दोहा
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥२११॥
मासपारायण , सातवाँ विश्राम
चौपाला
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥
पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥
बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥
बरन बरन बिकसे बन जाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥
दोहा
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥२१२॥
चौपाला
बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥
धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥
मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥
होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥
दोहा
धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥२१३॥
चौपाला
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥
बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रथ संकुल सब काला ॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥
पुर बाहेर सर सारित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥
देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनिबृंद समेता ॥
बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥
दोहा
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥२१४॥
चौपाला
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥
मूरति मधुर मनोहर देखी । भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
दोहा
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥२१५॥
चौपाला
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥
दोहा
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥२१६॥
चौपाला
मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥
दोहा
रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥२१७॥
चौपाला
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं । प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं ॥
राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं । प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं ॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं । नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती । कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता । प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥
दोहा
जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ ॥२१८॥
मासपारायण , आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण , दूसरा विश्राम
चौपाला
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंदि देखि अति सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नागमनि माला ॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन ॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥
दोहा
रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥२१९॥
चौपाला
देखन नगरु भूपसुत आए । समाचार पुरबासिन्ह पाए ॥
धाए धाम काम सब त्यागी । मनहु रंक निधि लूटन लागी ॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं । निरखहिं राम रूप अनुरागीं ॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती । सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं । सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं ॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ॥
अपर देउ अस कोउ न आही । यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥
दोहा
बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥२२०॥
चौपाला
कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह यह रूप निहारी ॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी । जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे । जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन । जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥
गौर किसोर बेषु बर काछें । कर सर चाप राम के पाछें ॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता । सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥