ईश्वर उवाच -
अथाग्रे कथियिष्यामि यक्षिण्यादि प्रसाधनम् ।
यस्य सिद्धौ नराणां हि सर्वे सन्ति मनोरथाः ॥
श्री शिवजी बोले -
हे रावण ! अब मैं तुमसे यक्षिणी साधन का कथन करता हूं , जिसकी सिद्धि कर लेने से साधक के सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ।
सर्वासां यक्षिणीना तु ध्यानं कुर्यात् समाहितः ।
भविनो मातृ पुत्री स्त्री रुपन्तुल्यं यथेप्सितम् ॥
तन्त्र साधक को अपनी इच्छा के अनुसार बहिन , माता , पुत्री व स्त्री ( पत्नी ) के समान मानकर यक्षिणियों के स्वरुप का ध्यान अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए । कार्य में तनिक - सी भी असावधानी हो जाने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती ।
भोज्यं निरामिष चान्नं वर्ज्य ताम्बूल भक्षणम् ।
उपविश्य जपादौ च प्रातः स्नात्वा न संस्पृशेत् ॥
यक्षिणी साधन में निरामिष अर्थात् मांस तथा पान का भोजन सर्वथा निषेध है अर्थात् वर्जित है । अपने नित्य कर्म में , प्रातः काल स्नान आदि करके मृगचर्म ( के आसन ) पर बैठकर फिर किसी को स्पर्श न करें । न ही जप और पूजन के बीच में किसी से बात करें ।
नित्यकृत्यं च कृत्वा तु स्थाने निर्जनिके जपेत् ।
यावत् प्रत्यक्षतां यान्ति यक्षिण्यो वाञ्छितप्रदाः ॥
अपना नित्यकर्म करने के पश्चात् निर्जन स्थान में इसका जप करना चाहिए । तब तक जप करें , जब तक मनवांछित फल देने वाली ( यक्षिणी ) प्रत्यक्ष न हो । क्रम टूटने पर सिद्धि में बाधा पड़ती है । अतः इसे पूर्ण सावधानी तथा बिना किसी को बताए करें । यह सब सिद्धकारक प्रयोग हैं ।
यह विधि सभी यक्षिणीयों के साधन में प्रयुक्त की जाती है ।