आत्मदशक - ॥ समास पहला - चातुर्यलक्षणनाम ॥
देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अस्थि मांस के शरीर । उसमें रहता जीवेश्वर । नाना विकारों से विकार । में प्रवीण होता ॥१॥
घना पोला स्वभाव । विवरण कर जानिये जीव । होना या ना होना सर्व । जीव जाने ॥२॥
एक का मांग मांग कर लेना । एक के बिना मांगे ही देना । प्रचीति से है सुलक्षण । पहचानें ॥३॥
जीव जीव में लगायें । आत्मा में आत्मा मिलायें । रह रहकर शोध लें। परांतर का ॥४॥
जनेऊ के धागे उलझे । ढिलाई से गुंथ गये । नेम से रखने पर शोभा दे । दृष्टि सम्मुख ॥५॥
वैसे ही मन से मन । विवेक से करे मिलन । ढीलेपन से अनुमान । होता है ॥६॥
अनुमान से अनुमान बढे । संकोच से कार्यभाग बिगडे । इस कारण प्रत्यय ये। पहले देखें ॥७॥
दूसरों के जी का समझे ना । परातर जान सके ना । वश्य होते लोक नाना । किस प्रकार ॥८॥
बुद्धि त्यागकर परे । लोग वशीकरण करते । अपूर्णता से ढीले पडते । ठाई ठाई ॥९॥
जगदीश है जगदांतर में । टोटके किस पर करें । जो कोई विवेक से विवरण करे । वही श्रेष्ठ ॥१०॥
श्रेष्ठ कार्य करे श्रेष्ठ । कृत्रिम करे वह कनिष्ठ । कर्मानुसार प्राणी नष्ट । अथवा भले ॥११॥
राजा जाते राजपथ से । चोर जाते चोरपंथ से । पागल ठगे अल्पस्वार्थ से । मूर्खतावश ॥१२॥
मूर्ख को लगे मैं सयाना । मगर वह पागल दीनता भरा । चातुर्य के चिन्ह नाना । चतुर जाने ॥१३॥
जो जगदंतर से मिला । वह जगदंतर ही हुआ । इहलोक और परलोक में उसे भला । क्या कमी ॥१४॥
बुद्धि भगवंत की देन । मनुष्य कच्चा बुद्धि बिन । फुकट का राज्य छोड । भीख माग ॥१५॥
जो जो जहा हुये निर्माण । वे सब वहां हुये मान्य । अभिमानवश उलझन । में फंसे ठाई ठाई ॥१६॥
सारे ही कहते महान हम । सारे ही कहते सुंदर हम । सारे ही कहते चतुर हम । भूमंडल में ॥१७॥
ऐसा विचार जब मन में लाते । कोई भी छोटा ना कहलाये । ज्ञाता अनुमान में लाते । सबकुछ ॥१८॥
अपने अपने साभिमान से । लोग चलते अनुमान से । मगर इसे विवेक से । देखना चाहिये ॥१९॥
झूठे का साभिमान लेना । सत्य सारा ही त्यागना । मूर्खता के लक्षण । रहते ऐसे ॥२०॥
सत्य का जो साभिमान । वह जानिये निराभिमान । न्याय अन्याय समान । कदापि नहीं ॥२१॥
न्याय याने वह शाश्वत । अन्याय याने वह अशाश्वत । स्वैर और नियमित । एक कैसे ॥२२॥
कोई भोगते प्रकट भाग्य । कोई तस्कर जाते भाग । एक की महंती प्रकट । एक की चोरी छिपी ॥२३॥
आचारविचार बिन । जो जो करे वह सब थकान । धूर्त और विचक्षण । खोजें वही ॥२४॥
उदंड बाजारी मिले । मगर उन्हें धूर्त ही सम्हाले । धूर्त के पास कुछ ना चले । बाजारियों की ॥२५॥
इस कारण मुख्य मुख्य । उससे ही करें सख्य । इस प्रकार असंख्य । मिलते बाजारी ॥२६॥
धूर्त को धूर्त पसंद पडे । धूर्त की-धूर्त ही प्रशंसा करे । पागल व्यर्थ ही घूमते । कार्य बिना ॥२७॥
धूर्त को धूर्तता की पहचान । उससे मिला मन से मन । मयर यह गुप्तरूपेण । करना चाहिये सर्वः ॥२८॥
समर्थ का रखने पर मन । वहां आते उदंड जन । जन और सज्जन । आर्जव करते ॥२९॥
पहचान से पहचान साधें । बुद्धि से बुद्धि बोधें । नीतिन्याय से मार्ग रोकें । पाखंड का ॥३०॥
वेश धरें बावला । भीतर रहें नाना कला । सभी लोगों की आत्मियता । तोडें नहीं ॥३१॥
निस्पृह और नित्य नूतनः । प्रत्यय का ब्रह्मज्ञान । प्रकट ज्ञाता सज्जन । दुर्लभ जग में ॥३२॥
नाना जिनस कण्ठस्थ । सबका अंतरंग होता शांत । चंचलता से तद्नंतर । सभी स्थानों पर ॥३३॥
एक जगह बैठे रहे । तो फिर सारा कारोबार ही डूबे । सावधानी से जिसे उसे । भेंट दें ॥३४॥
मेलजोल से मन रखें । चातुर्य के लक्षण ये । मनुष्य मात्र उत्तम गुणों से । समाधान पाये ॥३५॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चातुर्यलक्षणनाम समास पहला ॥१॥
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Last Updated : December 09, 2023
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