वर्णों के देवत्वादेवत्वगण का विचार --- अश्विनी नक्षत्र में रहने वाले ’ अ आ ’ दो वर्ण देवतागण से उत्पन्न हैं । भरणी में इकार सत्या कहा गया है । ’ इ उ ऊ ’ से युक्त कृत्तिका राक्षसी है जो भूमि पर रहती है और समस्त विघ्नों को नष्ट करती है । नासिका ’ ऋ ऋ ’ एवं गण्डमन्त्र ’ लृ लृ ’ से युक्त रोहिणी शव स्वरूपा है ॥४५ - ४६॥
ओष्ठ एकार युक्त मृगशिरा देवता गण में कही गई हैं ’ ऐ ’ से युक्त आर्द्रा नक्षत्र सर्वलक्षणयुक्त मनुष्य का स्वरूप है । दन्त युग्म ’ ओ औ ’ इन दो वर्णों से युक्त पुनर्वसु प्रच्छन्न रूप से मनुष्य है । क से युक्त पुष्य देवतागण हैं । ख ग से युक्त आश्लेषा को राक्षसी समझना चाहिए ॥४७ - ४८॥
घ ङ से युक्त मघा , च से युक्त पूर्वाफाल्गुनी और छ ज से युक्त उत्तराफाल्गुनी मनुष्य गण में कही गई हैं । झ ञ से युक्त हस्त देवगण हैं । ट ठ से युक्त चित्रा राक्षसी है । ड से युक्त स्वाती अप्सरा है । ढ , ण से युक्त विशाला राक्षसी है । त थ द से युक्त अनुराधा देवनायिका है । ध से युक्त ज्येष्ठा राक्षसी है । न प फ से युक्त मूल राक्षसी है ॥४९ - ५१॥
बकार रूप अक्षर माला वाली पूर्वाषाढा मानुषी कही गई है । भकार से युक्त उत्तराषाढ़ मनुष्य है । इसी प्रकार मकार से युक्त श्रवण को भी
( मनुष्य गण में ) जानना चाहिए ॥५२॥
य र से युक्त धनिष्ठा , ल से युक्त शतभिषा स्त्री गण कही गई है । व श से युक्त पूर्वभाद्रपदा मनुष्य गण में कही गई है । ष स ह से युक्त तीन वर्ण वाली उत्तराभाद्रपदा मानुषी कुल में उत्पन्न हुई है । अं अः ळ क्ष अं अः से युक्त रेवती ( देवगण वाली ) देवकन्या कही गई है ॥५४ - ५४॥
अपने गण में परम प्रीति होती हैं । भिन्न जाति में मध्यम प्रीति होती है । रक्षस और मनुष्य में नाश होता है इसी प्रकार देवता और दानव में भी बैर समझना चाहिए । उनके जन्म , संपत्ति , विपत्ति , क्षेम , शत्रु , साधक , वध , मित्र , परममित्र - ये ९ क्रमशः फल समझना चाहिए । इसी प्रकार बारम्बार तीनों पंक्तियों में नाम के नक्षत्र से लेकर मन्त्र नक्षत्र पर्यन्त गणाना करनी चाहिए ॥५५ - ५६॥
जन्म नक्षत्र वाला मन्त्र वर्जित है । जन्म नक्षत्र से तीसरा , पाँचवाँ एवं सातवाँ मन्त्राक्षर वर्जित है । ६ , ८ , और ९ शुभकारक है । इसी प्रकार चौथा और दूसरा भी प्रशस्त माना गया है । यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपने जन्म नक्षत्र का ज्ञान न हो तो उसे अपने नाम के आद्यक्षर से गणना करनी चाहिए । क्योकि नामाक्षर का अपना नक्षत्र निषिद्ध नहीं है ॥५७ - ५८॥
शुभ और अशुभ फल का विचार करने वाला मन्त्रज्ञ एवं बुद्धिमान् साधक इस प्रकार कोष्ठ रचना कर प्रदक्षिणा क्रम से अपने नाम के आद्य अक्षर से गणना करे । हे नाथ ! हे मेरे सर्वस्व ! हे पुरुषेश्वर ! यहाँ तक हमने कुलाकुल तथा अनन्त नामक तारा चक्र ( नक्षत्रचक्र ) के विषय में मन्त्र के गुणों को कहा ॥५९ - ६०॥
तारामन्त्र प्रदीप के समान दीप्तिमान है । तारामन्त्र रत्न है और भाण्ड में संस्थित अमृत के समान है । इस प्रकार मन्त्र का विचार करने से मनुष्य को बहुत बडी़ सिद्धि प्राप्त होती है ॥६१॥