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ । पुत्र को लेकर वह प्रतिदिन संतोषी माता के मंदिर में जाने लगी । मां ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं इसके घर चलूं । इसका आसरा देखूं तो सही । यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया । गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर से सूंड के समान होंठ, उस पर मक्खियां भिनभिना रहीं थीं । दहलीज में पैर रखते ही उसकी सास चिल्लाईं "देखो रे! कोई चुडैल-डाकिनी चली आ रही है । लड़को, इसे भगाओ, नहीं तो सबको खा जाएगी ।" बहू रोशनदान से देख रही थी । वह प्रसन्न हो उठी, "आज मेरी माता मेरे घर आई हैं।" यह कहकर दूध पीते बच्चे को गोद से उतार दिया । इस पर उसका सास क्रोध में भरकर बोली, "अरी रांड! इसे देखकर कैसी उतावली हुई, जो बच्चे को पटक दिया।" इतने में मां के प्रताप से जहां देखो, वहां लड़के ही लड़के नजर आने लगे । बहू बोली, "मां जी! मैं जिनका व्रत करती हूं, यह वही संतोषी माता हैं।" इतना कह उसने झट से घर के सारे किवाड़ खोल दिये । सबने माता के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे, "हे माता! हम मूर्ख है, अज्ञानी हैं । तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है । हे माता! आप हमारे अपराधों को क्षमा करो ।"
इस प्रकार बार-बार कहने पर संतोषी माता प्रसन्न हुई । इसके बाद उसकी सास कहने लगी, "हे संतोषी माता! आपने बहू को जैसा फल दिया, वैसा सबको देना । जो यह कथा सुने या पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।"
॥ बोलो संतोषी माता की जय ॥
माता को भोग लगाते समय
वंदना और प्रार्थना
भोग लगाओ मैया योगेश्वरी भोग लगाओ मैया भुवनेश्वरी ।
भोग लगाओ माता अन्नपूर्णेश्वरी मधुर पदार्थ मन भाए ॥
थाल सजाऊं खाजा खीर प्रेम सहित विनती करूं धर धीर ।
तुम माता करुणा गंभीर भक्त चना गुड़ प्रिय पाए ॥
शुक्रवार तेरो दिन प्यारो कथा में पधारो दुःख टारो ।
भाव मन में तेरो न्यारो मन मानै दुःख प्रगटाए ॥
तेरा तुझको दे रहे, करो कृतारथ मात ।
भोग लग मां कर कृपा, कर परिपूरन काज ॥
करो क्षमा मेरी भूल को तुम हो मां सर्वज्ञ ॥
सब बिधि अर्पित मात हूं, मैं बिल्कुल अल्पज्ञ ॥
कुछ न मांगूं आपसे दो हित को पहचान ।
मां संतोषी आप हैं दया-स्नेह की खान ॥
॥ बोलो संतोषी माता की जय ॥