बहुजिनसी - ॥ समास दसवां - श्रोताअवलक्षणनिरूपणनाम ॥
‘स्वधर्म’ याने मानवधर्म! जिस धर्म के कारण रिश्तों पहचान होकर मनुष्य आचरन करना सीखे ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
किसी एक कार्य का साक्षेप । कुछ तो होता विक्षेप । काल सहायता करे तो अपने आप । होते रहता ॥१॥
कार्यभाग होने लगा । उससे प्राणी आनंदित हुआ । विचार भी सूझने लगा । दिन पर दिन ॥२॥
कोई प्राणी जन्म लेता । कुछ तो काल करे सहायता । दुखोपरांत सुख देता । देव कृपालुता से ॥३॥
सारा ही काल यदि सजता । तो सारे ही बनते राजा । कुछ सजता कुछ ना सजता । ऐसा है ॥४॥
इहलोक अथवा परलोक । साधे अगर कोई विवेक । अद्भुत हो स्वाभाविक । देन ईश्वर की ॥५॥
सुने बिना समझा । सिखाये बिना सयानापन आया । देखा ना सुना । भूमंडल में ॥६॥
सब कुछ सुनने से समझे । वृत्ति शांत होती समझते समझते । नेमस्त मन में समझे । सारासार ॥७॥
श्रवण याने सुनें । मनन याने मन में धरें । सहज ही इसी उपाय से । त्रैलोक्य चले ॥८॥
श्रवण आड आते विक्षेप । कहे कितने नाना जिनस । सावध रहने पर आते प्रत्यय । सब कुछ ॥९॥
श्रवण में लोग बैठे । बोलते बोलते एकाग्र हुये । इस के उपरांत जो नये आये । वे एकाग्र होते नहीं ॥१०॥
मनुष्य बाहर घूमकर आया । नाना प्रकार का सुना । उदंड गड़बड़ करने लगा । चुप रहे ना ॥११॥
प्रसंग देखकर चलते । ऐसे लोग थाड़े रहते । श्रवण में नाना विक्षेप आते । वे सुनें अब ॥१२॥
सुनने के लिये श्रवण में बैठा । अकडने लगी काया । आती जम्हाई पर जम्हाईयां । निद्रा भरें ॥१३॥
मन को सचेत करके बैठा । परंतु वह मन ही सुनेना । पीछे था सुना जो नाना । वही पकड़कर बैठा ॥१४॥
तत्पर किया शरीर । परंतु मन में दूसरे ही विचार । कल्पना का कल्पित विस्तार । कहे भी तो कितना ॥१५॥
जो कुछ कानों से सुना । उसका समझकर विवरण किया । तभी फिर कुछ सार्थक हुआ । निरूपण में ॥१६॥
मन दिखता तो पकडें उसे । जिसका वही सम्हालें । सम्हालकर विवेक से भरें । अर्थातर में ॥१७॥
निरूपण में आकर बैठा । परंतु वह उदंड खा कर आया । बैठते ही जी घबराने लगा । तृषाक्रांत ॥१८॥
पहले उदक मंगवाया । घटाघट उदंड लिया । उससे जी मचलाने लगा । उठ गया ॥१९॥
हिचकियां आती खट्टी डकार । होती फजिती वायु छोडने पर । क्षणक्षण में जाता उठकर । लघुशंका को ॥२०॥
शौच के कारण घबराया । सारा ही छोड़कर भागा । निरूपण प्रसंग में निकल गया । अखंड ऐसा ॥२१॥
दृष्टांत में कुछ अपूर्व आया । अंतःकरण वहीं रह गया । कहा तक क्या पठन हुआ । कुछ भी समझेना ॥२२॥
निरूपण में आकर बैठा । तो बिच्छू ने डंक मारा । कैसा निरूपण हुआ । व्याकुल ॥२३॥
पेट में उठा दर्द । पीठ में उठी चमक । वात बिवाई खुजली के कारण । बैठ सके ना ॥२४॥
पिस्सू काटकर भागा । उससे प्राणी दुश्चित हुआ । किसी ने जोर से कोलाहल किया । वहीं भागे ॥२५॥
विषयी लोक श्रवण में आते । वे स्त्रियों की ओर ही देखते । चोर चुरा ले जाते । पादरक्षा ॥२६॥
हां नहीं का वादविवाद । उससे उदंड हुआ खेद । अपशब्द गाली अप्रमाद । हुआ चूक गया ॥२७॥
कोई निरूपण में बैठते । सावकाश बाते करते । हरिदास वे रट लगाते । पेट के लिये ॥२८॥
बहुत ज्ञाता मिले । एक के बाद एक बोले । लोगों के आशय रह गये । कौन जाने ॥२९॥
मेरा सही तेरा गलत । ऐसी जिसकी अखंड आदत । न्याय नीति छोड । दौडे अन्याय की ओर ॥३०॥
अपने बडप्पन के लिये । मुंह में आये वैसा बोलते जाये । न्याय नहीं वह अंत में । परम अन्यायी ॥३१॥
एक ओर अभिमान खौले । दूसरी ओर क्रोध से जले । ऐसे श्रोते खरे खोटे । कौन जाने ॥३२॥
इस कारण ज्ञाते विचक्षण । वे पहले ही धरते अज्ञातापन । मूर्ख बुध्दू स्वयम् । कुछ भी नहीं ॥३३॥
अपने से बडा ईश्वर । ऐसा जिसे समझा विचार । सब कुछ जगदांतर । वह भी राखें ॥३४॥
सभा में कलह हुआ । दोष ज्ञाता पर आया । अंतर राखना नहीं सीखा । कैसा योगी ॥३५॥
बैर करने से बैर ही बढता । स्वयं को दुःख भोगना पडता । इस पर से ध्यान में आता । रहस्य सयानेपन का ॥३६॥
अखंड स्वयं को सम्हालते । हीनता ना आने देते । क्षमा शांति के महान लोगों में । अगत्य रहते ॥३७॥
दुर्गुणी के पास बैठा गुणवान । अवगुण समझता तत्क्षण । विवेकी पुरुष का वर्तन । होता है विवेकपूर्ण ॥३८॥
उपाय पर्याय दीर्घ प्रयत्न । विवेकबल से नाना यत्न । करे उसका महिमान । वहीं जाने ॥३९॥
दुर्जनों से घिरा हुआ । स्वैर लोगों से पतित हुआ । विवेक से भ्रष्ट हुआ । विवेकी कैसा ॥४०॥
न्याय पर्याय उपाय । मूर्ख को क्या समझे ये । मूर्ख के कारण कर्दम होये । मजालिस का ॥४१॥
फिर वे सयाने ठीक करते । स्वयं सहकर सहन करवाते । स्वयं करके करवाते । लोगों द्वारा ॥४२॥
पृथ्वी में उदंड जन । जनों में रहते सज्जन । जिनके कारण समाधान । मिलता प्राणिमात्रों को ॥४३॥
वह मनोगतों के अंग जाने । मान प्रसंग समय जाने । संतप्त को शांत करना जाने । नाना प्रकार से ॥४४॥
ऐसा जो ज्ञाता लोक । समर्थ उसका विवेक । उसका करना कुछ एक । जनों को समझेना ॥४५॥
बहुत जनों को चलाये । नाना मंडलो को हिलाये । ऐसी यह समर्थ पदवी विवेक से । प्राप्त होती ॥४६॥
विवेक एकांत में करें । जगदीश धारणा से धरें । लोग अपने और पराये । कहें ही नहीं ॥४७॥
एकांत में विवेक का ठांव मिले । एकांत में यत्न मिले । एकांत में तर्क घूमे । ब्रह्मांड गोल में ॥४८॥
एकांत में स्मरण करें । खोया निधान प्राप्त होये । अंतरात्मा के साथ घूमें । कुछ तो ॥४९॥
जिसने एकांत मान लिया । सबसे पहले वह समझा । उससे अलग बडप्पन का । ठिकाना ही नहीं ॥५०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे श्रोताअवलक्षणनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥
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Last Updated : December 09, 2023
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