स्तवणनाम - ॥ समास दसवां नरदेहस्तवननिरूपणनाम ॥
इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
धन्य धन्य यह नरदेहो । इसकी अपूर्वता देखो । परमार्थ के लिये करे जो जो । पायें सिद्धि यह सब ॥१॥
इस नरदेह के ही प्राप्ति से । कोई लग गया भक्ति संग से । कोई परम वैराग्य से । चल पड़े गिरी गुफा की ओर ॥२॥
कोई घूमते तीर्थों में । कोई व्यस्त हुआ पुरश्चरणों में । कोई अखंड नामस्मरण में । निष्ठावंत बन गये ॥३॥
एक तप करने लगे । एक योगाभ्यासी महाभले । एक अभ्यासयोग से बन गये । वेदशास्त्रों में व्युत्पन्न ॥४॥
एक ने हठनिग्रह किया। देह को अत्यंत पीडित किया । एक ने देव को जगह पर पाया । भावार्थ बल से ॥५॥
एक महानुभाव विख्यात । हुये एक भक्त ख्यात । एक सिद्ध अकस्मात् । गगन संचार करते ॥६॥
एक तेजयुक्त तेजोमय हुये । कोई जल में मिल गये । एक वह देखते देखते अदृष्य हुये । वायुरूप में ॥७॥
एक एक ही अनेक होते । एक देखते देखते गुप्त होते । एक बैठे बैठे ही भटकते । नाना स्थानों पर समुद्र में ॥८॥
एक भयानक पर बैठते । एक अचेतन को चलाते । एक प्रेत को उठाते । तपोबल से ॥९॥
एक तेज को मंद करते । एक जल का शुष्क करते । एक वायु निरोधन करते । विश्वजनों का ॥१०॥
ऐसे हठनिग्रह कृतबुद्धि । जिसपर प्रसन्न नाना सिद्धि । ऐसे सिद्ध लक्षावधि । हो चुके ॥११॥
एक मनोसिद्ध एक वाचासिद्ध । एक कल्पसिद्ध एक सर्वसिद्ध । ऐसे नाना प्रकारों के सिद्ध । विख्यात हुये ॥१२॥
एक नवविधाभक्ति राजपंथ से । तर गये परलोक के सुखस्वार्थ से । एक योगी गुप्तपंथ से । ब्रह्मभवन को गये ॥१३॥
एक वैकुंठ गये । एक सत्यलोक में बस गये । एक कैलास पर बैठ गये । शिवस्वरूप होकर ॥१४॥
एक इंद्रलोक में इंद्र हुये । एक पितृलोक से मिल गये । एक वह नक्षत्रों में बैठ गये । एक वह क्षीरसागर में ॥१५॥
सलोकता समीपता । स्वरूपता सायुज्यता । ये चत्वार मुक्ति तत्वतः । इच्छानुसार सेवन करते रहे ॥१६॥
ऐसे सिद्ध साधु संत । स्वहित के लिये हुये प्रवर्तित अनंत । ऐसा यह नरदेह विख्यात । क्या कहकर वर्णन करें ॥१७॥
इस नरदेह के ही आधार से । नाना साधनों के योग से । मुख्य सारासार विचार से । हुये मुक्त बहुत ॥१८॥
इस नरदेह के ही संबंध से । पाये बहुतों ने उत्तम पद ऐसे । अहंता त्याग स्वानंद से । सुखी हुये ॥१९॥
नरदेह में आकर सकल । उद्धारगति पाये केवल । यहां संशय का मूल । छेदित हुआ ॥२०॥
पशुदेह में नहीं गति । ऐसी सर्वत्र कथित स्थिति । इस कारण नरदेह से ही प्राप्ति । परलोक की ॥२१॥
संत महंत ऋषि मुनि । सिद्ध साधु समाधानी । भक्त मुक्त ब्रह्मज्ञानी । विरक्त योगी तपस्वी ॥२२॥
तत्वज्ञानी योगाभ्यासी । ब्रह्मचारी दिगंबर संन्यासी । षड्दर्शनी तापसी । नरदेह में ही हुये ॥२३॥
इस कारण नरदेह श्रेष्ठ । नाना देहों में वरिष्ठ । इससे ही चूके अरिष्ट । यमयातना का ॥२४॥
नरदेह यह स्वाधीन । नहीं सहसा पराधीन । परंतु यह परोपकार में जतन । कर कीर्ति रूप में रह जाये ॥२५॥
अश्व वृषभ गाये भैंसे । नाना पशु बिया दासी ऐसे । उन्हें छोडे भी कृपा से । तो भी पकड़े है कोई ना कोई ॥२६॥
नरदेह नहीं ऐसे । रहे अथवा जाये इच्छा से । मगर देखो कोई इसे । बंधन में ना डाल सके ॥२७॥
नरदेह पंगु रहता । तो भी वह कार्य में ना आता । अथवा अगर वह लूला होता । तब भी परोपकार ना कर पाये ॥२८॥
नरदेह हो अंध अगर । तो वह हुई निपट व्यर्थ । अथवा हो बधिर अगर । तब भी निरूपण नहीं ॥२९॥
नरदेह गंगा रहता । तो आशंका ना ले सकता । अशक्त रोगी सड़ा । तब भी वह नि:कारण ॥३०॥
नरदेह अगर मूर्ख । अथवा मिर्गी भूतबाधा दुःख । तो भी जानिये उसे निरर्थक । निश्चिय ही ॥३१॥
इतने ये न रहते यदि व्यंग । नरदेह और सकल निर्व्यंग । वह धरें परमार्थमार्ग । तत्परता से ॥३२॥
निर्व्यंग नरदेह पाये । और परमार्थ बुद्धि भूल गये । ये मूर्ख कैसे भ्रमित हुये । मायाजाल में ॥३३॥
मिट्टी खोदकर घर बनाया । वह मेरा दृढ कल्पित किया । मगर वह बहुतों का समझ में आया । ही नहीं उसे ॥३४॥
मूषक कहते घर हमारा । छिपकलिया कहती वर हमारा । मख्खियां कहती घर हमारा । निश्चय से ॥३५॥
मकड़ियां कहती घर हमारा । चींटा कहते घर हमारा । चींटिया कहती घर हमारा । निश्चित रूप से ॥३६॥
बिच्छू कहते घर हमारा । सर्प कहते घर हमारा । तिलचट्टा कहते घर हमारा । निश्चय से ॥३७॥
भ्रमर कहते घर हमारा । भ्रमरियां कहती घर हमारा । दीमक कहती घर हमारा । काष्ट में ॥३८॥
बिल्लियां कहती घर हमारा । श्वान कहते घर हमारा । नेवलें कहते घर हमारा । निश्चय से ॥३९॥
बसैला कीटक कहते घर हमारा । झींगुर कहते घर हमारा । पिस्सु कहते घर हमारा । निश्चय से ॥४०॥
खटमल कहते घर हमारा । लाल चिटियां कहती घर हमारा । डास कहते घर हमारा । निश्चय से ॥४१॥
मच्छर कहते हमारा घर । बर्रे कहती हमारा घर । घुन कहते हमारा घर । और कनखजूरा ॥४२॥
बहुत कीडों की भरमार । कहें कितना विस्तार । समस्त कहते हमारा घर । निश्चय से ॥४३॥
पशु कहते घर हमारा । दासियां कहती घर हमारा । घरवालें कहते घर हमारा । निश्चय से ॥४४॥
अतिथि कहते घर हमारा । मित्र कहते घर हमारा । ग्रामस्थ कहते घर हमारा । निश्चय से ॥४५॥
तस्कर कहते घर हमारा । राजकी कहते घर हमारा । अग्नि कहे घर हमारा । भस्म करेंगे ॥४६॥
समस्त कहते घर मेरा । यह मूर्ख भी कहे मेरा मेरा । आखिर हुआ भारी बोझ सारा । छोड़ दिया देश ॥४७॥
हुये सब घर छिन्न भिन्न । पूरा गांव हो गया वीरान । तब उस घर में हुये विराजमान । अरण्यक पशु ॥४८॥
कीडा चींटी दीमक मूषक । उनका ही यह घर निश्चयात्मक । ये प्राणी बेचारे मूर्ख । छोड़ गये ॥४९॥
ऐसी गृहों की स्थिति । मिथ्या हुई आत्मानुभूति । जन्म दो दिनों की बस्ती । करें कहीं भी ॥५०॥
देह को कहे अपना अगर । वह निर्माण किया बहुतों के लिये मगर । प्राणियों ने माथे पर किया घर । जूं मस्तक भक्षण करती ॥५१॥
रोमरंध्रों को भक्षते कीड़े । फोडों में होते कीड़े । पेट में होते कीड़े । प्रत्यक्ष प्राणियों के ॥५२॥
कीड़े लगे दातों में । कीड़े लगे आखों में । कीड़े पड़े कर्णों में । और गोमख्खियां भिनभिनायें ॥५३॥
मच्छर अशुद्ध खाते । चीलर मांस में घुसते । पिस्सु काटकर भाग जाते । अकस्मात् ॥५४॥
बर्रें भौरे काटते । कनखजूरा अशुद्ध खाते । बिच्छू सर्प दंश करते । और अजगर फुरसा ॥५५॥
जनम लेकर देह पाला । उसे अकस्मात् व्याघ्र ले गया । अथवा भेड़ियेने ही खाया । बलात् होकर ॥५६॥
मूषक मार्जार दंश करते । श्वान अक्ष मांस नोचते। रीछ वानर मारते । तडपा तडपा कर ॥५७॥
उष्ट्र काटकर उठाते । हाथी मसल डालते । वृषभ टोचकर मारते । अकस्मात् ॥५८॥
तस्कर तडतडा तोड़ते । भूत झाड़फूंक से मारते । अस्तु इस देह की स्थिति । ऐसे रहती ॥५९॥
ऐसा यह शरीर बहुतों का । मूर्ख कहे हमारा । परंतु खाद्य जीवों का । तापत्रयी ने कथन किया ॥६०॥
देह परमार्थ में लगाया । तभी इसका सार्थक हुआ । नहीं तो यह व्यर्थ ही गया । नाना आघातों से मृत्युपंथ पर ॥६१॥
रहने दो अब वे प्रापंचिक मूर्ख । वे क्या जानते परमार्थसुख । उस मूर्ख के लक्षण कुछ एक । आगे कहे हैं ॥६२॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे नरदेहस्तवननिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥
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Last Updated : November 27, 2023
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