स्तवणनाम - ॥ समास चौथा सद्गुरुस्तवननाम ।
इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब न होता वर्णन सद्गुरू का । जहां स्पर्श न हो सकता माया का । मुझ अज्ञान को उस स्वरूप का । क्या ज्ञान हो ॥१॥
न समझे न समझे नेति नेति । ऐसे कहती है श्रुति । वहां मुझ मूर्ख की मति । स्तुति करे कैसे ॥२॥
मुझे न समझे यह विचार । दूर से ही मेरा नमस्कार । हे गुरूदेव उस पार । पार करायें मुझे ॥३॥
थी स्तवन की दुराशा । टूटा माया का भरोसा । अब हो जैसे रहो वैसा । हे सद्गुरू स्वामी ॥४॥
माया के बल से करूंगा स्तवन । ऐसी थी वांछा मेरे मन । माया हो गई लज्जायमान । क्या करूं ॥५॥
ना समझे मुख्य परमात्मा । इस कारण करनी पडती प्रतिमा । वैसे माया योग से महिमा । करूं वर्णन सद्गुरू का ॥६॥
अपने भावानुरूप मन में । जैसे देव को याद करते ध्यान में । वैसे ही सद्गुरू का इस स्तवन में । अब करूं स्तवन ॥७॥
जयजयाजी सद्गुरूराजा । विश्वभरा विश्वबीजा । परमपुरुषा मोक्षध्वजा । दीनबंधु ॥८॥
तुम्हारे ही अभयकर से । स्वैर माया संवरे ऐसे । जैसे अंधकार सूर्यप्रकाश से । पलायन करे ॥९॥
आदित्य निवारण करे अंधकार। परंतु पीछे ब्रह्मांड जाता भर । निशि होती तद्नंतर । पुनः कालिमा ॥१०॥
वैसे नहीं स्वामीराव । करे जन्म मृत्यु को व्यर्थ । जड़ से अज्ञान का ठांव । मिटा डालते ॥११॥
स्वर्ण का लोहा कभी । सर्वथा होगा नहीं । वैसे गुरूदास संदेही । होता ही नहीं सर्वथा ॥१२॥
अथवा मिलते ही सरिता गंगा से । मिलने के बाद बने गंगा जैसे । तब अगर भिन्न भी करने से । भिन्न ना होती सर्वथा ॥१३॥
मगर वह सरिता मिलने से पहले । प्रवाह मानते जगत में । वैसे नहीं शिष्य वेग से । स्वामी ही बनें ॥१४॥
पारस ना करे अपने समान । लोह को पलटे ना सुवर्ण । उपदेश करे बहुत जन । अंकित सद्गुरू का ॥१५॥
शिष्य को गुरुत्व प्राप्त होता । सुवर्ण से सुवर्ण न बन पाता । इसलिये उपमान न शोभा देता । सद्गुरू को पारस का ॥१६॥
उपमा दे सागर । मगर वह आत्यांतिक क्षार । अगर कहे क्षीरसागर । तो भी वह नष्ट होगा कल्पांत में ॥१७॥
उपमा दें मेरू अगर । मगर वह जड़ पाषाण कठोर । वैसे नहीं सद्गुरू मगर । दीनों के लिये कोमल ॥१८॥
उपमा के लिये कहे गगन । फिर भी वे गगन से अधिक निर्गुण । इस कारण दृष्टांत हीन । सद्गुरू को गगन का ॥१९॥
धैर्य के लिये कहे धरती अगर । वह नष्ट होगी कल्पांत में मगर । इस कारण धैर्य का दृष्टांत कहकर । हीन वसुंधरा ॥२०॥
उपमा दें गभस्ती अगर । तो प्रकाश कितना गभस्ती का मगर । शास्त्र मर्यादित बोलते पर । सद्गुरू अमर्याद ॥२१॥
इस कारण उपमा के लिये दिनकर हीन । सद्गुरुज्ञानप्रकाश गहन । अब फणिधर का दे उपमान । तब भी वह भार वाही ॥२२॥
अब उपमा के लिये दें कहे जल । फिर भी कालांतर में सूखेगा सकल । सद्गुरूरूप वह निश्चल । नष्ट न होगा कभी ॥२३॥
सद्गुरू को उपमा दें कहे अमृत । तब भी अमर जाते मृत्युपंथ । सद्गुरूकृपा यथार्थ । अमर ही करे ॥२४॥
सद्गुरू को कहे कल्पतरू अगर । तब भी यह कल्पना का विचार । कल्पवृक्ष का अंगीकार । कौन करे ॥२५॥
चिंता मात्र मन में नहीं । कौन पूछे चिंतामणि । कामधेनु की दोहनी । निःकाम को न लगतीं ॥२६॥
सद्गुरू को कहे लक्ष्मीवंत । फिर भी लक्ष्मी नाशवंत । जिसके दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षारत । मोक्षलक्ष्मी ॥२७॥
स्वर्ग लोक इंद्र संपत्ति । ये कालांतर में नष्ट होतीं । सद्गुरूकृपा की प्राप्ति । कालांतर में है अचल ॥२८॥
हरिहरब्रह्म आदि भी । नष्ट होगे सभी । सर्वदा अविनाश एक ही । सद्गुरूपद ॥२९॥
कौन सी उपमा उसे दे । नाशवंत सृष्टि सकल ये । पंचभूतों की उठापटकै । चले न वहां ॥३०॥
इस कारण सद्गुरू का न कर सके वर्णन । यह लो यही है मेरा वर्णन । अंतरस्थिति के चिन्ह । अंतरनिष्ठ जानते ॥३१॥ सद्गुरूस्तवननाम समास चौथा ॥४॥
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Last Updated : November 27, 2023
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