द्वादशस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तनवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्रैगुण्याद्भिन्नरूपं भवति हि भुवने हीनमध्योत्तमं य -

ज्ज्ञानं श्रद्धा च कर्ता वसतिरपि सुखं कर्म चाहारभेदाः ।

त्वत्क्षेत्रत्वन्निषेवादि तु यदिह पुनस्त्वपरं तत्तु सर्वं

प्राहुर्नैर्गुण्यनिष्ठं तदनुभजनतो मङ्क्षु सिद्धो भवेयम् ॥१॥

त्वय्येव न्यस्तचित्तः सुखमयि विचरन् सर्वचेष्टस्त्वदर्थं

त्वद्भक्तेैः सेव्यमानानपि चरितचरानाश्रयन् पुण्यदेशान् ।

दस्यौ विप्रे मृगादिष्वपि च सममतिर्मुच्यमानावमान -

स्पर्द्धासूयादिदोषः सततमखिलभूतेषु सम्पूजये त्वाम् ॥२॥

त्वद्भावो यावदेषु स्फुरति न विशदं तावदेवं ह्युपास्तिं

कुर्वन्नेकात्म्यबोधे झटिति विकसति त्वन्मयोऽहं चरेयम् ।

त्वद्धर्मस्यास्य तावत् किमपि न भगवन् प्रस्तुतस्य प्रणाश -

स्तस्मात् सर्वात्मनैव प्रदिश मम विभो भक्तिमार्ग मनोज्ञम् ॥३॥

तं चैनं भक्तियोगं द्रढयितुमयि मे साध्यमारोग्यमायु -

र्दिष्ट्या तत्रापि सेव्यं तव चरणमहो भेषजायैव दुग्धम् ।

मार्कण्डेयो हि पूर्वं गणकनिगदितद्वादशाब्दायुरुच्चैः

सेवित्वा वत्सरं त्वां तव भटनिवहैर्द्रावयामास मृत्युम् ॥४॥

मार्कण्डेयश्र्चिरायुः स खलु पुनरपि त्वत्परः पुष्पभद्रा -

तीरे निन्ये तपस्यन्नतुलसुखरतिः षट् तु मन्वन्तराणि ।

देवेन्द्रः सप्तमस्तं सुरयुवतिमरुन्मन्मथैर्मोहयिष्यन्

योगोष्मलुष्यमाणैर्न तु पुनरशकत् त्वज्जनं निर्जयेत् कः ॥५॥

प्रीत्या नारायणाख्यस्त्वमथ नरसख प्राप्तवानस्य पार्श्र्वं

तुष्ट्या तोष्टूयमानः स तु विविधवरैर्लोभितो नानुमेने ।

द्रष्टुं मायां त्वदीयां किल पुनरवृणोद्भक्तितृप्तान्तरात्मा

मायादुःखानभिज्ञस्तदपि मृगयते नूनमाश्र्चर्यहेतोः ॥६॥

याते त्वय्याशु वाताकुलजलदगलत्तोयपूर्णातिघूर्णत् -

सप्तार्णोराशिमग्ने जगति स तु जले सम्भ्रमन् वर्षकोटीः ।

दीनः प्रैक्षिष्ट दूरे वटदलशयनं कंचिदाश्र्चर्यबालं

त्वामेव श्यामलाङ्गं वदनसरसिजन्यस्तपादाङ्गुलीकम् ॥७॥

दृष्ट्वा त्वां हृष्टरोमा त्वरितमुपगतः स्प्रष्टुकामो मुनीन्द्रः

श्र्वासेनान्तर्निविष्टः पुनरिह सकलं दृष्टवान् विष्टपौघम् ।

भूयोऽपि श्र्वासवातैर्बहिरनुपतितो वीक्षितस्त्वत्कटाक्षै -

र्मोदादश्लेष्टुकामस्त्वयि पिहिततनौ स्वाश्रमें प्राग्वदासीत् ॥८॥

गौर्या सार्धं तदग्रे पुरभिदथ गतस्त्वत्प्रियप्रेक्षणार्थी

सिद्धानेवास्य दत्त्वा स्वयमयमजरामृत्युतादीन् गतोऽभूत् ।

एवं त्वत्सेवयैव स्मररिपुरपि स प्रियते येन तस्मा -

न्मूर्तित्रय्यात्मकस्त्वं ननु सकलनियन्तेति सुव्यक्तमासीत् ॥९॥

त्र्यंशेऽस्मिन् सत्यलोके विधिहरिपुरभिन्मन्दिराण्यूर्ध्वमूर्ध्वं

तेभ्योऽप्यूर्ध्वं तु मायाविकृतिविरहितो भाति वैकुण्ठलोकः ।

तत्र त्वं कारणाम्भस्यपि पशुपकुले शुद्धसत्त्वैकरूपी

सच्चिद्ब्रह्माद्वयात्मा पवनपुरपते पाहि मां सर्वरोगात् ॥१०॥

॥ इत्युत्तमभक्तिप्रार्थनामार्कण्डेयोपाख्यानं च सप्तनवतितमदशकं समाप्तम् ॥

इस भुवनमें जो ज्ञान , श्रद्धा , कर्ता , वासस्थान , सुख , कर्म और विभिन्न प्रकारके आहार आदि वस्तुएँ हैं , वे सभी त्रिगुणमय होनेके कारण उत्तम , मध्यम और नीचके भेदसे भिन्न रूपवाली हैं । परंतु जो आपके क्षेत्र और आपकी सेवा आदि हैं , वे सब भवत्परक ही हैं । उन्हें निर्गुण कहा जाता है । उनका अनुभजन (निरन्तर सेवन ) करके मैं भी शीघ्र ही सिद्ध हो जाऊँ ॥१॥

अयि भगवन् ! मुझे ऐसा कर दीजिये कि मैं आपमें ही दत्तचित्त होकर सूखपूर्वक विचरण करूँ । आपके निमित्त ही सारे कर्म करूँ । आपके भक्तोंद्वज्ञरा सेवित तथा आश्रित पुण्यदेशोंमें ही निवास करूँ । दस्युमें , ब्राह्मणमें और पशुओंमें भी मेरी बुद्धि एक -सी बनी रहे । मैं अपमान , स्पर्धा और असूया आदि दोषोंसे रहित हो समस्त प्राणियोंमें निरन्तर आपकी पूजा करता रहूँ ॥२॥

भगवन् ! जबतक इन समस्त जीवोंमें अन्तर्यामीरूपसे आपकी स्थितिका विशद अनुभव नहीं हो जाता , तबतक उपर्युक्त प्रकारसे मैं आपकी उपासना करता रहूँ । तत्पश्र्चात् शीघ्र ही आपके साथ एकात्मताका अनुभव होनेपर मैं त्वन्मय (भगवत्स्वरूप ) होकर विचरण करूँ । आपके इस भागवत -धर्मके प्रारम्भ होनेपर आदिसे अन्ततक किंचिन्मात्र भी इसका क्षय नहीं होता , इसलिये विभो ! मुझे उस मनोरम भक्तिमार्गका ही सब प्रकारसे दान कीजिये ॥३॥

अयि प्रभो ! उस पूर्वोक्त भक्तियोगको स्थिर करनेके लिये मुझे आरोग्य और आयुकी भी उपलब्धि करनी पड़ेगी । परंतु सौभाग्यकी बात है कि उस कार्यमें भी मुझे आपके चरणकी ही सेवा करनी होगी ; ठीक उसी तरह , जैसे रोगनिवृर्त्त्थ दुग्ध -पान अनिवार्य होता है । ज्योतिषियोंने पहलेसे ही जिनकी बारह वर्षकी ही आयु बता रखी थी , उन मार्कण्डेयजीने एक वर्षतक तीव्र समाधि -योगके द्वारा आपकी उपासना करके आपके दूतोंद्वारा मृत्युको मार भगाया था ॥४॥

जब मार्कण्डेयजीको दीर्घायु प्राप्त हो गयी , तब वे पुनः आपके भजनमें तत्पर हो गये ; क्योंकि निरतिशय सुखरूप आपके भजनमें उनकी बड़ी श्रद्धा थी । पुष्पभद्रा नदीके तटपर तपस्या करते हुए उन्होंने छः मन्वन्तरका समय व्यतीत किया । सातवें मन्वन्तरके प्रारम्भमें सप्तम देवराज इन्द्रने अप्सराओं , वासन्ती शीतल -मन्द -सुगन्ध वायु और कामदेवको भेजकर मार्कण्डेयजीको मोहित करनेकी चेष्टा की ; परंतु उनके योगकी ऊष्मासे इन्द्रानुचरोंके शारीर संतप्त हो उठे , अतः वे भाग खड़े हुए और इन्द्र उनके द्वारा मार्कण्डेयजीको मोहित न कर सके । भला , आपके भक्तको कौन जीत सकता है ॥५॥

तदनन्तर हे नरके सखा ! नारायणस्वरूप आप उनकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उनके पास आ गये । तब मार्कण्डेयजी प्रसन्नतापूर्वक आपकी स्तुति करने लगे । आपने विविध प्रकारके वरदानोंद्वारा उन्हें लुब्ध करना चाहा , परंतु उन्होंने किसी भी वरको स्वीकार नहीं किया ; क्योंकि उनका मन आपकी भक्तिसे ही पूर्णतया तृप्त था तत्पश्र्चात् उन्होंने आपकी माया देखनेकी इच्छा प्रकट की ; क्योंकि जिसे मायाजनित दुःखका ज्ञान नहीं रहता , वह आश्र्चर्यवश उसका भी अनुभव करना चाहता है ॥६॥

आपके जाते ही आकाशमें घनघोर घटा घिर आयी , प्रचण्ड आँधी चलने लगी , जिससे इधर -उधर दौड़ते हुए बादल घोर वृष्टि करने लगे , उस जलसे परिपूर्ण होकर सातों समुद्र अपनी मर्यादा तोड़कर बहने लगे और उस जलराशिमें सारा जगत् डूब गया । उस प्रलयार्णवमें मार्कण्डेय करोड़ों वर्षोंतक भ्रमण करते रहे । अन्तमें व्याकुल हो जानेपर उन्हें बहुत दूर वट -पत्रपर शयन करता हुआ कोई आश्र्चर्यमय बालक दिखायी पड़ा । वह बालरूपधारी आप ही थे । आपके श्यामल अङ्गसे निराली छटा छिटक रही थी और आपने अपने मुखकमलमें पादाङ्गुष्ठ डाल रखा था ॥७॥

आपको देखकर हर्षावेशके कारण मुनिवर कार्मण्डेयका शरीर पुलकित हो उठा । वे तुरंत ही आपका स्पर्श करनेकी अभिलाषासे निकट गये , परंतु आपकी श्र्वासवायुके साथ वे आपकी भीतर प्रविष्ट हो गये । वहॉं उन्हें पुनः चौदहों भुवनोंसहित सारा ब्रह्माण्ड दृष्टिगोचर हुआ । पुनः बाहर निकलती हुई श्र्वासवायुके साथ वे बाहर निकल आये । तब आपने कनखियोंद्वारा उनकी ओर देखा । उस समय वे हर्षित होकर आपका आलिङ्गन करनेके लिये दौड़े , परंतु आप अन्तर्धान हो गये और मुनिने पूर्ववत् अपनेको अपने आश्रममें स्थित पाया ॥८॥

तदनन्तर त्रिपुरका भेदन करनेवाले शिव पार्वतीके साथ आपके भक्तका दर्शन करनेकी इच्छासे मार्कण्डेयके समक्ष प्रकट हो गये और उन्हें अजरता -अमरता आदि वर , जो स्वयं उनको अपने तपोबलसे ही प्राप्त थे , प्रदान करके अपने स्थानको लौट गये । इस प्रकार आपकी ही भक्तिसे स्मरारि शिव भी प्रसन्न हो जाते हैं , इस कारण यह स्पष्ट हो गया कि ब्रह्मा , विष्णु और शिव -ये तीनों आपके ही स्वरूप हैं और आप ही सबके नियन्ता हैं ॥९॥

ब्रह्मा , विष्णु और शिवके लोकरूपी अंशसे युक्त इस सत्यलोकमें क्रमशः उत्तरोत्तर ब्रह्मा , विष्णु और शिवके मन्दिर हैं । उन सबसे भी ऊपर मायाके विकारोंसे रहित वैकुण्ठलोक सुशोभित है । उस वैकुण्ठलोकमें कारणोदकमें तथा गोप -कुलमें भी निवास करनेवाले आप शुद्धसत्त्वैकरूपधारी अद्वितीय सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म हैं । पवनपुरपते ! सब रोगोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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