तत्त्वान्वय का - ॥ समास तीसरा - पृथ्वीस्तवननिरूपणनाम ॥
श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
धन्य धन्य यह वसुमति । इसकी महिमा कहूं कितनी । प्राणिमात्र रहते सब ही । इस के आधार से ॥१॥
अंतरिक्ष में रहते जीव । यह भी पृथ्वी का स्वभाव । देह जड़ न होते तो जीव । कैसे टिकेंगे ॥२॥
जलाते भूनते खोदते । हल जोतते कुरेदते गड्ढे करते । उसपर मलमूत्र त्यागते । और करते वमन ॥३॥
नतभ्रष्ट सड़ा गला जर्जर । पृथ्वी के बिना कहां आधार । देहांतकाल में शरीर । पडे उसपर ही ॥४॥
भले बुरे सकल ही । पृथ्वी बिन आधार नहीं । नाना धातु द्रव्य वे भी । पृथ्वी के गर्भ में ॥५॥
एक दूसरे को संहारते । प्राणी भूमि पर रहते । भूमि त्यागकर जाते । तो कहां पर ॥६॥
गढ कोट पुर पट्टन । नाना देशों का होता आकलन । देव दानव मानव का स्थान । पृथ्वी पर ॥७॥
नाना रत्न हीरे पारस । नाना धातु द्रव्यांश । गुप्त प्रकट करने का प्रयास । पृथ्वी बिन नहीं ॥८॥
मेरु मंदार हिमाचल । नाना अष्टकुलाचल । नाना पक्षी मत्स्य व्याल । भूमंडल में ॥९॥
नाना समुद्रों के पार । भंवर आवरणोदक की ओर । असंख्य टूटते कगार । भूमंडल के ॥१०॥
इनमें गुप्त विवर । छोटे बडे अपार । वहां निबिड़ अंधकार । बस्ति करे ॥११॥
आवरणोदक वह अपार । कौन जाने उसका पार । उदंड भरे हैं जलचर । असंभाव्य विशाल ॥१२॥
उस जीवन का आधार पवन । निबिड ठोस और सघन । फूट न सकता जीवन । किसी ओर ॥१३॥
उस प्रभंजन का आधार । कठिनता से अहंकार । ऐसे उस भूगोल का पार । कौन जाने ॥१४॥
नाना पदार्थों की खानि । धातु रत्नों की भीड कितनी । कल्पतरु चिंतामणि । अमृतकुंड ॥१५॥
नाना द्वीप नाना खंड । बसते उजाड उदंड । वहां नाना जीवों के विद्रोह । अलग अलग ॥१६॥
मेरु घेर कर कांटो का कगार । असंभाव्य झरता कडोसे । निबिड लगे तरुवर । नाना प्रकार के ॥१७॥
उसके पास लोकालोक । जहां सूर्य का घूमे चाक । चंद्रादि द्रोणादि मैनाक। महागिरि ॥१८॥
नाना देशों में पाषाणभेद । नाना प्रकार के मृत्तिकाभेद । नाना विभूति छंद बंध । नाना खानि ॥१९॥
बहुरत्ना यह वसुंधरा । ऐसा पदार्थ कहां दूसरा । असीम पडे जिधर उधर । जहां वहां ॥२०॥
सारी पृथ्वी घूमकर देखे । ऐसा प्राणी कौन है । दूजी तुलना ना शोभा दे । पृथ्वी को ॥२१॥
नाना बेली नाना फसले । देशदेशों में अनेक हैं । देखो तो समान सरीखे । एक भी नहीं ॥२२॥
स्वर्ग मृत्यु और पाताल । अपूर्व रचे तीनों ताल । पाताल लोक में महाव्याल । बस्ती करते ॥२३॥
नाना बेली बीजों की खानि । है यह विशाल धरणी । अभिनव कर्ता की करनी । रही बनकर ॥२४॥
गढ कोट नाना नगर । पुर पट्टन मनोहर । सभी जगह जगदेश्वर । बस्ती करते ॥२५॥
महाबली हो कर गये । पृथ्वी पर हलचल मचा गये । सामर्थ्य से रहे निराले । यह तो होता नहीं ॥२६॥
असंभाव्य यह धरती । जीव कितने सारे जीते । नाना अवतार पंक्ति । भूमंडल पर ॥२७॥
अभी नगद प्रमाण । कुछ ना करना पडे अनुमान । नाना प्रकार के जीवन । पृथ्वी के ही आधार से ॥२८॥
कई एक भूमि मेरी कहते । अंतमें स्वयं ही मर जाते । कितना काल बीतने पर भी ये । धरती ज्यों की त्यों ॥२९॥
ऐसी पृथ्वी की महिमा । दूसरी क्या दें उपमा । ब्रह्मादिकों से लेकर हमें । आश्रय ही है उसका ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे पृथ्वीस्तवननिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥
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Last Updated : December 09, 2023
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