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बालकाण्ड - दोहा ३३१ से ३४०

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥३३१॥

चौपाला
जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥
नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥
नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥
कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥

दोहा

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥३३२॥

चौपाला
पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥
भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥
मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥

दोहा

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥३३३॥

चौपाला
सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥
होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥
सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥
अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥
सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥

दोहा

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु ।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥३३४॥

चौपाला
चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥
लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥
को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥
पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥
निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥

दोहा

रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु ।
करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥३३५॥

चौपाला
देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥
रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥
बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥
राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥
मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥
हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥

छंद

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै ।
बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी ।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥

सोरठा

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय ।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥३३६॥

चौपाला

अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥
सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥
राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥
मंजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह सिथिल सब रानी ॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी । बार बार भेटहिं महतारीं ॥
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी । बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी ॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई । बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥

दोहा

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु ।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥३३७॥

चौपाला
सुक सारिका जानकी ज्याए । कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही । सुनि धीरजु परिहरइ न केही ॥
भए बिकल खग मृग एहि भाँति । मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥
बंधु समेत जनकु तब आए । प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥
सीय बिलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम बिरागी ॥
लीन्हि राँय उर लाइ जानकी । मिटी महामरजाद ग्यान की ॥
समुझावत सब सचिव सयाने । कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥
बारहिं बार सुता उर लाई । सजि सुंदर पालकीं मगाई ॥

दोहा

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥३३८॥

चौपाला
बहुबिधि भूप सुता समुझाई । नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥
दासीं दास दिए बहुतेरे । सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी । होहिं सगुन सुभ मंगल रासी ॥
भूसुर सचिव समेत समाजा । संग चले पहुँचावन राजा ॥
समय बिलोकि बाजने बाजे । रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे । दान मान परिपूरन कीन्हे ॥
चरन सरोज धूरि धरि सीसा । मुदित महीपति पाइ असीसा ॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना । मंगलमूल सगुन भए नाना ॥

दोहा

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥३३९॥

चौपाला
नृप करि बिनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टेरे ॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे । प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे ॥
बार बार बिरिदावलि भाषी । फिरे सकल रामहि उर राखी ॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं । जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं ॥
पुनि कह भूपति बचन सुहाए । फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए ॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े । प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े ॥
तब बिदेह बोले कर जोरी । बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई । महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई ॥

दोहा

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥३४०॥

चौपाला
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा । आसिरबादु सबहि सन पावा ॥
सादर पुनि भेंटे जामाता । रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥
जोरि पंकरुह पानि सुहाए । बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा । मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी । चिदानंदु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई । जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥

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Last Updated : February 25, 2011

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