स्तवणनाम - ॥ समास आठवां सभास्तवननाम ॥
इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब वंदन करु सकल सभा । जिस सभा से मुक्ति सुल्लभा । जहां स्वयं जगदीश खड़ा । प्रतीक्षारत ॥१॥
॥ श्लोक ॥ नाहं वसामि वैकुंठे योगिना हृदय रवौ ॥
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥ छ ॥
नहीं वैकुंठ के ठाई । नहीं योगियों के हृदयी । मेरे भक्त गाते ठांई ठांई । वहा मैं तिष्ठित हे नारद ॥२॥
इस कारण सभा श्रेष्ठ । भक्त गाते वह वैकुंठ । नामघोष का घडघडाट । जयजयकार गर्जते ॥३॥
प्रेमी भक्तों के गायन । भगवत्कथा हरीकीर्तन । वेदव्याखान पुराण श्रवण । जहां निरंतर ॥४॥
परमेश्वर के गुणानुवाद । नाना निरूपणों के संवाद । अध्यात्म विद्या भेदाभेद - मथन जहां ॥५॥
नाना समाधान तृप्ति । नाना आशंकानिवृत्ति । चित्त में बैठे ध्यानमूर्ति । वाग्विलास से ॥६॥
भक्त प्रेमी भाविक । सभ्य सखोल सात्विक । रम्य रसीले गायक । निष्ठावंत ॥७॥
कर्मशील आचारशील । दानशील धर्मशील । सुचिश्मंत पुण्यशील । अंतरशुद्ध कृपालु ॥८॥
योगी वितरागी उदास । नेमकर्ता निग्रह तापस । विरक्त निस्पृह बहुवश । अरण्यवासी ॥९॥
दंडधारी जटाधारी । नानापंथी मुद्राधारी । एक बालब्रह्मचारी । योगेश्वर ॥१०॥
पुरश्चरणी और तपस्वी । तीर्थवासी और मनस्वी । महायोगी और जनस्वी । जनों के समान ॥११॥
सिद्ध साधु और साधक । मंत्रयंत्रशोधक । एकनिष्ठ उपासक । गुणग्राही ॥१२॥
संत सज्जन विद्वज्जन । वेदज्ञ शास्त्रज्ञ महाजन । प्रबुद्ध सर्वज्ञ समाधान । विमलकर्ता ॥१३॥
योगी व्युत्पन्न ऋषेश्वर । धूर्त तार्किक कवेश्वर । मनोजय के मुनेश्वर । और दिग्बल्की ॥१४॥
ब्रह्मज्ञानी आत्मज्ञानी । तत्वज्ञानी पिंडज्ञानी । योगाभ्यासी योगज्ञानी । उदासीन ॥१५॥
पंडित और पौराणिक । विद्वांस और वैदिक । भट और पाठक । यजुर्वेदी ॥१६॥
महाभले महाश्रोत्री । याज्ञिक और अग्निहोत्री । वैद्य और पंचाक्षरी । परोपकारकर्ते ॥१७॥
भूत भविष्य वर्तमान । जिन्हें त्रिकाल का ज्ञान । बहुश्रुत निराभिमान । निरापेक्ष ॥१८॥
शांति क्षमा दयाशील । पवित्र और सत्त्वशील । अंतरशुद्ध ज्ञानशील । ईश्वरी पुरुष ॥१९॥
ऐसे जो हैं सभानायक । जहां नित्यानित्यविवेक । उनकी महिमा अलौकिक । कैसे बखानूं कहकर ॥२०॥
जहां श्रवण का उपाय । और परमार्थसमुदाय । वहां जनों के तरणोपाय । सहज ही है ॥२१॥
उत्तमगुणों की मंडली । सत्त्वधीर सत्त्वबलशाली । व्यवस्था नित्य सुख की । जहां बसें ॥२२॥
विद्यापात्र कलापात्र । विशेष गुणों के सत्पात्र । भगवंत के प्रीतिपात्र । मिलते जहा ॥२३॥
प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रपंचिक और परमार्थी । गृहस्थाश्रमी और वानप्रस्थी । संन्यासादिक ॥२४॥
वृद्ध तरुण और बाल । पुरुष स्त्रियादि सकल । अखंड ध्याते तमालनील । अंतर्याम में ॥२५॥
ऐसे परमेश्वर के जन । उन्हें मेरा अभिवंदन । जिनसे ही समाधान । अकस्मात दृढ हो ॥२६॥
ऐसी सभा का गजर । वहां मेरा नमस्कार । जहां नित्य निरंतर । कीर्तन भगवंत का ॥२७॥
जहां होती भगवद्मूर्ति । वहां मिलती उत्तम गति । बहुत ग्रंथों में ऐसी निश्चित स्थिति । महंत ने कथन की ॥२८॥
कलियुग में कीर्तन वरिष्ठ । जहां हो वह सभा श्रेष्ठ । कथाश्रवण से नाना नष्ट । संदेह मिटते ॥२९॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सभास्तवननाम समास आठवां ॥८॥
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Last Updated : November 27, 2023
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