मातृका n. देवी के सुविख्यात अवतारों में से एक । महाभारत में इनका स्वरुपवर्णन प्राप्त है, जिनमें इन्हे दीर्घनखी, दीर्घदन्त, दीर्घतुण्ड, निर्मासगात्री, कृष्णमेघनिभ, दीर्घकेश, लंबकर्ण, लंबपयोधर एवं पिंगाक्ष कहा गया है । ये जी चाहे रुप धारण करनेवाली (कामरुपधर), जी चाहे वहॉं भ्रमण करनेवाली (कामरुपचारी), एवं वायु के समान वेगवान् (वायुसमजव) थी । इनका निवासस्थान वृक्ष, चत्वर, गुफा, स्मशान, शैल एवं प्रस्त्रवण में रहता था
[म.श.४५.३०-४०] ।
मातृका n. मत्स्य में मातृकाओं के जन्म की कथा विस्तृत रुप में दी गयी है । हिरण्याक्ष राक्षस का पुत्र अंधक शिव का परमभक्त था । शिव ने उसे वर प्रदान किया था ‘रणभूमि में तुम्हारे लहू के हर एक बूँद से नया अंधकासुर उत्पन्न होगा, जिसे कारण तुम युद्ध में अजेय होंगे । शिव के इस आशीर्वाद के कारण, सारी पृथ्वी अंधकासुरों से त्रस्त हुयी । फिर इन अंधकासुरों का लहू चुसने के लिए शिव ने ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि सात मातृकाओं का निर्माण किया । इन्होने अंधकासुर का सारा लहू चूस लिया, एवं तत्पश्चात् शिव ने अंधकासुर का वध किया । अंधकासुर का वध होने के पश्चात्, शिव के द्वारा उत्पन्न सात मातृका पृथ्वी पर के समस्त प्राणिजात का लहू चूसने लगी । फिर उनका नियंत्रण करने के लिए, शिव ने नृसिंह का निर्माण किया, जिसने अपने जिह्रादि अवयवों से घंटाकर्णो, त्रैलोक्यमोहिनी, आदि बैतीस मातृकाओं का निर्माण किया । अपना नियुक्त कार्य समाप्त करने पर, शिव ने उन पर लोकसंरक्षण का काम सौंपा, एवं इस तरह रुद्र के साथ मातृका पृथ्वी पर चिरकाल तक रहने लगी
[मत्स्य.१७९] ।
मातृका n. महाभारत एवं पुराणों में मातृकाओं की कई नामावलियॉं प्राप्त है, जिनमें इनकी संख्या सात, अठारह एवं बैतीस बतायी है । महाभारत के शल्यपर्व में कार्तिकेय (स्कंद) की अनुचरी मातृकाओं की नामावली प्राप्त है, जहॉं इनकी संख्या बैतीस बतायी गयी है, एवं उसमें प्रभावती, विशालाक्षी आदि नाम के निर्देश प्राप्त है । पुराणों एवं महाभारत में प्राप्त मातृकाओं की नामावलियॉं इस प्रकार हैः--- (१) सप्तमातृका---ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, नारसिंही, वैष्णवी, ऐन्द्री
[मार्क.८८.११-२०,३८] । (२) अष्टमातृका---ब्राह्मी, माहेश्वरी, चंडी, वारही, वैष्णवी, कौमारी, चामुण्डा एवं चर्चिका । (३) शिशुमातृका---काकी, हलिमा, रुद्रा, बृहली, आर्या, पलाला एवं मित्रा
[म.व.२१७.९] । (४) अष्टादश मातृका---विनता, पूतना, कष्टा,पिशाची, अदिति (रेवती), मुखमण्डिका, दिति सुरभि, शकुनि, सरमा, कद्रू, विलीनगर्भा, करंजनीलया, धात्री, लोहितायनि, आर्या
[म.आर.२१९.२६-४१] । महाभारत के इस नामावली में बाकी दो नाम अप्राप्य है । (५) चौदह मातृका---गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, धृति, पुष्टि एवं ‘कुलदेवता’, जो हरेक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है (गोभिल.स्मृ.१.११-१२) ।
मातृका n. वैदिक ग्रंथों में एवं गृह्यसूत्रों में मातृकाओं का निर्देश अप्राप्य है । ऋग्वेद में सप्तमाताओं का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहॉं सात नदियों एवं सात स्वरों को माता कहा गया है
[ऋ.९.१०२.४] । ईसा की पहली शताब्दी से मातृकापूजन का स्पष्ट निर्देश प्राप्त होता है । वराहमिहिर के बृहत्संहिता मे, एवं शूद्रक के मृच्छकटिक में मातृकापूजन का स्पष्ट निर्देश प्राप्त है
[बृहत्सं ५८.५६] । स्कंदगुप्त के बिहार स्तंभलेख में मातृकापूजन का निर्देश प्राप्त है
[गुप्त शिलालेख. पृ.४७,४९] । चालुक्य एवं कदंब राजवंश मातृकाओं के उपासक थे
[इन्दि, अॅन्टि.६.७३, ६.२५] । मालवा के विश्वकर्मन राजा के अमात्य मयूराक्ष ने ४२३ ई.में मातृकाओं का एक मंदिर बनवाया था
[गुप्त शिलालेख.पृ.७४] । पश्चिमी एशिया के ‘द्रो’ नामक प्राचीन संस्कृति में, तथा मोहेंजोदडों एवं हडप्पा में स्थित सिन्धु संस्कृति में मातृकाओं की पूजा की जाती थी । उस संस्कृति के जो सिक्के प्रप्त हुए हैं, वहॉं मातृका के सामने नर अथवा पशुबलि के दृश्य चित्रित किये गये है । इससे प्रतीत होता है कि, मातृकाओं की उपासना वैदिकेतर संस्कृति में प्राचीनतम कल से अस्तित्व में थी । आगे चल कर, वैदिक संस्कृति के उपासकों ने इस देवता को अपनाया, एव उसे दुर्गा अथवा देवीपूजा में सम्मीलित कराया ।
मातृका n. मातृका के प्रतिमाओं की पूजा सारे भारतभर की जाती है, जहॉं इनका रुप अर्धनग्न, एवं शिरोभूषण, कण्ठहार, तथा मेखलायुक्त; दिखाई देता है । जनश्रुति के अनुसार, मातृकाओं की सर्वाधिक पीडा दो वर्षो तक के बालकों को होती है । इसी कारण, बालक का जन्म होते ही पहले दस दिन मातृकाओं की पूजा की जाती है ।
मातृका II. n. अर्यमा नामक आदित्य की पत्नी
[भा.६.६.४२] ।