आत्मदशक - ॥ समास पाचवां चंचललक्षणनिरूपणनाम ॥
देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
दोनों जैसे तीन चलते । अगुणी अष्टधा प्रकृति ये । अधोर्ध्व छोडकर व्यवहार करते । इंद्रफणि जैसा ॥१॥
प्रपौत्र खाता परदादा को । बेटा सहज ही मारे बाप को । गुम होता राजा जो । चारों जनों का ॥२॥
देव छिपा देवालय में । देवालय की पूजा से पाये उसे । सृष्टि मे सबके लिये । ऐसा ही है ॥३॥
दोनों नाम एक के हैं रखे । लोगों ने नेमस्त कल्पित किये । प्रत्यय देखा जो विवेक से । तो एक ही नाल ॥४॥
नहीं पुरुष ना वनिता । लोगों ने कल्पित किया तत्त्वतः । भली तरह से अगर खोजा । तो कुछ भी नहीं ॥५॥
स्त्री नदी पुरुष नाला । ऐसे ऐसे कहते सकल । शांति से विचार देखें तो केवल । देह नहीं ॥६॥
अपना स्वयं को समझेना । देखने जाओ तो बूझे ना । कहीं किसी से मेल होये ना । उदंडता के कारण ॥७॥
अकेला ही उदंड हुआ । उदंडों में अकेला पड़ा । अपने आप को ही अपना । पसारा सह सकेना ॥८॥
एक रहकर फूट पडी । फूट पड़कर भी स्थिति अकेली । विचित्र कला फैली । प्राणिमात्र में ॥९॥
वल्लरी में जल का संचार । शुष्क दिखती बाहर । आर्द्रता बिन ना होती स्थिर । करो कुछ भी ॥१०॥
वृक्षों के लिये बनाई क्यारी । वृक्षों की राह रहे निराली । अंतराल में वृक्ष कई । उड़ जाते ॥११॥
भूमि से हुये अलग । मगर नहीं गये सूख । निराले ही ढंग से बलिष्ठ । अपनी ही जगह ॥१२॥
देव के कारण वृक्ष बढते । देव ना हो तो लकडी बनते । स्पष्ट ही है । रहस्य नहीं सर्वथा ॥१३॥
वृक्ष से वृक्ष बनते । वे भी अंतरिक्ष में जाते । जड़ पृथ्वी को छेदे । कदापि नहीं ॥१४॥
वृक्ष को वृक्ष से खाद जीवन । देकर पालते प्रतिदिन । बोलते वृक्ष शब्दमंथन । से विचार लेते ॥१५॥
होना था वह पहले ही हुआ । फिर कल्पना कल्पित कर कहा गया । जानकारों के समझ में आया । सब कुछ ॥१६॥
समझा फिर भी बूझे ना । बूझा फिर भी समझे ना । प्रत्यय बिना अनुमान में आये ना । सब कुछ ॥१७॥
सबका पिता कौन । इसकी ही देखें पहचान । मिले अपने को स्वयं । जगदंतर में ॥१८॥
अंतरनिष्ठों की उच्च कोटि । बाहरी मुद्रावालों की संगति खोटी । ये बातें मूर्ख को क्या समझेगी । सयाने जानते ॥१९॥
अंतरंग रखने पर राजी । कोई किसी का भी नवाजी । अंतरंग न राखें तो सब्जी । भी नहीं मिलेगी ॥२०॥
ऐसा है व्यवहार प्रत्यक्ष । अलक्ष्य में लगायें लक्ष्य । दक्ष को मिलने पर दक्ष । समाधान होता ॥२१॥
मन से मिलते ही मन । देखकर आते निरंजन । चंचलचक्र का उल्लंघन । करके पार जाते ॥२२॥
एक बार जाकर देखा । फिर उसे सन्निध ही पाया । चर्मचक्षु से लक्ष्य किया । ऐसा न होता कदापि ॥२३॥
नाना शरीरों में चंचल । अखंड करे हलचल । परब्रह्म वह निश्चल । सर्वत्र स्थित ॥२४॥
चंचल दौडे एक ओर । तो रिक्त होये दूसरी ओर । चंचल पर्याप्त चारों ओर । यह तो होता नहीं ॥२५॥
चंचल चंचल को पुरे ना । चंचल पूर्ण विवरण कर सके ना । निश्चल अपार अनुमान । में कैसे आयें ॥२६॥
उड़ा अग्निबाण गगन में । कैसे जा पायेगा पार गगन के । जाते जाते बीच में ही बुझे । यह स्वभाव ही उसका ॥२७॥
मनोधर्म एकदेशी । क्या समझेगा वस्तु कैसी । निर्गुण त्यागकर अपयशी । सर्व ब्रह्म कहे ॥२८॥
नहीं सारासारविचार । वहां सारा अधःकार । खोटा बालक खरा त्यागकर । अज्ञान लेता ॥२९॥
ब्रह्मांड का महाकारण । वहा से यह पंचीकरण । महावाक्य का विवरण । अलग ही है ॥३०॥
महत्तत्व महद्भूत । उसे ही जानिये भगवंत । उपासना यह समाप्त । हुई यहां पर ॥३१॥
कर्म उपासना और ज्ञान । त्रिकांड वेद ये प्रमाण । ज्ञान का होता विज्ञान। परब्रह्म में ॥३२॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चंचललक्षणनिरूपणनाम समास पांचवां ॥५॥
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Last Updated : December 09, 2023
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