बहुजिनसी - ॥ समास सातवां - जनस्वभावनिरूपणनाम ॥

‘स्वधर्म’ याने मानवधर्म! जिस धर्म के कारण रिश्तों पहचान होकर मनुष्य आचरन करना सीखे ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
जनों का लालची स्वभाव । आरंभ में ही कहते देव । याने मुझे कुछ देव । ऐसी वासना ॥१॥
भक्ति कुछ भी ना करे । और प्रसन्नता की इच्छा धरे । जैसे कुछ भी सेवा न करते । स्वामी से मांगे ॥२॥
कष्ट बिन फल नहीं । कष्ट बिन राज्य नहीं । किये बिन होता नहीं । साध्य जनों में ॥३॥
आलस से काम बिगड़ता । यह तो प्रत्यय आता । कष्ट से जी चुराते । हीन जन ॥४॥
पहले कष्ट के दुःख सहते । वे आगे सुख के फल भोगते । पहले आलस से सुखी होते । उन्हें आगे दुःख ॥५॥
इहलोक अथवा परलोक । दोनो ओर एक सा विवेक । दीर्घसूचना का कौतुक । समझना चाहिये ॥६॥
कमाया उतना खा जाते । वे कठिन समय में मर जाते। दीर्घसूचना से बर्ताव करते । वे ही भले ॥७॥
इहलोक के लिये संचितार्थ । परलोक के लिये परमार्थ । संचित के बिना व्यर्थ । जीते जी मर जाते ॥८॥
एक बार मरने से छूटे ना । पुनः जन्म जन्मांतर में यातना । स्वयं को मारे बचाये ना । वह आत्महत्यारा ॥९॥
प्रतिजन्म में आत्मघात । कौन करें गणित । इस कारण जन्ममृत्य । कैसे चूकें ॥१०॥
देव सब कुछ करते । ऐसे प्राणिमात्र कहते । उसकी भेंट का लाभ ये । अकस्मात् हुआ ॥११॥
विवेक का लाभ होये । जिससे परमात्मा का ठांव मिले । विवेक देखने पर मिला ये । जनों को विवेक ॥१२॥
देव देखें तो है एक । परंतु करता अनेक । उन अनेकों को एक । ना कहें ॥१३॥
देव का कर्तृत्व और देव । समझना चाहिये अभिप्राव । समझे बिन अनेक जीव । यूं ही बोलते ॥१४॥
व्यर्थ ही बोलते मूर्खता से । बडप्पन दिखाने के लिये । तृप्ति के लिये करते जैसे । अलग ही उपाय ॥१५॥
जिन्होंने उदंड कष्ट किये । वे भाग्य भोगते रहे । अन्य वे बोलते ही रहे । अभागे जन ॥१६॥
अभागों के अभागे लक्षण । समझ जाते विचक्षण । भलों के उत्तम गुण । अभागों को ना समझे ॥१७॥
फैली उसकी कुबुद्धि । वहां कैसे होगी शुद्धि । कुबुद्धि ही सुबुद्धि । ऐसा उसे लगे ॥१८॥
मनुष्य जिसने होश खोया । क्या सच माने उसका । विचार के नाम पर जहां । शून्याकार ॥१९॥
विचार से इहलोक परलोक । विचार से होता है सार्थक । विचार से नित्यानित्यविवेक । देखना चाहिये ॥२०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे जनस्वभावनिरूपणनाम समास सातवां ॥७॥


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Last Updated : December 09, 2023

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