रावण (दशग्रीव) n. लंका का सुविख्यात राक्षस सम्राट, जो पुलस्त्यपुत्र विश्रवस नामक राक्षस का पुत्र था । राम दाशरथि की पत्नी सीता का हरण करने के कारण, रावण प्राचीन भारतीय इतिहास में पाशवी वासना एवं दुष्टता का प्रतीक वन गया है ।
रावण (दशग्रीव) n. इसे रावण नाम क्यों प्राप्त हुआ, इस संबंधी कथा वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । शिव के द्वारा इसकी भुजाएँ कैलास पर्वत के नीचे दबायी गयीं । उस समय. इसने क्रोध एवं पीडा से भीषण चीत्कार (राव: सुशरुण:) किया, जिस कारण इसे रावणनाम प्राप्त हुआ
[वा. रा. ३.१६.२९] । इसी ग्रंथ में अन्यत्र ‘शत्रु को भीषण चीत्कार करने पर विवश करनेवाला’ इस अर्थ से इसे ‘शत्रु रावण’ कहा गया है
[वा. रा. सुं. २३८] । हनुमत् की तरह रावण का नाम भी एक अनार्य नाम का संस्कृत रुपान्तर प्रतीत होता है । पार्गिटर के अनुसार, रावण शब्द तामिल ‘इरैवण’ (-राजा) का संस्कृत रूप है
[पार्गि. २७७] । रायपुर जिलें में रहनेवाले गोंड लोग अपने को आज भी रावण के वंशज मानते है । राँची जिले के कटकयाँ गाँव में ‘रावना’ नामक परिवार आज भी विद्यमान है । इससे स्पष्ट है कि, रामकथा में निर्दिष्ट लंकाधिपति रावण एवं उसकी राक्षस प्रजा विंध्य प्रदेश एवं मध्य भारत में निवास करनेवाली अनार्य जातियों से कुछ ना कुछ संबंध जरूर रखती थी । इस तरह रावण एवं राक्षस वास्तव में यही नाम धारण करनेवाले इसी प्रदेश के आदिवासी थे
[बुल्के, रामकथा पृ. १२३] । रावण का उपनाम ‘दशग्रीव’ (=दशशीर्ष, दशानन) था, जिस कारण इसे द्स सिर एवं वीस हाथ थे, ऐसा कल्पनारम्य वर्णन अनेकानेक रामायण ग्रंथों में, एवं पुराणों में किया गया है । किंन्तु संभव है, ‘द्शग्रीव’ नाम पहले इसे रूपक के रूप में प्रयुक्त्त किया होगा (दशग्रीव. अर्थात जिसकी ग्रीवा दश अन्य साधारण ग्रीवों के समान बलवान् हो), एवं बाद में यह रुपकात्मक अर्थ नष्ट हो कर इसे दस मुख होने की कल्पना प्रसृत हो गयी हो । पार्गिटर के अनुसार, दशग्रीव शब्द किसी द्राविड नाम का संस्कृत रूप होगा । वाल्मीकि रामायण में कई जगह, इसे एक मुख, एवं दो हाथ होने का स्पष्ट निर्दिश प्राप्त है
[वा. रा. सुं. २२.२८] ;
[वा. रा. यु. ४०.१३,९५.४६, १०७.५४-५७, १०९.३, ११०.९-१०, १११.३४-३७] । अथर्ववेद में एक ‘दशास्य’ वाले (दशमुख) ब्राह्मण का निर्देश प्राप्त है
[अ. वे. ४.६.१] । इस निर्देश का प्रभाव भी रावण के स्वरूप की कल्पना पर पडा होगा ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण का शरीर प्रचंड, बलिष्ठ एवं ‘नीलांजनचयोपम’ अर्थात कृष्णवर्णीय था । इसकी आँखे क्रूर, विकृत एवं कृष्णपिंगल वर्ण की थीं
[वा. रा. सुं. २२.१८] । इसकी दोनों भुजाएँ इंद्रध्वज के समान बलिष्ठ थी, एवं उन पर स्वर्ण के बाहुभूषण रहते थे । इसके स्कंध अत्यंत विशाल थे, जिन पर इंद्रवज्र के आघात से उत्पन्न हुयें अनेक घाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते थें । क्रोधित होने पर इसकी आँखे लाल. महाभयंकर एवं दैदीप्यमान बनती थी
[वा. रा. सुं. १०.१५-२०] । इसे केवल दों ही हाथ थे, किन्तु युद्ध के समय अपनी इच्छा के अनुसार, दश (अथवा विंश) हस्तधारी बनने की शक्ति इसमें थी । वाल्मीकि रामायण में क्वचित् इसे बाघ, उँट, हाथी अश्व आदि की नानाविध शीर्ष धारण करनेवाना, फैली हुयीं (विवृत्त) आँखोवाला, एवं भूतगणों से परिवेष्टित कहा गया है
[वा. रा. यु. ५९.२३] । किन्तु इस प्रकार का वर्णन वाल्मीकि रामायण में बहुत ही कम है ।
रावण (दशग्रीव) n. पुलस्त्य ऋषि का पुत्र विश्रवस रावण का पिता था । उसकी माता का नाम केशिनी था, जो सुमालि राक्षस की कन्या थी । वाल्मीकि रामायण में इसकी जन्मकथा निम्न प्रकार दी गयी है:--- ब्रह्मा ने जलसृष्टि का निर्माण करने के पश्चात, प्राणिसृष्टि का निर्माण किया, जिनमें से यक्ष एवं राक्षस उत्पन्न हुयें । इन राक्षसों का एक प्रमुख नेता हेति था, जिसके पुत्र का नाम विद्युतकेश एवं पौत्र का नाम सुकेश था । सुकेश को माल्यवान, सुमालि एवं मालि नामक तीन पुत्र थे, तिन्होने ब्रह्मा से अमरत्व का वरदान प्राप्त किया था । उन राक्षसों के लिए विश्वकर्मा ने त्रिकूट पर्वत पर लंका का निर्माण किया । ये तीनों भाई देवताओं तथा तपस्वियों को त्रस्त करने लगे, जिस कारण विष्णु ने मालि का वध किया, एवं सुमालि को लंका छोड कर, रसाताल जाने पर विवश किया । विश्रवस ऋषि को अपनी देववर्णिनी नामक पत्नी से कुबेर (वैश्रवण) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । एक बार सुमालि ने कुबेर कों पुष्णक विमान पर विराजमान हो कर बडे ही वैभव से भ्रमण करते हुए देखा, जिस कारण उसने अपनी कन्या कैकसी विश्रवस ऋषि को विवाह में देने का निश्चय किया । विश्रवस ऋषि ने कैकसी का स्वीकार करते हुए कहा, ‘तुम इस दारुण समय पर आई हो, इस कारण तुम्हारे पुत्र क्रूरकर्मा राक्षस होगे; किन्तु अंतीम पुत्र धर्मात्मा होगा’ । इसी शाप के अनुसार, कैकसी को रावण, कुंभकर्ण, एवं शूर्पणखा नामक लोकोद्वेगकरी संतान, एवं विभीषण नामक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ । ‘महाभारत में रावणको विश्रवस एवं पुष्पोत्कटा का पुत्र कहा गया है । विश्रवस् का अन्य पुत्र कुबेर था, जिसने अपने पिता की सेवा के लिए पुष्पोत्कटा, राका एवं मालिनी नामक तीन सुंदर राक्षसकन्याएँ नियुक्त की । इन राक्षसकन्याओं में से पुष्पोत्कटा से रावण एवं कुंभकर्ण का, राका से खर एवं शूर्पनखा का, एवं मालिनी से विभीषण का जन्म हुआ
[म. व. २५९.७] । वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में प्राप्त उपर्युक्त कथाओं में रावण को ब्रह्मा का वंशज एवं कुबेर का भाई कहा गया है, जो कल्पनारम्य प्रतीत होता है । रावण का स्वतंत्र निर्देश प्राचीन साहित्य में रामकथा के अतिरिक्त अन्य कहीं भी प्राप्त नहीं है, जैसा कि ब्रह्मा अथवा कुबेर का प्राप्त है । इससे प्रतीत होता है कि, प्राचीन ऐतिहासिक राक्षस कुल से रावण का कोई भी संबंध वास्तव में नहीं था । किन्तु रामकथा के विकास के साथा साथ रावण का भी महत्त्व बढने पर, राक्षस वंश के साथ इसका संबंध प्रस्थापित किया गया । भागवत में इसका संबंध हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष के साथ प्रत्थापित किया गया है, जहाँ विष्णु के द्वारपाल जय एवं विजय शापवश अपने अगले तीन जन्मों में, क्रमश: हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष, रावण एवं कुंभकर्ण, शिशुपाल एवं दंतवक्र के रूप में पृथ्वी पर प्रगट होने का निर्देश प्राप्त है
[भा. ७.१.३५-३६] ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण चतुर्थ लोकपाल (धनेश) का पद एवं पुष्पक विमान प्राप्त किया । विश्रवस् ने भी अपने पुत्र कुबेर को लंका का राज्य प्रदान किया था, जो राक्षसों के द्वारा विष्णु के भय से छोडा गया था
[वा. रा. उ. ३] । एक बार, कुबेर पुष्पक विमान में वैठ कर अपने पिता विश्ववस ऋषि से मिलने आया । रावण की माता कैकसी ने इसका ध्यान कुबेर की ओर आकर्षित कर के कहा, ‘तुम भी अपने भाई के समान वैभवसंपन्न बन जाओं’ । अत: यह अपने भाईयों के साथ गोकर्ण में तपस्या करने लगा
[वा. रा. उ. ९.४०-४८] । इस तरह यह दस हजार वर्षों तक तपस्या करता रहा, जिसमें प्रति सहस्त्र वर्ष के अंत में, यह अपना एक सिर अग्नि में हवन करता था । दस हजार वर्षों के अन्त में यह अपना दसवाँ सिर भी हवन करनेवाला ही था कि, इतने में प्रसन्न हो कर ब्रह्माने इसे वर दिया, ‘तुम सुपर्ण, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिए अवध्य रहोगे’ । पश्वात ब्रह्मा ने इसके नौ सिर लौटा कर, इसे इच्छारूपी बनने का भी वर प्रदान किया
[वा. रा. उ. १०-१८-२६] ;
[पद्म. पा. ६] ;
[म. व. २६९.२६] । ब्रह्मा से वर प्राप्त करने के पश्चात्, रावण ने अपने पितामह सुमालि के अनुरोध पर अपने मंत्री प्रहस्त को कुबेर के पास भेज दिया, एवं लंका का राज्य राक्षसवंश के लिए माँग लिया । तत्पश्चात् अपने पिता विश्रवस ऋषि की आज्ञा मान कर कुबेर कैलास चला गया, एवं रावण ने अपने राक्षसबांधवों के साथ लंका को अपने अधिकार में ले लिया
[वा. रा. उ. ११.३२] ।
रावण (दशग्रीव) n. ब्रह्मा से वर प्राप्त करने के पश्चात्, लंकाधिपति रावण पृथ्वी पर अनेकानेक अत्याचार करने लगा । इसने अनेक देव, ऋषि, यक्ष, गंधर्वों का वध किया, एवं उनके उद्यानों को नष्ट किया । यह देख कर इसके सौतेले भाई कुबेर ने दूत भेजकर इसे सावधान करना चाहा । किन्तु रावण ने अपनी तलवार से उस दूत का वध किया, एवं अपने मंत्रियों के साथ कैलासपर्वत पर रहनेवाले कुबेर पर आक्रमण किया । वहाँ इसने यक्ष सेना को पराजित किया, एवं कुबेर को द्वंद्व युद्ध में परास्त कर उसका पुष्क विमान छीन लिया
[वा. रा. उ. ९] रावण (दशग्रीव) n. कुबेर को पराजित करने के बाद, पुष्पक विमान में बैठकर यह कैलासपर्वत के उपर से जा रहा था, तब पुष्पक अचानक रुक गया । फिर रावण पुष्पक से पृथ्वी पर उतरा, एवं शिवपार्षद नंदी का वानरमुख देख कर इसने उसका उपहास किया । इस कारण नंदी ने इसे शाप दिया, ‘मेरे जैसे वानरो के द्वारा तुम पराजित होगे’
[वा. रा. उ. १६] । पश्चात यह कैलास पर्वत को जडमूल से उखाड देने की चेष्टा करने लगा । कैलास पर्वत को उठा कर यह लंका में ले जाना चाहता था । रावण के बल से पर्वत हिलने लगा, किन्तु शिव ने अपने पादांगुष्ठ से कैलास पर्वत को नीचे दबाया, जिससे रावण की भुजाएँ उस पर्वत के नीचे जकड गयीं । फिर रावण विविध स्तोत्रों के द्वारा शिव का गुणगान करने लगा, एवं एक सहस्त्र वर्षो तक विलाप करता रहा । तप्तश्चात शिव इस पर प्रसन्न हुयें, एवं उन्होंने रावण की भुजाएँ भुक्त कर उसे चंद्रहास नामक खडग प्रदान किया एवं अपने भक्तो में शामिल करा दिया । तदोपरान्त रावण परमशिवभक्त बन गया, एवं एक सुवर्णलिंग सदा ही साथ रखने लगा
[वा. रा, उ. ३१] । रावण की शिवभक्ति की कथाएँ आनंद रामायण, एवं स्कंद तथा पद्म पुराणों में भी प्राप्त है
[आ. रा. १.१३.२६-४४] ;
[पद्म. उ. २४२] ।
रावण (दशग्रीव) n. एक बार रावण ने मृगया के समय दिति के पुत्र मय को देखा, जो अपनी पुत्री मंदोदरी के साथ वन में टहल रहा था । रावण का परिचय प्राप्त करने के पश्चात, मय ने मंदोदरी का विवाह इससे करना चाहा । रावण ने इस प्रस्ताव को स्वीकार लिया । विवाह के समय मय ने रावण को एक अमोघ शक्त्ति प्रदान की, जिससे राम रावण युद्ध में इसने लक्ष्मण को आहत किया था
[वा. रा. उ. १२] ।
रावण (दशग्रीव) n. एक बार कुशध्वज ऋषि की कन्या वेदवती, नारायण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए तप करती थी । इस समय रावण उसके रूपयौवन पर मोहित हो कर, उस पर अत्त्याचार करने पर प्रवृत्त हुआ । इस पर वेदवती ने इसे शाप दिया, ‘मैं तुम्हारे नाश के लिए अयोनिजा सीता के रूप में पुन; जन्म ग्रहण करूँगी’
[वा. रा. उ. अ१७] ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण की विजययात्रा का सविस्तृत वर्णन वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है, जिसके अनुसार इसने निम्नलिखित राजाओं का पराभव किया---मरुत्त, दुष्यन्त, सुरथ, गाधि, मय, पुरूरवस एवं अनरण्य । तत्पश्चात रावण ने नारद की सलाह से यमलोक पर आक्रमण किया, जिसमें इसने यम की सेवकों को परास्त किया । अनंतर इसने वरुणालय में नागों का राजा वासुकि को परास्त किया, अक्षनगर में अपने बहनोई बिद्युज्जिह्ण का वध किया, एवं वरुणसेना को परास्त कर वह वापस आया
[वा. रा. उ. १८-२३] । अपनी विजययात्रा के उपलक्ष्य में रावण जब लंका में अनुपस्थित था, तब मधु नामक दैत्य ने इसकी बहन कुंभीनसी का हरण किया । यह सुन कर, रावण ने अपने सैन्य के साथ, मधुपुर पर आक्रमण किया । किन्तु अपनी बहन के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने मधु दैत्य को अभय दिया
[वा. रा. उ. २५.४६] । मधुदैत्य के यहाँ से यह कैलासपर्वत की ओर गया, जहाँ इसने अपने भाई कुबेर की स्नुषा रंभा पर अत्त्याचार करना चाहा । रंभा ने इसे खूब रामझाया कि, वह इसकी पुत्रवधू, अर्थात कुबेर पुत्र नलकुबर की पत्नी है । किंतु इसने उत्तर दिया, ‘अप्सराओं को कोई पति होता ही नहीं’ (पतिरप्सरसां नास्ति), एवं इसने रंभा के साथ बलात्कार किया । पश्चात यह वार्ता सुन कर नलकूबर ने इसे शाप दिया, ‘न चाहनेवाली किसी स्त्री की इच्छा करने से तुम्हारे मस्तक के सात टुकडे हो जाएँगे
[वा. रा. उ. २६.५५] । तदोपरांत रावण ने कैलास पर्वत पार कर इंद्रलोक पर आक्रमण किया, जहाँ हुए युद्ध में इसके पितामह सुमालि का वध हुआ । पश्चात् इसके पुत्र मेघनाद ने इंद्र को परास्त किया, एवं उसे लंका में ले आया, जिस कारण उसे इंद्रजित् नाम प्राप्त हुआ
[वा. रा. उ. ३०] ।
रावण (दशग्रीव) n. इसकी विजययात्राओं के साथ इसके कई पराजयों का निर्देश भी वाल्मीकिरामायण में प्राप्त है । एक बार यह माहिष्मती नगरी के समीप नर्मदा नदी में स्नान कर शिवपूजा करने के लिए गया । वहाँ माहिष्मती का हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन अपनी पत्नियों के साथ आया था । उसने अपनी सहस्त्र भुजाओं से नर्मदा की धारा रोक दी, जिस कारण नदी विपरीत दिशा से बहने लगी, एवं रावण के द्वारा चढाई गयी शिवपूजा के फूल ले गय़ी । इस पर रावण अर्जुन से द्वंद्वयुद्ध करने गया । किंतु इस युद्ध में कार्तवीर्य ने इसे परास्त कर माहिष्मती के कारावास में रख दिया । बाद् में पुलस्त्य ऋषि ने मध्यस्थता कर रावण की मुक्तता की, एवं कार्तवीर्य के साथ मित्रता प्रख्यापित की
[वा. रा. ३. ३१-३३] । पार्गिटर के अनुसार, कार्तवीर्य अर्जुन पुलस्त्य से काफी पूर्वकालीन था, जिससे प्रतीत होता है कि, इस कथा में निर्दिष्ट रावण किसी अन्य द्रविड राजा था
[पार्गि, २४२] । कार्तवीर्य के कारागृह से भुक्त होने के पश्वात, रावण फिर योग्य प्रतिद्वंद्वियों का शोध करणे लगा । पश्चात यह किष्किंधा में वालि के पास युद्ध करने के लिए गया, जब वालि ने इसे बगल में दबा कर क्रमश: पश्चिम, उत्तर एवं पूर्व सागरों में घुमाया । तब यह वालि के सामर्थ्य को देख कर अत्यधिक आश्चर्यचकित हुआ, एवं अग्नि के साक्षी में यह उसका मित्र बना
[वा. रा. उ. ३४] ।
रावण (दशग्रीव) n. यह पाताललोक में बलि राजा को भी जीतने गया था । किन्तु वहाँ भी इसे नीचे देखना पडा
[वा. रा. उ. प्रक्षिप्त १-५] ; बलि वैरोचन देखिये । एक बार नारद के कथनानुसार, यह श्वेतद्वीप में युद्ध करने गया । तब वहाँ की स्त्रियों ने इसे लीलयापूर्वक एक दूसरे की ओर फेंक दिया । इस कारण अत्यंत भयभीत हो कर, यह समुद्र के मध्य में जा गिरा
[वा. रा. उ. प्र. ३७] । यह सीता-स्वयंवर के लिए जनक राजा की मिथिला नगरी में गया था । जनक राजा के प्रण के अनुसार, इसने शिवधनुष्य उठाने की कोशिश की । किन्तु उसे सम्हाल न सकने के कारण वह इसकी छाती पर गिरा; तब राम ने इसकी मुक्तता की
[आ. रा. ७.३] । यह कथा वाल्मीकिरामायण में अप्राप्य है ।
रावण (दशग्रीव) n. एक बार राम के द्वारा विरूपित की गई रावण की बहन शूर्पणखा इसके पास आयी, एवं उसने खरवध का समाचार, एवं सीता के सौंदर्य की प्रशंसा इसे सुनाई । फिर इसने सीता का हरण करने का मन में निश्चय किया । इस कार्य में सहाय्यता प्राप्त करने के लिए यह मारीच नामक इच्छारूपधारी राक्षस के पास गया, एवं कांचनमृग का रूप धारण कर सीताहरण में सहाय्यक बनने की इसने उसे प्रार्थना की । मारीच ने इस प्रार्थना का इन्कार कर दिया, एवं स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘यदि तुम सीताहरण की जिद चलाओगे तो लंका का सत्यानाश होगा’ । किन्तु रावण ने मारीच की यह सलाह न मानी, एवं उसे इस कार्य में सहाय्यता करने के पुरस्कारस्वरूप, आधा राज्य प्रदान करने का आश्वासन दिया । रावण ने उसे यह भी कहा, ‘यदि यह प्रस्ताव तुम स्वीकार नहीं करोंगे, तो मैं तुम्हारा वध करूँगा’ । मारीच की संमति प्राप्त करने के बाद, रावण ने उसे अपने रथ में बिठा कर, जनस्थान की ओर प्रस्थान किया । वहाँ राम कांचनमृगरूपधारी मारीच के पीछे चले जाने पर, एवं लक्ष्मण उसकी खोज के लिए जाने पर, एक परिव्राजक के रूप में रावण ने सीता की पर्णकुटी में प्रवेश किया । उससे आतिथ्यसत्कार ग्रहण करने के पश्वात्, इसने अपना परिचय देते हुए कहा --- भ्राता वैश्रवणस्याऽहं सापत्नो वरवर्णिनि । रावणो नाम भद्रं ते दशग्रीव: प्रतापवान् ॥
[वा. रा. अर. ४८.२] । (मेरा नाम रावण है, एवं मैं कुबेर का सापत्न भाई हूँ । सुविख्यात पराक्रमी राजा दशाग्रीव तो मैं ही हूँ) । पश्चात् इसने सीता को अपने साथ ला कर लंका की महारानी बनने की प्रार्थना की । इसने उसके सामने राक्षस विवाह का प्रस्ताव रखते हुए कहा --- अलं ब्रीडेन वैदेहि धर्मलोपकृतेन ते । आर्षोऽयं देवि निष्पन्दो यस्त्वममिभविष्यति ॥
[वा. ग. अर. ५५.३४-३५] । (अपने पति का त्याग करने के कारण, धर्मविरुद्ध आचरण करने का भय तुम मन में नही रखना, क्यों कि, जिस विवाह का मैं प्रस्ताव रखता हूँ. वह वेदप्रतिपादित ही है) । रावण के इस प्रस्ताव का सीता के द्वारा अस्वीकार किये जाने पर, इसने अपना प्रचंड राक्षस-रुप धारण किया, एवं सीता को जबरदस्ती से रथ में विठा कर यह लंका की ओर चला गया । मार्ग में बाधा डालनेवाले जटायु के पंख तोड कर इसने उसका वध किया । पश्वात इसने सीता को लंका में स्थित अशोकवन में रख दिया
[वा. रा. अर. ४३-५४] ;
[पद्म, उ. २४२] ;
[भा. ९.१०.३०] ;
[म. व. २६३] । श्री. चिं. वि. वैद्य के अनुसार, वाल्मीकि रामायणके सीताहरण के वृत्तांत में प्राप्त कांचनमृग का आख्यान बाद में रामायण में रखा गया है
[वैद्य, दि रिडल आँफ दि रामायण पृ. १४४] ।
रावण (दशग्रीव) n. हनुमत् ने अशोकवन में प्रवेश पा कर सीता की भेंट ले ली । उसी रात्री के अन्त में रावण अपनी पत्नियों के साथ सीता का दर्शन करने आया, एवं इसने दीनतापूर्वक सीता से प्रार्थना की, ‘पति के रूप में तुम मेरा स्वीकार करो’ । सीता के द्वारा इस प्रार्थना का इन्कार किये जाने पर, इसने कुद्ध हो कर कहा --- द्वाभ्यामूर्ध्व तु मासाभ्यां भर्तारं मामनिच्छतीम् । मम त्वां प्रातराशार्थे सूदाश्लेत्स्यन्ति खण्डश: ॥
[वा. रा. सुं. २२.९] (दो महिने में अगर तुम स्वेच्छा से मेरी पत्नी न वनोगी, तो रसोयें तुम्हारे शरीर के टुकडे कर, मरे प्रात:काल के भोजन के लिए पकायेंगे) । इतना कहा रावण ने पहारा देनेवाली राक्षसियों को आदेश दिया कि, वे सीता को इसके वश में लाने का प्रयन्त करती रहे । किन्तु सीता को वश में लाने के उनके हर प्रयत्न असफल रहे, एवं सीता अपने वचनों पर द्दढ रही
[वा. रा. यु. ३१-३२] ;
[म. व. २८१] ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण के छोटे भाई विभीषण ने, धर्म एवं नीति का अनुसरण कर, सीता को राम के पास लौटाने के लिए इससे पुन: अनुरोध किया, एवं ऐसे न करने पर इसका एवं इसके लंका के राज्य का नाश होने की आशंका भी व्यक्त्त की । इसने विभीषण की एक न सुनी, एवं कहा--- घोरा: स्त्रार्थप्रयुक्त्तासु ज्ञातयो नो भयावहा:
[वा. रा. यु. १६.७] । (अप्रामाणिक, संशयात्मा एवं स्वयं की जबाबदारी टालनेवाले स्वजातीय लोग ही राज्य के सबसे बडे शत्रु होते है ।) आगे चल कर विभीषण को राक्षसकुल का कलंक (कुलपांसन) बता कर इसने कहा, ‘वीर पुरुष के सबसे बडे शत्रु उसके भाई ही होते है, जैसे कि रानहाथी का सबसे बडा शत्रु व्याध के पक्ष में मिलनेवाला उसका भाई ही होता है’ । इस कठोर निर्भर्त्सना से घबरा कर विभीषण ने चार राक्षसों के साथ लंका छोड दी, एवं वह राम के पक्ष में जा मिला । रावण के मातामह माल्यवत ने भी इसे बहुत समझाया । किन्तु उसके उपदेशों का इसके उपर कुछ प्रभाव न पडा
[वा. रा. यु. ३५] रावण (दशग्रीव) n. राम से युद्ध शुरू होने के पूर्व रावण ने शुक को रामसेना की जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था, एवं सुग्रीव के पास संदेश भी भेजा था कि, वह युद्ध में राम की सहाय्यता न करे
[वा. रा. यु. २०] । किन्तु उसका कुछ भी परिणाम न हुआ, एवं शान्ति के सारे प्रयत्न अयशस्वी हो कर इसका के साथ युद्ध शुरु हुआ ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण की सेना बहुत बडी थी, जिसके छ: सेनापति प्रमुख थे---महोदर, प्रहस्त, मारीच, शुक, सारण एवं धूम्राक्ष
[वा. रा. उ.अ १४.१] । युद्ध के प्रारंभ में इसने प्रहस्त, महापार्श्व, महोदर एवं अपने पुत्र इंद्रजित् को लंका के चारों द्वार के संरक्षण के लिए नियुक्त किया था । लंका के मध्यभाग के संरक्षण का भार विरुपाक्ष पर सौंपा गया था, एवं यह स्वयं शुक्र, सारण एवं अन्य सेना के साथ उत्तरद्वार पर खडा हुआ था
[वा. रा. यु. ३६] । युद्ध के प्रारंभ में, राम एवं लक्ष्मण को नागपाश में बँधा जाने का प्रसंग इसने सीता त्रिजटा से विदित कराया, एवं सीता को वश में लाने का आखिरी प्रयत्न किया । किन्तु उस प्रयत्न में यह असफल रहा । बाद में राम के साथ किये गये युद्ध में एक एक कर के प्रहस्त, धुम्राक्ष, वज्रदंट्र, अकंपन आदि इसके सारे सेनापति, एवं इसका भाई कुंभकर्ण एवं पुत्र इंद्रजित् मारे गयें । तत्पश्चात क्रोध में आकर यह सीता के वध के लिए उद्यत हुआ । किन्तु सुपार्श्व नामक इसके अमात्य ने स्त्रीवह से इसे रोक दिया
[वा. रा. यु. ९२.५८] ।
रावण (दशग्रीव) n. राम एवं रावण का युद्ध कुल दो बार हुआ था । इसमें से पहले युद्ध में विभीषण ने इसके रथ के घोडों का वध किया था । तत्पश्चात् इसने रथ से उतर कर, शक्ति नामक एक बरछी विभीषण की ओर फेंक दी, किन्तु लक्ष्मण ने उस शक्ति को छिन्नभिन्न कर फेंक दिया । पश्चात् मय के द्वारा दी गयी ‘अमोघा’ शक्ति लक्ष्मण पर छोड कर इसने उसे मूर्च्छित किया । तत्पश्वात् राम ने लक्ष्मण को हनुमान आदि वानरों की रक्षा में छोड कर, रावण पर ऐसा हमला किया कि, यह रणभूमि छोड कर भाग गया
[वा. रा. यु. ९९-१००] । इंद्रजित के वध के पश्चात् यह ‘जयप्रापक’ नामक मंत्र का जाप करने बैठा । इस वार्ता को सुन कर, विभीषण ने राम से किसी तरह भी इस जाप में बाधा डालने की सूचना दी, क्यों कि, इस जाप का पूरा होते ही यह शिव की प्रसाद से अजेय होने की संभावना थी । विभीषण की सूचना के अनुसार, अंगद मंदोदरी के केशों को खींच कर रावण के पास ले आया, जिस कारण क्रुद्ध हो कर रावण ने अपना जाप यज्ञ अधुरा ही छोड दिया, एवं यह युद्धभूमि में आ डटा
[वा. रा. यु. ८२ प. उ. पाठ] ।
रावण (दशग्रीव) n. इसके उपरान्त राम-रावण का विकराल युद्ध हुआ । इस युद्ध के समय इन्द्र ने अपना रथ, एवं मातलि नामक सारथी राम के सहाय्यार्थ भेजा । अगस्त्य ने भी राम को आदित्य नामक स्तोत्र प्रदान किया । राम-रावण का यह युद्ध सात दिनों तक चलता रहा । इस युद्ध में रावण एक बार मूर्च्छित हुआ, एवं अपने सारथि के द्वारा युद्धभूमि से दूर लाया गया
[वा. रा. यु. १०२-१०३] । होश में आते ही रावण पुन: एक बार युद्धभूमि में आ उतरा । अंत में अगस्त्य के द्वारा दिये गये ब्रह्मास्त्र इसकी छाती पर मार कर, राम ने इसका वध किया ।
[वा. रा. यु. १०८] ;
[म. स. परि. १. क्र. २१ पंक्ति. ५३६] ;
[व. २९१.२९] ;
[द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ४४७] । राम-रावण के इस अंतीम युद्ध में रावण के सिर पुन: पुन: उत्पन्न होते थे, यहाँ तक कि, राम ने रावण के एकसौ सिर काट दिये
[वा. रा. यु. १०७.५७] ।
रावण (दशग्रीव) n. मंदोदरी के अतिरिक्त रावण के धान्य-मालिनी नामक अन्य एक पत्नी का निर्देश प्राप्त है, जो अतिकाय की माता थी
[वा. रा. सुं. २२.३९] ;
[वा. रा. यु. ७१.३०] । इन दो पत्नियों के अतिरिक्त रावण को हजार पत्नियाँ थी, जिनमें देव, गंधर्व, नाग आदि स्त्रियों का समावेश था
[वा. रा. अयो. १२३.१४] ;
[वा. रा. सुं. १०-११, १८,२२] ;
[वा. रा. यु. ११०] ;
[वा. रा. उ. २२] । रावण के पुत्रों में इंद्रजित सर्वधिक प्रसिद्ध है । उसके अतिरिक्त इसे निम्नलिखित अन्य पुत्र भी थे :-अक्ष,
[वा. रा. सुं. ४७] ; अतिकाय
[वा. रा. यु. ७१.३०] ; त्रिशीर्ष
[वा. रा. यु. ७०] ; नरान्तक
[वा. रा. यु. ६९] ; देवान्तक
[वा. रा. यु. ७०] । रावण को कुंभकर्ण एवं निभीषण नामक दो भाई. एवं शूर्पणखा नामक बहन थी । उनके अतिरिक्त मत्त एवं युद्धोंमत्त नामक इसके अन्य दो भाईयों का, एवं कुंभिनसी नामक एक बहन का भी निर्देश प्राप्त है
[वा. रा. यु. ७१.२] ।
रावण (दशग्रीव) n. राम जैसे परमवीर राजा को युद्ध में ललकारने की हिम्मत करनेवाला रावण, स्वयं एक परमऐश्वर्ययुक्त, शोभासंपन्न एवं पराक्रमी राजा था । रावण स्वयं एक साधारण सम्राट न था. किन्तु समस्त पृथ्वी को जीतनेवाला एक लोकव्यापी आतंक भी था । स्वार्णासन पर बैठ कर अग्नि जैसे तेजस्वी दिखनेवाले रावण को देख कर, स्वयं राम भी प्रभावित हो चुका था
[वा. रा. अर.३२.५] ;
[वा. रा. यु. ५९.२६] । इस उग्र तथा पाप करनेवाले राजा को देख कर, पृथ्वी के चर प्राणी ही क्या, वायु, वृक्ष, आदि अचर वस्तु भी कंपित होती थी
[वा. रा. अर. ४६. ६-८] । यह कुशल राजनीतिज्ञ एवं दिग्बिजयी सम्राट था । इसकी प्रजा ऐश्वर्यसंपन्न एवं धनाधान्य से पूरित थी
[वा. रा. सुं. ४.२१-२७, ९.२-१७] । इसके राज्य में अनेकानेक वस्तुओं निर्माण करने की कला चरम सीमा पर थी
[वा. रा. सुं. ६] । यह अपने मंत्रिगणों में अत्यधिक आदरणीय था, एवं यह स्वयं मंत्रियों के विचारविमर्श पूछ कर ही राज्य का कारोबार चलाता था
[वा. र. अर. ३८.२३-३३] । परमपराक्रमी होने के साथ, उच्चश्रेणी का रसिक एवं संगीतज्ञ भी था
[वा. रा. सुं. ४४. ३२] । अपने परिवार के लोगों के प्रति यह अत्यन्त स्नेहशील था । अपनी बहन शूर्पणखा विधवा होने पर, यह बडा दुःखी हुआ था
[वा. रा. उ. २४] ।
रावण (दशग्रीव) n. रावण वेदों का महापंडित, एवं समस्त शास्त्रों का माना हुआ विद्वान् था । वाल्मीकि रामायण में इसे ‘वेदविद्यानिष्यात’ (वेदविद्याव्रतस्नत:) एवं ‘आचारसंपन्न’ (स्वकर्मनिरत:) कहा गया है
[वा. रा. य. ९२.६०] । शाखाओं के कम के अनुसार वेदों का विभाजन करने का काम इसके द्वारा किया गया था । इसके नाम पर ऋग्वेद का एक भाष्य एवं वेदों का एक पदपाठ भी प्राप्त है । बलराम रामायण के अनुसार, इसने वैदिक मंत्रों का संपादन कर, वेदों की एक नयी शाखा का निर्माण भी किया था । रावण के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ भी प्राप्त है---अर्कप्रकाश, कुमारतंत्र, इंद्रजाल, प्राकृत कामधेनु प्राकृतलंकेश्वर, ऋग्वेदभाष्य. रावणभेट आदि । कई अभ्यासकों के अनुसार, उपर्युक्त ग्रंथ लिखनेवाला रावण, लंकाधिपति रावण से कोई अलग व्यक्ति था ।
रावण (दशग्रीव) n. ‘मानस’ में चित्रित किया गया रावण इंद्रियलोलुप, कुटिक राजनीतिज्ञ, कोधी एवं परम शक्तिशाली खलपुरुष है । यह एक वस्तुवादी, अधार्मिक. अभिमानी एवं हठी व्यक्ति है, जो मारीच. विभीषण, माल्यवत्. प्रहस्त, कुंभकर्ण एवं मंदोदरी के द्वारा किये गये सदुपदेश पर किंचित भी ध्यान नहीं देता है । ‘मानस’ में रावण के अनाचारों, अत्याचारो एवं निरंकुशता की ओर विशेष संकेत किया गया है, एवं इसे नीच, खल, अधम आदि विशेषणों से भूषित किया गया हैं
[मानस. ३.२३.८, ३.२८.८] । इससे प्रतीत होता है कि, राम के चरित्रचित्रण में तुलसी का मन जितना रमा है, उतना उसके प्रतिपक्षी रावण के चित्रण में नही ।