निर्गुन सूँ सर्गुन भये, भक्त उधारनहार ।
सहजो की दंडौत है, ता कूँ बारम्बार ॥
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निर्गुन सर्गुन एक प्रभु, देख्यौ समझ बिचार ।
सतगुरु ने आँखी दई, निस्चै कियौ निहार ॥
सहजो हरि बहु रंग है, वही प्रगट वहि गूप ।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप ॥
चरनदास गुरु की दया, गयो सकल सन्देह ।
छूटे बाद बिबाद सब, भई सहज गति लेह ॥
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हाज़िर-नाज़िर
रूप नाम गुन सूँ रहित, पाँच तत्त सूँ दूर ।
चरनदास गुरु ने कही, सहजो छिपा हजूर ॥
आपा खोजे पाइये, और जतन नहिं कोय ।
नीर छीर निर्ताय के, सहजो सुरति समोय ॥
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यही भाव मीराबाई ने भी अपनी बानी में व्यक्त किया है:
मैं तो हरि चरणन की दासी, अब मैं काहे को जाऊं कासी ।
घट ही में गंगा घट ही में जमना, घट घट हैं अबिनासी ।
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नैनों लख लैनी साईं तैंड़े हजूर ।
आगे पीछे दहिने बायें, सकल रहा भरपूर ॥
जिन को ज्ञान गुरू को नाहीं, सो जानत हैं दूर ।
जोग जज्ञ तीरथ व्रत साथै, पावत नाहीं कूर ॥
स्वर्ग मृत्यु पाताल जिमीं में, सोई हरि का नूर ।
चरनदास गुरु मोहिं बतायौ, सेहजो सब का मूर ॥