आत्मदशक - ॥ समास दसवां - सिद्धांतनिरूपणनाम ॥
देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
गगन में सारा ही होते रहता । गगन समान न टिकता । निश्चल में चंचल नाना । वे भी इसी न्याय से ॥१॥
घना अंधकार छाया । लगे गगन काला हुआ । रवि किरणों से हुआ सुनहला । ऐसा लगे ॥२॥
जब पडती ठंड बहुत । लगे गगन हुआ शीत । गरम झोंकों से हुआ शुष्क । ऐसा लगे ॥३॥
ऐसा जो कुछ लगा । वह सब हुआ और गया । आकाशसमान टिका रहा । यह तो होता नहीं ॥४॥
उत्तम ज्ञातृत्व का जिनस । समझ कर देखे सावकाश । निराभास वह आकाश । भास मिथ्या ॥५॥
उदक फैले वायु फैले । अंतरात्मा अत्यंत ही फैले । तत्त्वों में तत्त्व सारे ही फैले । अंतर्याम में ॥६॥
चलित होता और चलित न होता । अंतरंग में सब कुछ समझता । विवरण से ही स्पष्ट होता । प्राणिमात्र को ॥७॥
विवरण करते करते अंत में । अखंड भेंट निवृत्ति पद में । अलग करने से । होंगे नहीं ॥८॥
जहां ज्ञान का होता विज्ञान । और मन का होता उन्मन । तत्त्वनिरसन में अनन्य । विवेक से होते ॥९॥
श्रेष्ठ को खोजकर देखा । तो चंचल का निश्चल हुआ । देवभक्तपन रह गया । उसी ठांव पर ॥१०॥
ठांव कहें तो पदार्थ नहीं । पदार्थमात्र मूल में नहीं । थोड़ा बहुत बोला जो कुछ भी । समझने के लिये ॥११॥
अज्ञानशक्ति का हुआ निरसन । ज्ञानशक्ति का हुआ अस्त । वृत्तिशून्य से हुई कैसे । स्थिति देखो ॥१२॥
मुख्य शक्तिपात है ऐसा । नहीं चंचलता का फेरा । शांति में शांत कैसा । निर्विकारी ॥१३॥
चंचल के विकार पलटते । चंचल ही जहां सूखते । चंचल निश्चल एक होते । यह तो होये ना ॥१४॥
महावाक्य का जहां विचारु । वहां संन्यासी का अधिकारु । दैवीकृपा का जो नरु । वह भी विवरण कर देखे ॥१५॥
संन्यासी याने षड्न्यासी । विचारवंत सर्व संन्यासी । स्वयं से अपनी करनी। निश्चयरूप ॥१६॥
जगदीश होने पर प्रसन्न । वहां कौन करे अनुमान । अब रहने दो ये विचार । विचारवंत जानते ॥१७॥
जो जो विचारवंत समझ गये । वे सब निःसंग होकर गये । देहाभिमानी जो बच गये । वे रक्षा करते देहाभिमान की ॥१८॥
लक्ष पर बैठे अलक्ष्य । उड़ गया पूर्वपक्ष । हेतुरूप में अंतरसाक्ष । उसका भी अस्त हुआ ॥१९॥
आकाश और पाताल । दोनों भी नाम से अंतराल । हटाते ही दृश्य का पटल । अखंड हुये ॥२०॥
वह तो अखंड ही है । मन उपाधि लक्ष्य कर देखे । उपाधि निरसन होते ही सहे । शब्द कैसा ॥२१॥
शब्द के परे कल्पना के पार । मनबुद्धि अगोचर । बार बार करे विचार । अंतर्याम में ॥२२॥
देखते देखते समझ में आये । समझा उतना व्यर्थ जाये । कठिन कैसा कहें उसे । किस प्रकार ॥२३॥
वाक्यार्थवाच्यांश खोजा । अलक्ष्य में लक्ष्यांश डूबा । आगे समझकर बोलना । चाहिये कोई भी ॥२४॥
शाश्वत को खोजते गया । उससे ज्ञानी साच हुआ । विकार छोड मिल गया । निर्विकारी में ॥२५॥
दुःस्वप्न अपार देखे । जागने पर झूठे हुये । पुनः उन्हे अगर याद किये । फिर भी वे मिथ्या ॥२६॥
प्रारब्धयोग से देह होता । रहता या नष्ट होता । विचार अंतरंग में बैठा । चलित न हो ऐसे ॥२७॥
बीज अग्नि में भूजा । उसका बढ़ना रूका । ज्ञाता का भी हुआ वैसा । वासना बीज ॥२८॥
विचार से निश्चल हुई बुद्धि । बुद्धि के पास कार्यसिद्धि । देखने पर पूर्वजों की बुद्धि । लीन हुई निश्चल में ॥२९॥
निश्चल को ध्याये वह निश्चल । चंचल को ध्याये वह चंचल । भूतों को ध्याये वह केवल । भूत होता ॥३०॥
जो अंत तक पहुंचे । उसे ये कुछ ना करे । अंतर्निष्ठों को बाजीगरी जैसे । वैसी माया ॥३१॥
मिथ्या ऐसे समझ में आया । विचार से सुदृढ हुआ । सारा भय ही उड गया । अकस्मात् ॥३२॥
उपासना से उत्तीर्ण हों । भक्तजन बढाओ । अंतरंग में विवेक से समझो । सब कुछ ॥३३॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सिद्धांतनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥
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Last Updated : December 09, 2023
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