मंगलवार व्रत कथा
मंगल के व्रत को कोई भी कर सकता है । प्रातःकाल उठकर स्नानादि से निवृत्त हो पत्नी सहित मंगल देवता का पूजन करें एवं उन्हीं का ध्यान करें । उनके इक्कीस नामों का जाप करें- १. मंगल, २. भूमिपुत्र, ३. ऋणहर्ता, ४. धनप्रदा, ५. स्थिरासन, ६. महाकाय, ७. सर्वकामार्थ साधक, ८. लोहित. ९. लोहिताक्ष, १०. सामगानंकृपाकर, ११. धरात्मज, १२. कुज, १३. भूमिजा, १४. भूमिनंदन, १५. अंगारक, १६. भौम, १७. यम, १८. सर्वरोगहारक, १९. वृष्टिकर्त्ता, २०. पापहर्ता, २१. सर्वकाम फलदाता
नाम जप के साथ सुख-सौभाग्य के लिए प्रार्थना करें । पूजन-स्थल पर शुद्ध घी का चार बत्तियों का चौमुखा दीपक जलाएं । इक्कीस मंगलवार का व्रत करें और इक्कीस लड्डुओं का भोग लगाकर वेद के ज्ञाता सुपात्र ब्राह्मण को दे । केवल एक बार रात्रि को भोजन करें । व्रत पूर्ण होने अथवा इच्छा पूर्ति होने पर मंगलवार के व्रत का उद्यापन करें । उद्यापन के अंत मे इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति स्वर्णदान करें । आचार्य को सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर लाल बैल का दान करें । फिर स्वयं भोजन करें ।
व्रत माहात्म्य और विधि
मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो उस दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल पर मंगलयंत्र का निर्माण करें या मंगल देव की मूर्ति बनाएं । मंगल की मूर्ति का लाल पुष्पों से अर्थात् षोडशोपचार पद्धति से पूजन करें । पूजन करते समय 'ॐ अंगारकाय नमः' मंत्र का निरंतर उच्चारण करें, लाल वस्त्र पहनावें और गुड़, घी, गेहूँ से बने पदार्थों का भोग लगावें । पृथ्वीपर शयन करें । सातवें मंगलवार को मंगल की स्वर्ण मूर्ति का निर्माण कर उसका पूजन-अर्चन करें । उसे दो लाल वस्त्रों से आच्छादित करें । षट्गंध धूप, पुष्प, लाल चंदन, सद्चावल, दीप आदि से पूजा करें । सफेद कसार का भोग लगाएं । तिल, चीनी, घी का सांकल्य बनाकर, 'ॐ कुजाय नमः स्वाहा' मंत्र से हवन करें । इसके बद ब्राह्मण को भोजन कराकर मंगल की मूर्ति ब्राह्मण को दक्षिणा में दें तो मंगलग्रह जनित सभी अनिष्टों की समाप्ति होकर व्रत के प्रभाव से सुख-शांति, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । मंगलवार की पूजा करके, व्रत की कथा सुनें, आरती कर प्रसाद बांटें, तत्पश्चात भोजन करें । व्रत-पूजन करने वाला ऋणमुक्त हो और पुत्र-कलत्र से युक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है ।
स्त्री तथा कन्यायों को यह व्रत विशेष रूप से लाभप्रद है । उनके लिए पति का अखंड सुख, संपत्ति तथा आयु की प्राप्ति होती है । वे सदा सुहागिन रहती हैं । स्त्रियों को मंगलवार के दिन पार्वती-मंगल, गौरी-पूजन करके मंगलवार व्रत-विधि कथा अथवा मंगल गौरी व्रत-कथा सुननी चाहिए । यह कथा सर्वकल्याण को देने वाली है ।
मंगलवार व्रत कथा
एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में अट्ठासी हजार मुनि एकत्र होकर सुतजी से पूछने लगे- हे महामुने! आपने हमें अनेक पुराणो की कथाएं सुनाई हैं, अब कृपा करके हमें ऐसा व्रत और उसकी कथा बताएं, जिसके करने से संतान की प्राप्ति हो तथा मनुष्यों के रोग-शोक, अग्नि, सर्प दुख आदि का भय दूर हो । कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है । इस पर यदि उन्हें रोग-चिंता के कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वे श्रीहरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे?
श्री सूतजी ने कहा- हे मुनियो! एक बार युधिष्ठिर ने भी भगवान श्रीकृष्ण से लोककल्याण के लिए यही प्रश्न किया था । भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद मैं आपके सामने कहता हूं, ध्यान देकर सुनें ।
एक समय हस्तिनापुर की राजसभा में योगिराज श्रीकृष्ण बैठे हुए थे । तब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया-हे प्रभो! नंदनंदन, गोविंद! आपने मुझे अनेक कथाएं सुनाई हैं । आज कृपाकर कोई ऐसा व्रत या कथा सुनाएं, जिसके करने से मनुष्य रोग, चिंता तथा भय से मुक्त हो तथा उसे पुत्र की प्राप्ति हो । हे प्रभो! बिना पुत्र मनुष्य का जीवन व्यर्थ है, क्योंकि वह नरकगामी होता है । पुत्र के बिना मनुष्य पितृ-ऋण से भी छुटकारा नहीं पा सकता । उसके पितर पितृलोक में अतृप्त रहते हैं । अतः पुत्रदायक व्रत बतलाएं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे राजन्! मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, आप उसे ध्यानपूर्वक सुनें । कुण्डलपुर नामक एक नगर में नंदा नामक एक बुद्धिमान ब्राह्मण रहता था । उसका गुजारा जैसे-तैसे चल ही जाता था, परंतु वह बहुत दुखी रहता था, क्योंकि उसके कोई संतान नहीं थी । उसकी पत्नी सुनंदा पतिव्रता थी, वह भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी । मंगलवार के दिन व्रत करके अंत मे भोजन बनाकर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन करती थी ।
एक मंगलवार को गृहकार्य भी अधिकता के कारण वह हनुमान जी को भोग न लगा सक । इस पर उसे बहुत दुख हुआ । उसने स्वयं भी भोजन नहीं किया । प्रण किया कि अब मैं अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगी । छः दिन तक ब्राह्मणी सुनंदा अपने प्रण के अनुसार भूखी-प्यासी और निराहार रही । परंतु सातवें दिन मंगलवार को वह प्रातःकाल ही बेहोश होकर गिर पड़ी । सुनंदा की इस असीम भक्ति से श्री हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए और उसके सम्मुख प्रकट होकर बोले-सुनंदा! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू उठ और वर मांग । सुनंदा अपने आराध्यदेव श्री हनुमान जी को अपने समक्ष पाकर आनंद से विह्वल हो उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली - हे प्रभु! मेरे कोई संतान नहीं है । कृपा करके मुझे संतान प्रदान करें ।
श्री हनुमान जी ने कहा - तेरी इच्छा पूर्ण होगी । तेरे यहां एक कन्या उत्पन्न होगी । उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे । इस प्रकार वर देकर श्रीहनुमान जी अंतर्धान हो गए । ब्राह्मणी सुनंदा बहुत हर्षित हुई । उसने यह समाचार अपने पति से जाकर कहा । ब्राह्मणदेव कन्या का वरदान सुनकर पहले तो दुखी हुए, परंतु सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हो उठे । विचार किया कि ऐसी कन्या के साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी । श्री हनुमान जी की कृपा से ब्राह्मणी ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया ।
दसवें दिन ब्राह्मण ने उस बालिका का नामकर-संस्कार कराया । उसके कल पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नबाला रखा ।
कन्या ने पूर्वजन्म में विधि-विधान से मंगलदेव का व्रत किया था । उसके पुण्यों के फलस्वरूप रत्नबाला का अष्टांग प्रतिदिन बहुत-सा सोना देता था । उस सोने से नंदा ब्राह्मण बहुत धनवान हो गया । ब्राह्मणी सुनंदा भी बहुत अभिमानी हो गई । रत्नबाला जब दस वर्ष की हो गई तो एक दिन सुनंदा ने नंदा ब्राह्मण से कहा- मेरी पुत्री रत्नबाला विवाह योग्य हो गई है, अतः कोई सुंदर तथा योग्य वर देखकर उसका विवाह कर दें ।
यह सुनकर नंदा ब्राह्मण बोला- अभी तो रत्नबाला बहुत छोटी है । अभी से क्यों परेशान होती हो । तब ब्राह्मणी ने कहा- हे पतिदेव! रजस्वला का दान देने वाले माता-पिता को घोर नर्क की प्राप्ति होती है ।
इस पर नंदा ब्राह्मण ने कहा - अभी तो रत्नबाला केवल दस वर्ष की ही है । मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराए हैं । अभी जल्दी क्या है? ब्राह्मणी सुनंदा ने कहा- आप ये सारे तर्क लोभ के कारण दे रहे हैं । आपको तो शास्त्रों के आदेश का पालन करना चाहिए । नंदा ब्राह्मण के पास अपनी पत्नी की बात का की जबाव न था । वह बोला- ठीक है, मैं कल योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेज दूंगा । दान भी तो सुपात्र को ही दिया जाता है ।
दूसरे दिन ब्राह्मण ने दुत को बुलाया और उसे बेटी के लिए योग्य वर तलाशने की आज्ञा दी । दूत स्वामी की आज्ञा पाकर वर खोजने के लिए चल पड़ा । अनेक नगर घूमने के बाद उसने पंपईनगर में एक सुंदर ब्राह्मण युवक को देखा, जिसका नाम सोमेश्वर था । वह बहुत गुणवान था । दूत ने इस सुंदर व गुणवान ब्राह्मण पुत्र के बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया । ब्राह्मण नंदा को भी सोमेश्वर अच्छा लगा और फिर एक शुभमुहूर्त में विधिपूर्वक सोमेश्वर को कन्या का दान करके ब्राह्मण-ब्राह्मणी संतुष्ट हो गए । लोभी ब्राह्मण नंदा ने रत्नबाला का कन्यादान तो कर दिया था परंतु वह बहुत खिन्न था । उसने विचार किया कि रत्नबाला अब ससुराल चली जाएगी । इससे जो सोना मुझे मिलता है, वह आगे नहीं मिलेगा । मेरे पास जोधन था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष बचा है, वह भी कुच दिन के पश्चात् समाप्त हो जाएगा । उसने विचार किया कि अब कोई ऐसा उपाय करूं कि रत्नबाला मेरे घर में ही बनी रहे । आखिर उसने एक क्रूर निर्णय ले लिया । उसने विचार किया कि जब रत्नबाला का पति सोमेश्वर उसे अपने घर वापस ले जा रहा होगा तो वह मार्ग में उसका वध करवा देगा और अपनी पुत्री को अपने घर वापस ले आएगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता रहेगा और समाज की नजर से भी वह बच जाएगा ।
प्रातःकाल हुआ । नंदा और सुनंदा ने अपने जामाता तथा पुत्री को बहुत सारा धन देकर विदा किया । सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नबाला को लेकर अपने नगर की तरफ चल दिया । ब्राह्मण नंदा ने क्रूर निर्णयो को कार्यरूप देने के लिए अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए पहले ही भेज दिया था । दूत मार्ग में ही छिपकर बैठ गया और जैसे ही सोमेश्वर उसके छिपे स्थान पर पहुंचा, ब्राह्मण-दूत ने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए सोमेश्वर का वध कर दिया और यह समाचार ब्राह्मण तक भी पहुंचा दिया । अपने जामाता के वध का समाचार सुनकर नंदा ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ वहां पहुंचा, जहां यह जघन्य कार्य हुआ था और रुदन करती अपनी पुत्री से बोला- पुत्री! लुटेरों ने ऐसा अनर्थ करते हुए कुछ नहीं सोचा । भगवान की यह कैसी इच्छा थी, लेकिन भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता । अब तू घर चल, जो भाग्य में लिखा है वही होता है ।
अपने पति की मृत्यु से रत्नबाला बहुत दुखी हुई । उसने मरने की ठान ली । उसने विलाप करते हुए अपने माता-पिता से सती होने की अपनी इच्छा बताई । माता-पिता ने बहुत समझाया लेकिन वह न मानी ।
तब ब्राह्मण नंदा यह विचार करने लगा-
मैने व्यर्थ ही जामाता-वध का पाप अपने सिर लिया । रत्नबाला अपने पति के साथ अपने प्राण तक देने को तैयार है । मेरा तो दोनों तरफ से मरण हो गया । धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई-वध के पाप के फलस्वरूप यमयातना भी भुगतनी पड़ेगी । यह सोचकर वह बहुत दुखी हुआ ।
सोमेश्वर कि चिता बनाई गई । रत्नबाला सती होने की इच्छा से पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई । जैसे ही चिता को अग्नि दी गई, वैसे ही प्रसन हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-हे रत्नबाला! मैं तेरी पतिभक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू वर मांग । रत्नबाला ने अपने पति क जीवनदान मांगा । मंगलदेव बोले- रत्नबाला! तेरा पति अजर-अमर है । इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो, वह वर मांग ।
रत्नबाला ने कहा- हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातःकाल लाल पुष्प, लाल चंदन से पूजन करे, उसे रोग-व्याधि न हो, स्वजनों से कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे । उसका घर परिवार सभी प्रकार के सुखों से भरा हो । ऋणकर्ता ऋणमुक्त होकर धन-संपत्ति का स्वामी हो जाए । जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो । मंगलदेव 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए ।
मंगलदेव की कृपा से सोमेश्वर जीवित हो उठा । रत्नबाला अपने पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई । सोमेश्वर अपनी पत्नी को लेकर अपने नगर को चला गया । रत्नबाला को यह पता चल गया था कि उसके पति की हत्या लोभ के कारण उसके पिता ने करवाई थी, लेकिन उसने इसे किसी को नहीं बताया । उसने पिता को क्षमा कर दिया । पति-पत्नी ने आजीवन मंगल व्रत किया और मंगलदेव की कृपा से इस लोक का सुख-ऐश्वर्य भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गए ।
॥इतिश्री मंगलवार व्रत कथा॥