सगुणपरीक्षा - ॥ समास पहला - जन्मदुःखनिरूपणनाम ॥
श्रीमत्दासबोध के प्रत्येक छंद को श्रीसमर्थ ने श्रीमत्से लिखी है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
जन्म दुःख का अंकुर । जन्म शोक का सागर । जन्म भय का गिरिवर । अचल ऐसा ॥१॥
जन्म सांचा कर्मों का । जन्म खदान पातकों का । जन्म छल काल का । नित नया ॥२॥
जन्म कुविद्या का फल । जन्म लोभ का कमल । जन्म भ्रांति का पटल । ज्ञानहीन ॥३॥
जन्म जीव को बंधन । जन्म मृत्यु का कारण । जन्म यही अकारण । उलझन की गुत्थी ॥४॥
जन्म सुख का बिसर । जन्म चिंता का भांडार । जन्म वासनाविस्तार । विस्तारित हुआ ॥५॥
जन्म जीव का रूप बुरा । जन्म कल्पना की मुद्रा । जन्म डाकिन का फेरा । ममतारूप ॥६॥
जन्म माया का कपट । जन्म क्रोध का रूप विराट । जन्म मोक्ष को आड़ । विघ्न है ॥७॥
जन्म जीव का मैंपन । जन्म अहंता का गुण । जन्म ही विस्मरण । ईश्वर का ॥८॥
जन्म विषयों की आकृष्टि । जन्म दुराशा की बेडी । जन्म काल की ककडी । भक्षण करे ॥९॥
जन्म ही विषम काल । जन्म यही बुरा काल । जन्म यही अति अमंगल । नर्कपतन ॥१०॥
देखें शरीर का मूल । इस जैसा नहीं अमंगल । रजस्वला का जो रजबल । उससे जन्म इसका ॥११॥
अत्यंत दोष जिस रज का । पुतला बना यह उसी रज का । वहां उत्सव निर्मलपन का । कब होगा ॥१२॥
रज जो रजस्वला का । गाढा बना सूखकर उसका । केवल उस प्रगाढ का । बना यह शरीर ॥१३॥
ऊपर ऊपर दिखे वैभव का । भीतर बोरा नरक का । जैसे ढक्कन चर्मकुंड का । खोलता ना बने ॥१४॥
होता शुद्ध कुंड धोने पर । इसे रोज भी धोयें अगर । तब भी दुर्गंधि शरीर पर । शुद्धता न आये ॥१५॥
अस्थिपंजर खड़ा किया । शिरा नाडियों से लपेट दिया । मेद मांस से भर दिया । जोड जोड़ में ॥१६॥
अशुद्ध शब्द भी शुद्ध नहीं । देह में भरा है वही । नाना व्याधि दुःख भी । बसते अभ्यंतर में ॥१७॥
भरा नर्क का कोठार । लथपथ है अंदर बाहर । जमी मूत्र थैली भरकर । दुर्गंधियुक्त ॥१८॥
जंतु कीड़े और आंत । थैला नाना दुर्गंधियुक्त । असीम चमडी थुलथुलित । ऊबाने वाली ॥१९॥
सिर है सर्वाग का प्रमाण । बल से वहां बहे घ्राण । गंदगी बहे फूटने पर श्रवण । वह दुर्गंध असह्य ॥२०॥
कीचड निकले आखों से । नाक भरा रेंट से । प्रातः काल गंदगी निकले मुख से । मल जैसी ॥२१॥
लार थूक और मल । पित्त कफ प्रबल । इसे कहते मुखकमल । चंद्रसमान ॥२२॥
मुख दिखे गंदा ऐसे । पेट भरा विष्ठा से । प्रत्यक्ष को प्रमाण न लगे । भूमंडल में सर्वथा ॥२३॥
पेट में डालने पर दिव्यान्न । कुछ विष्ठा कुछ वमन । भागिरथी का भी पिये जीवन । उससे बने लघुशंका ॥२४॥
इस तरह मल मूत्र और वमन । यही देह का जीवन । ऐसे ही देह बढता जान । यदर्थी संदेह नहीं ॥२५॥
पेट में न होता मल मूत्र वमन । मर जाते सकल जन । हो राव अथवा दीन । पेट में विष्ठा चूके ना ॥२६॥
निर्मलता के लिये निकाले अगर । तत्त्वतः मृत होती शरीर । एवं देह की व्यवस्था इस प्रकार । होती है ॥२७॥
ऐसा यह जब दृढ रहता । यथाभूत देखा जाता । पर वो दुर्दशा जब कहा जाता । शंका की बाधा होती ॥२८॥
ऐसे कारागृह की बस्ती । नौ मास बहु विपत्ति । नौ ही द्वार निरोध करती । वायु कैसे वहां ॥२९॥
वमन नरक के रस झरतें । जो जठराग्नि से तपतें । जिससे सभी ऊबलते । अस्थिमांस ॥३०॥
त्वचाविन गर्भ खौले । तब माता का जी ललचाये । कटु तीक्ष्ण से सर्वाग जले । उस बालक का ॥३१॥
बंधी चर्म की पोटली । जिसमें विष्ठा की थैली । रस उपाय की रहती । नाल वहां ॥३२॥
विष्ठा मूत्र वमन पित्त । नाक मुंह से निकलते जंत । जिससे घबराये चित्त । अत्याधिक ॥३३॥
प्राणी ऐसे कारागृह में । पड़ा अति कठोर घुटन में । कहे तड़पकर चक्रपाणी से । छुड़ाइये यहां से अब ॥३४॥
हे ईश्वर छुड़ाओगे यहां से । तो करूंगा मैं स्वहित ऐसे । आगे बचूंगा गर्भवास से । पुनः नहीं यहां ॥३५॥
दुःखी होकर ऐसी प्रतिज्ञा की । तब जन्म घडी पास आई । माता आक्रोश करने लगी । प्रसवकाल में ॥३६॥
नाक मुंह में जमा मांस । तब मस्तक द्वार से छोडे श्वास । वह भी हुआ बंद निशेष । जन्म के समय ॥३७॥
मस्तकद्वार बंद हुआ । उससे चित्त व्याकुल हुआ । प्राणी तड़पने लगा । चारों ओर ॥३८॥
श्वास उश्वास रोधित हुआ । उससे प्राणी घबराया । मार्ग न दिखे सा हुआ । छटपटाहट हुई ॥३९॥
चित्त बहुत घबराया । उससे वो बालक अड़ गया । लोग कहते आड़ा हुआ । निकालो काटकर ॥४०॥
तब उसे काटकर निकालते । हाथ पैर छेदते । आया हांथ उसेही काटते । मुख नासिक उदर ॥४१॥
ऐसे टुकड़े तोड़े । बालक ने प्राण छोड़े । माता ने भी छोड़े । कलेवर ॥४२॥
मृत पाया स्वयं । लिये माता के प्राण । दुःख भोगे दारुण । गर्भवास में ॥४३॥
तथापि पूर्वसुकृत से । मिला मार्ग योनि से । तब भी जाकर अटका फिरसे । कंठ स्कंद में ॥४४॥
फिर संकुचित पथ से । खींचकर निकालते बल से । जाते प्राण जिससे । बालक के ॥४५॥
निकले जब बालक के प्राण । अंत में होता विस्मरण । इस कारण पूर्व स्मरण । भूल गया ॥४६॥
गर्भ में कहे सोह सोहं । बाहर आते ही कहे कोहं । ऐसा कष्ट सहे बहुत । गर्भवास में ॥४७॥
दुःख से भीतर त्रस्त हुआ । बहुत कष्ट से बाहर आया । आते ही कष्ट बिसर गया । गर्भवास के ॥४८॥
शून्याकार बन गई वृत्ति । चित्त में ना थी कुछ भी स्मृति । अज्ञानवश हुई भ्रांति । उसे ही सुख मान लिया ॥४९॥
देह ने विकार पाये । सुख दुःख झोंके खाये । अस्तु ऐसे उलझ गये । मायाजाल में ॥५०॥
गर्भवास के दुःख ऐसे । प्राणिमात्रों को होते । इस कारण शरण में जाये । भगवंत के ॥५१॥
जो भगवंत का भक्त । वह जन्म से मुक्त । ज्ञानबल से विरक्त । सर्वकाल ॥५२॥
ऐसी गर्भवास की विपत्ति । निरुपित की यथामति । श्रोतां सावधान कर मति । अवधान दें आगे ॥५३॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे जन्मदुःखनिरुपणनाम समास पहला ॥१॥
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Last Updated : November 30, 2023
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