आत्मदशक - ॥ समास तीसरा - श्रेष्ठअतरात्मानिरूपणनाम ॥

 देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
मूल से इधर उधर सारा ! फैला पचीकरण पसारा । इस में साक्षीत्व का डोरा । वह भी तत्त्वरूप ॥१॥
दोनों ओर जमी सेना । उच्च सिंहासन पर राजा । समझे विचार इसका । अंतर्याम में ॥२॥
देहमात्र अस्थिमास का । वैसे ही जानें नृपति का । मूल से लेकर सृष्टि का । तत्त्वरूप ॥३॥
राया की सत्ता से चलते । परंतु पंचभूत ही सारे । मूलतः अधिक ज्ञातृत्व का है। अधिष्ठान वह ॥४॥
विवेक से बहुत विशाल हुये । इस कारण अवतारी कहे गये। मनु चक्रवर्ती हुये। इसी न्याय से ॥५॥
जहां उदड ज्ञातृत्व । वे ही उतने सदेव । थोडे ज्ञातृत्व से निर्देव । होते लोग ॥६॥
व्याप को समेटते जाते । धक्के चपेटे सहते । उसने प्राणी सदेव होते । देखते देखते ॥७॥
ऐसा ये अब भी होता । मूर्ख लोगों को नहीं समझता । विवेकी मनुष्य समझता । सब कुछ ॥८॥
बुद्धि के पास छोटा बडा । सामान्य लोगों को समझे ना । पहले जो उपजा । बडा कहते उसे ॥९॥
आयु में छोटा नृपति' । वृद्ध उसे नमस्कार करते। विचित्र विवेक की गति । समझनी चाहिये ॥१०॥
सामान्य लोगों का ज्ञान । वह सारा ही अनुमान । दीक्षा परंपरा के लक्षण । होते ही ऐसे ॥११॥
नहीं कहें तो किसे । सामान्य को क्या समझे । किस किस को कहे । कितना कुछ ॥१२॥
छोटे का होता भाग्य उदित । तो उसे मानते तुच्छ । इस कारण मेलजोल के लोग । दूर रखें ॥१३॥
निश्चित समझे ना वचन । निश्चित आये ना राजकरण । व्यर्थ ही धरते बडप्पन । मूर्खतावश ॥१४॥
निश्चित कुछ भी समझे ना । निश्चित कोई भी माने ना । पहले जन्मा उसका बडप्पन । कौन माने ॥१५॥
बडे में बडप्पन नहीं । छोटे में छोटापन नहीं । ऐसा जो बोले उसमें नहीं । सयानापन ॥१६॥
गुण के बिना बडप्पन । यह तो सारा ही अप्रमाण । इसकी प्रचीत प्रमाण । बडप्पन मे ॥१७॥
तथापि अग्रजों का मान रखें । अग्रज अपना बड़प्पन समझे । ना समझे तो आगे कष्ट आयेंगे । बड़प्पन से ॥१८॥
तस्मात अग्रज अंतरात्मा । जहां चेता वहीं महिमा । यह तो प्रकट ही है हमें । दोष नहीं ॥१९॥
कोई एक इस कारण । विवेक से सीखे सयानापन । विवेक ना रखे तो सम्मान । टूट जाता ॥२०॥
सम्मान टूटा याने गया । जन्म लेकर क्या किया । बलात् सकट में डाल दिया । अपने आप को ॥२१॥
सभी औरतें गालिया देतीं । सकट में गिरा ऐसा कहतीं । मूर्खता की प्राप्ति । खड़ी हुई समक्ष ॥२२॥
ऐसा कोई भी ना करें । सब सार्थक ही करें । न समझे तो विवरण करें । ग्रथांतर में ॥ २३॥
सयाने को कोई तो बुलाते । मूर्ख को लोग भगा देते । जीव को यदि सपत्ति चाहिये । तो सयाना बनें ॥२४॥
अजी इस सयानेपन के लिये । बहुतों के कष्ट करने पड़ते । परंतु सयानापन सीखे । यह उत्तमोत्तम ॥२५॥
जो मान्य हुआ बहुतों को । वह सयाना हुआ समझो । जनों में सयाने मनुष्य को । क्या कमी ॥२६॥
अपना हित न करे लौकिकीं। वह जानिये आत्मघातकी । इस मूर्ख समान पातकी । अन्य नहीं ॥२७॥
स्वयं संसार में दुःखी होता । लोगों की डांट खाता । जनों में जो सयाना रहता । वह ऐसा न करे ॥२८॥
साधकों को सिखाया सहजता से । मान्य हो तो लें सुख से । अमान्य हो तो त्याग दें इसे । एक ओर ॥२९॥
आप श्रोताओं परम दक्ष । अलक्ष्य में लगाते लक्ष्य । यह तो सामान्य प्रत्यक्ष । जानते हो ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे श्रेष्ठअंतरात्मानिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥

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Last Updated : December 09, 2023

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