दोहा
कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥२५१॥
चौपाला
कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥
दोहा
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥२५२॥
चौपाला
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई । तेहिं समाज अस कहइ न कोई ॥
कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥
तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ॥
नाथ जानि अस आयसु होऊ । कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं । जोजन सत प्रमान लै धावौं ॥
दोहा
तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥२५३॥
चौपाला
लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥
सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं । मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं ॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥
बिस्वामित्र समय सुभ जानी । बोले अति सनेहमय बानी ॥
उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक परितापा ॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा । हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ । ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥
दोहा
उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥२५४॥
चौपाला
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ राम गनेस गोसाईं ॥
दोहा
रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥२५५॥
चौपाला
सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेठ कहावत हितू हमारे ॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥
रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥
भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥
रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥
दोहा
मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥२५६॥
चौपाला
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥
करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥
बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
दोहा
देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥२५७॥
चौपाला
नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥
सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥
अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग सब सय जाहीं ॥
दोहा
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ॥२५८॥
चौपाला
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥
लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपन कर सोना ॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू ॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥
दोहा
लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥२५९॥
चौपाला
दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥
संभुचाप बड बोहितु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहि कोउ कड़हारू ॥
दोहा
राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥२६०॥
चौपाला
देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥
का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥
अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
छंद
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥