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बालकाण्ड - दोहा १ से १०

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥१॥

चौपाला
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥१॥

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥

सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥२॥

साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥३॥

मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसै ब्रह्म बिचारा प्रचारा ॥४॥

बिधि निषेधमय कलि मल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥

हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥५॥

बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥६॥

अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥७॥

 

दोहा

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥२॥

चौपाला
मज्ज फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला ।

सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिम नहिं गोई ॥१॥

बालमीक नारद घटकोजी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥

जलचर थलचर नाना । जे जड चेतन जीव जहाना ॥२॥

मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥

सो जानब सतस्म्ग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥३॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥४॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥

बिधि बस सुजन कुसंगत परहिं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥५॥

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥

सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥६॥

 

दोहा

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥३ (क )॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।

बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥३ (ख )॥

चौपाला
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरं ॥

हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित धृत जिन्ह के मन माखी ॥२॥

तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥

उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥३॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥४॥

पुनि प्रनवउँ पृथराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥५॥

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥६॥

 

दोहा

उदासीन अरि मीत सुनत जरहिं खल रिति ।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥४॥

चौपाला
मै अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥१॥

बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥२॥

उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥

सुधा सुरा सम साधु असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥३॥

भल अनभल निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥४॥

गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥५॥

 

दोहा

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।

सुधा सराहिअ अमरताँ मीचु ॥५॥

चौपाला
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥

तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥१॥

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥

कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥२॥

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती । साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥

दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥३॥

माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥

कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥४॥

सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥५॥

 

दोहा

जड चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥६॥

चौपाला
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥

काल सुभाउ करम बरिआईं । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं ॥१॥

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥२॥

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥

उघरहिं अंत न होईं निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥३॥

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥

हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥४॥

गगन चढ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलै नीच जल संगा ॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥५॥

धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥

सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥६॥

 

दोहा

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।

होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥७ (क )॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥७ (ख )॥

जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥७ (ग ) ॥

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।

बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥७ (घ ) ॥

चौपाला
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ।

सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥१॥

जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ॥

निज बुधि बल भरोस मोहि नहीं । तातें बिनय करउँ सब पाहीं ॥२॥

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥

सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥३॥

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरै न छाछी ॥

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥४॥

जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥

हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारि । जे पर दूषन भूषनधारी ॥५॥

निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाही ॥६॥

जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढि बढहिं जल पाई ॥

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढै जोई ॥७॥

 

दोहा

भाग छोट अभिलाषु बड करउँ एक बिस्वास ।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥८॥

चौपाला
खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहाहिं कलकंठ कठोरा ॥

हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥१॥

कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥

भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी ॥२॥

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ॥

हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की ॥३॥

राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥४॥

आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥

भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥५॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ॥६॥

 

दोहा

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक ॥९॥

चौपाला
एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ।

मंगल भवन अमंगल हारि । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥१॥

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ । राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोह न बसन बिना बर नारी ॥२॥

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥३॥

जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ॥

सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा ॥४॥

धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥५॥

मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ।

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥

 

दोहा

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग ।

दारु बिजारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥१० (क )॥

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥१० (ख )॥

 

चौपाला
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥

कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥

हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥

जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥

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Last Updated : February 24, 2011

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