द्वादशस्कन्धपरिच्छेदः - एकोनशततमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


विष्णोर्वीर्याणि को वा कथयतु धरणेः कश्र्च रेणून्मिमीते

यस्यैवाङ्घ्रित्रयेण त्रिजगदभिमितं मोदते पूर्णसम्पत् ।

योऽसौ विश्र्वानि धत्ते प्रियमिह परमं धाम तस्याभियायां

त्वद्भक्ता यत्र माद्यन्त्यमृतरसमरन्दस्य यत्र प्रवाहः ॥१॥

आद्यायाशेषकर्त्रे प्रतिनिमिषनवीनाय भर्त्रे विभूतेर्भक्तात्मा विष्णवे यः प्रदिशति हविरादीनि यज्ञार्चनादौ ।

कृष्णाद्यं जन्म यो वा महदिह महतो वर्णयेत् सोऽयमेव

प्रीतः पूर्णों यशोभिस्त्वरितमभिसरेत् प्राप्यमन्ते पदं तत् ॥२॥

हे स्तोतारः कवीन्द्रास्तमिह खलु यथा चेतयध्वे तथैव

व्यक्तं वेदस्य सारं प्रणुवत जननोपात्तलीलाकथाभिः ।

जानन्तश्र्चास्य नामान्यखिलसुखकराणीति सङ्कीर्तयध्वं

हे विष्णो कीर्तनाद्यैस्तव खलु महतस्तत्त्वबोधं भजेयम् ॥३॥

विष्णोः कर्माणि सम्पश्यत मनसि सदा यैः सधर्मानबध्राद्

यानीन्द्रस्यैष भृत्यः प्रियसख इव च व्यातनोत् क्षेमकारी ।

वीक्षन्ते योगसिद्धाः परपदमनिशं यस्य सम्यक्प्रकाशं

विप्रेन्द्रा जागरूकाः कृतबहुनुतयो यच्च निर्भासयन्ते ॥४॥

नो जातो जायमानोऽपि च समधिगतस्त्वन्महिम्नोऽवसानं

देव श्रेयांसि विद्वान् प्रतिमुहुरपि ते नाम शंसामि विष्णो ।

तं त्वां संस्तौमि नानाविधनुतिवचनैरस्य लोकत्रयस्या -

प्यूर्ध्वं विभ्राजमाने विरचितवसतिं तत्र वैकुण्ठलोके ॥५॥

आपः सृष्ट्यादिजन्याः प्रथममयि विभो गर्भदेशे दधुस्त्वां

यत्र त्वय्येव जीवा जलशयन हरे सङ्गता ऐक्यमापन् ।

तस्याजस्य प्रभो ते विनिहितमभवत् पद्ममेकं हि नाभौ

दिक्पत्रं यक्तिलाहुः कनकधरणिभृत्कर्णिकं लोकरूपम् ॥६॥

हे लोका विष्णुरेतद्भुवनमजयनयत् तन्न जानीथ यूयं

युष्माकं ह्यन्तरस्थं किमपि तदपरं विद्यते विष्णुरूपम् ।

नीहारप्रख्यमायापरिवृतमनसो मोहिता नामरूपैः

प्राणप्रीत्यैकतृप्ताश्र्चरथ मखपरा हन्त नेच्छा मुकुन्दे ॥७॥

मूर्ध्रामक्ष्णां पदानां वहसि खलु सहस्राणि सम्पूर्य विश्र्वं

तत्प्रोत्क्रम्यापि तिष्ठन् परिमितविवरे भासि चित्तान्तरेऽपि ।

भूतं भव्यं च सर्वं परपुरुष भवान् किं च देहेन्द्रियादिष्वाविष्टो

ह्युद्गतत्वादमृतसुखरसं चानुभुङ्क्षे त्वमेव ॥८॥

यत्तु त्रैलोक्यरूपं दधदपि च ततो निर्गतान्त

शुद्धज्ञानात्मा वर्तसे त्वं तव खलु महिमा सोऽपि तावान् किमन्यत् ।

स्तोकस्ते भाग एवाखिलभुवनतया दृश्यते त्र्यंशकल्पं

भूयिष्ठं सान्द्रमोदात्मकमुपरि ततो भाति तस्मै नमस्ते ॥९॥

अव्यक्तं ते स्वरपूं दुरधिगमतमं तत्तु शुद्धैकसत्त्वं

व्यक्तं चाप्येतदेव स्फुटममृतरसाम्भोधिकल्लोलतुल्यम् ।

सर्वोत्कृष्टामभीष्टां तदिह गुणरसेनैव चित्तं हरन्तीं

मूर्ति ते संश्रयेऽहं पवनपुरपते पाहि मां कृष्ण रोगात् ॥१०॥

॥ इति भ्ज्ञगवन्माहात्म्यवर्णनम् एकोनशततमदशकं समाप्तम् ॥

भला , विष्णुके बल -पराक्रमका वर्णन कौन कर सकता है ? पृथ्वीके रेणुकणोंकी गणना करनेमें कौन समर्थ है ? जिनके ही तीन पगोंद्वारा मापा गया त्रिभुवन सम्पत्तिसे पूर्ण होकर आनन्दका अनुभव करता है , जो अपने योगबलसे सारे विश्र्वको धारण करते है , उन विष्णुके परम प्रिय धाम वैकुण्ठको मैं प्राप्त हो जाऊँ , जहॉं सर्वत्र मोक्ष -सुखरूपी अमृतका प्रवाह बहता रहता है , जिससे वहॉं पहुँचे हुए भगवद्भक्तजन आनन्दविभो बने रहते हैं ॥१॥

जो आदिमें उत्पन्न होनेवाले अतएव सबके कर्ता , पल -पलमें नित्यनूतन तथा विभूतिके भर्ता (लक्ष्मीपति ) हैं , उन विष्णुके लिये जो भक्तिभावसे यजन -पूजन आदिमें हविष्य आदि समर्पित करता है तथा जो उन महान विष्णुके श्रीकृष्ण आदि महामहिम अवतारोंका वर्णन करता है , वह इस जगत्में यथेष्ट सुखानुभवसे प्रसन्न तथा उत्तम कीर्तिसे सम्पन्न होकर शरीरपात होनेपर शीघ्र ही उस प्रापणीय वैकुण्ठलोकको प्राप्त होता है (दूसरेको उसकी प्राप्ति दुर्लभ है ॥२॥

हे स्तुति करनेवाले काव्यकुशल कविगण ! तुमलोग जैसा जानते हो उसी तरह विभिन्न अवतारोंमें की गयी लीला -कथाओंद्वारा विष्णुकी स्तुति करो । वे विष्णु प्रमाणसिद्ध तथा वेदोंके प्रधान प्रतिपाद्य हैं । हे परमार्थके ज्ञाताओ ! विष्णुके नाम सम्पूर्ण सुखोंके प्रदाता हैं , अतः उनका संकीर्तन करो । हे विष्णो ! महान् एश्र्वर्यशाली आपके तत्त्वज्ञानको मैं भी कीर्तनादि भक्तिद्वारा प्राप्त करना चाहता हूँ ॥३॥

जिन कर्मोंद्वारा विष्णुने समस्त धर्मोंको उन -उनके अधिकारियोंके साथ संयोजित किया है तथा उन्हीं विष्णुने जगत्की रक्षामें तत्पर होकर इन्द्रके भृत्य एवं प्रिय मित्रकी भॉंति जिन -जिन कर्मोंका विस्तार किया हैं , विष्णुके उन -उन कर्मोंका तुमलोग सदा मनमें चिन्तन करो । योगसिद्ध मुनिगण विष्णुके सम्यक् प्रकाशित परमपदका निरन्तर दर्शन करते हैं और ध्यानपरायण विप्रगण सतत जागरूक रहकर विभिन्न प्रकारकी स्तुति करते हुए उस परमपदको प्रकाशित करते हैं ॥४॥

देव ! जो उत्पन्न हो चुके हैं तथा जो उत्पन्न हो रहे हैं , उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो आपकी महिमाका पार पा सके । अतः विष्णो ! ‘यही श्रेय है ’—— यों निश्र्चय करके मैं अनवरत आपके नामको कीर्तन करता रहता हूँ तथा जो इस त्रिलोकीके भी ऊपर विराजमान है उस वैकुण्ठलोकमें निवास करनेवाले आपका नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा स्तवन करता रहता हूँ ॥५॥

अयि विभो ! सुष्टिके आदिमें उत्पन्न होनेवाले जलने पहले -पहल आपको अपने गर्भमें धारण किया अर्थात् महाप्रलयके समय आप प्रलयार्णवके जलमें शेषशय्यापर शयन करने लगे जलशायी भगवन् ! उस समय सारे जीव आपमें ही लीन होकर एकताको प्राप्त हो गये थे । प्रभो ! तब शेषशायी आप अजन्माके नाभि -मूलसे एक कमल उत्पन्न हुआ । दिशाएँ उस लोकरूप कमलके पत्ते तथा महामेरु कर्णिका कहे गये हैं ॥६॥

हे मनुष्यो ! जिन विष्णुने इस भुवनको उत्पन्न किया है तथा इससे भिन्न जो दूसरा विष्णुरूप तुम्हारे हृदयके अंदर वर्तमान हे , उन्हें तुमलोग क्यों नही जाननेकी चेष्टा करते ? तुमलोगोंका मन तो नीहारतुल्य मायासे आच्छादित हो रहा है , अतः तुमलोग नाम -रूपोंसे मोहित हो एकमात्र इन्द्रिय -तृप्तिको ही प्रधान मानकर यज्ञानुष्ठानमें तत्पर हो रहे हो । खेद है , मोक्षप्रदाता मुकुन्दको पानेकी तुम्हें इच्छा ही नहीं हो रही है ॥७॥

परपुरुष ! आपके सहस्रों मस्तक , नेत्र और चरण हैं , इसीसे आप सम्पूर्ण विश्र्व -ब्रह्माण्डको व्याप्त किये हुए हैं । पुनः उस ब्रह्माण्डका भी अतिक्रमण करके उसके ऊपर भी आप विराजमान हैं और इस अत्यन्त संकुचित हृदयाकाशमें भी आप ही प्रकाशित हो रहे हैं । भूत -वर्तमान और भविष्य जो कुछ है , सब आपका ही रूप है तथा देह और इन्द्रिय आदिमें प्रविष्ट होकर जो विषयोंका आनन्द ले रहे हैं , वही आप उन्नत होनेके कारण परमानन्दके रसका भी अनुभव करते हैं ॥८॥

अनन्त ! आप जो त्रैलोक्यमय रूप धारण करते हुए भी उससे बाहर पुनः शुद्ध ज्ञानस्वरूपसे वर्तमान हैं , यह आपकी महिमा है । दुसरा आपके समान कौन है ? आपका ही एक अंशमात्र अखिल भुवनरूपसे दृष्टिगोचर हो रहा है । आपका जो ब्रह्मा , विष्णु , महेश — इन तीन अंशोद्वारा व्यवहार करनेयोग्य अतिशय परमानन्दसे परिपूर्ण स्वरूप है , वह इस भुवनसे भी ऊपर प्रकाशित हो रहा है । ऐसे आपको नमस्कार है ॥९॥

श्रीकृष्ण ! आपका स्वरूप अव्यक्त , अतिशय दुर्बोध एवं शुद्ध सत्त्वात्मक है तथा वही व्यक्त , प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर और ब्रह्मानन्दरूपी सागरकी तरङ्गके समान सुख -सेव्य भी है ; अतः मैं आपकी उस सर्वोत्कृष्ट अभीष्ट मूर्तिका , जो अपने भक्तवात्सल्यादि गुणोंद्वारा मनको बरबस अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली है , शरण ग्रहण करता हूँ । पवनपुरपते ! रोगोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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