नरक n. एक दानव । यह कश्यप तथा दनु का पुत्र था
[म.आ.५९.२८] । इंद्र ने इसे परास्त किया था ।
नरक II. n. तेरह सैंहिकेयों में से एक । यह विप्रचित दानव तथा दितिकन्या सिंहिका का पुत्र था ।
नरक III. n. एक असुर, एवं प्राग्ज्योतिषपुर का राजा । पृथ्वी का पुत्र (भूमिपुत्र) होने के कारण, इसे भौम नाम भी प्राप्त था । इसकी माता भूदेवी ने विष्णु को प्रसन्न कर, इसके लिये ‘वैष्णवास्त्र’ प्राप्त किया था । उसी अस्त्र के कारण, नरकासुर बलाढय एवं अवध्य बना था । अपनी मृत्यु के पश्चात्, यही अस्त्र इसने अपने पुत्र भगदत्त को प्रदान किया
[म.द्रो.२८] । नरक का राज्य नील समुद्र के किनारें था । इसकी राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर अथवा मूर्तिलिंग नगर में थी । इसके पॉंच राज्यपाल थेः--हयग्रीव, निशुंभ, पंचजन, विरुपाक्ष एवं मुर
[म.स.परि.१क्र.२१. पंक्ति. १००६] । पृथ्वी भर की सुंदर स्त्रियॉं, उत्तम रत्न एवं विविध वस्त्र आदि का हरण कर, नरक अपने नगर में रख देता था । किंतु उन में से किसी भी चीज का यह स्वयं उपभोग नहीं लेता था । गंधर्व, देवता, एवं मनुष्यो की सोलह हजार एक सौ कन्याएँ, एवं अप्सराओं के समुदाय में से सात अप्सराओं का नरक ने हरण किया था । त्वष्टा की चौदह वर्ष की कन्या कशेरु का, उसे मुर्च्छित कर नरक ने अपहरण किया था । उस समय इसने हाथी का मायावी रुप धारण किया था
[म.स.परि.१क्र.२१पंक्ति.९३८-९४०] । इंद्र का ऐरावत हाथी एवं उचैःश्रवा नामक अश्व का भी उसने हरण किया था । देवमाता अदिति के कुंडलों का भी नरक ने अपहरण किया था । नरक से पृथ्वी से अपहरण किया सारा धन, एवं स्त्रियाएँ अलका नगरी के पास मणिपर्वत पर ‘औद्रका’ नामक स्थान में रखी हुई थी । मुर के दस पुत्र एवं अन्य प्रधान राक्षस, उस अंतःपुर की रक्षा करते थे । इसके राज्य की सीमा पर, मुर दैत्य के बनाये हुएँ छः हजार पाश लगाएँ गये थे । उन पाशों के किनारों के भागों में छुरे लगाएँ हुए थे । इस के बाद बडे पर्वतों के चट्टानों के ढेर से एक बाड लगाई गयी थी । इस ढेर का रक्षक निशुंभ था । औदका के अंतर्गत लोहित गंगा नदी के बीच विरुपाक्ष एवं पंचजन ये राक्षस उस नगरी के रक्षक थे ।
[म.स.१.२१.९५३] । नरक, का वर्तन हमेशा ही देव तथा ऋषिओं के खिलाफ ही रहता था । स्वयं कृष्ण का भी इसने अपमान किया था । एक बार सारे यादव दाशार्ही सभा में बैठे हुएँ थे । उस समय समस्त देवमंडल को साथ ले कर इंद्र वहॉं आया । उस ने कृष्ण से पापी नरकासुर के वध करने की प्रार्थना की । श्रीकृष्ण ने भी नरक का वध करने की प्रतिज्ञा की । पश्चात् सत्यभामा एवं इंद्र को साथ ले कर तथा गरुड पर आरुढ हो कर, श्रीकृष्न प्रग्ज्योतिषापुर राज्य के सीमा पर पहुँच गया । उस राज्य की सीमा पर मुर दैत्य की चतुरंगसेना खडी थी । उस सेना के पीछे मुर दैत्य के बनाये हुएँ छः हजार तीक्ष्ण पाश थे । श्रीकृष्ण ने उन पाशों को काट कर, एवं मुर को मार कर राज्य की सीमा में प्रवेश किया । पश्चात् पर्वतों के चट्टानों के घेरे के रक्षक, निशुंभ पर श्रीकृष्ण ने हमला किया । इस युद्ध में निशुंभ, हयग्रीव आदि आठ लाख दानवों का वध कर श्रीकृष्ण आगे बढा । पश्चात् ओदका के अंतर्गत विरुपाक्ष एवं पंचजन नाम से प्रसिद्ध पॉंच भयंकर राक्षसों से श्रीकृष्ण का युद्ध हुआ । उनको मार कर श्रीकृष्ण ने प्राग्ज्योतिपपुर नगर में प्रवेश किया । प्राग्ज्योतिषपूर नगरी में, श्रीकृष्ण को दैत्यों के साथ बिकट युद्ध करना पडा । उस युद्ध में लक्षावधि दानवों को मार कर, श्रीकृष्ण पाताल गुफा में गया । वहॉं नरकासुर रहता था । वहॉं कुछ देर युद्ध करने के बाद, श्रीकृष्ण ने चक्र ने नरकासुर का मस्तक काट दिया
[म.स.परि.१.क्र. २१ पंक्ति. ९९५-११५५] । इसका वध करने के पहले, श्रीकृष्ण ने इसे ब्रह्मद्रोही, लोककंटक एवं नराधम कह कर पुकारा
[म.स.परि.१क्र. २१ पंक्ति. १०३५] । नरकासुर एवं श्रीकृष्ण कें युद्ध की कथा हरिवंश में कुछ अलग ढंग से दी गयी हैं । पंचजन दैत्य का वध करने के पश्चात्, श्रीकृष्ण ने प्राग्ज्योतिषपुर नगरी पर हमला किया । नरकासुर से युद्ध शुरु करने के पहले श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख फूँका । उस शंख की आवाज सुन कर नरक अत्यंत क्रोधित हुआ, एवं अपने रथ में बैठ कर युद्ध के लिये बाहर चला आया । नरक का रथ अत्यंत विस्तृत, मौल्यवान एवं अजस्त्र था । इसके रथ को हजार घोडे जोते गये थे । इस प्रकार सुसज्ज हो कर, नरकासुर युद्धभूमि में आया, एवं श्रीकृष्ण से उसका तुमुल युद्ध हुआ । आखिर श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसकी सिर काट लिया । फिर नरकासुर की माता ने, श्रीकृष्ण के पास आ कर, अदिति के कुंडल एवं प्राग्ज्योतिषपुर का राज्य उसे अर्पण कर दिया
[ह.वं.२.६३] ;
[भा.१०.५९] । पश्चात् श्रीकृष्ण ने नरकासुर के महल में प्रवेश कर बंदिगृह में रखी गयी सोलह हजार एक सौ स्त्रियों की मुक्तता की
[पद्म.उ.२८८] । उन स्त्रियों को एवं काफी संपत्ति ले कर श्रीकृष्ण द्वारका लौट आया
[भा.१०.५९] । नरकासुर वध की कथा पद्मपुराण में भी दी गयी है । किंतु उस में ‘नरचतुर्दशी माहात्म्य’ को अधिक महत्त्व दिया गया है । नरकासुर ने तप तथा अध्ययन कर, तपःसिद्धि प्राप्त की थी । फिर इन्द्र को इससे भीति उत्पन्न हुई, एवं उसने नरकासुर का वध करने की प्रार्थना कृष्ण से की । पश्चात् श्रीकृष्ण ने इस तपःसिद्ध नरकासुर को हस्ततल से प्रहार कर के इसका वध किया । यह मरणोन्मुख हो कर भूमि पर गिरा तब इसने कृष्ण की स्तुति की । कृष्ण ने इसे वर मॉंगने के लिये कहा । इसने वर मॉंगा ‘मेरे मृत्युदिन के तिथि को, जो सूर्यादय के पहले मंगलस्नान करेंगे, उन्हें नरक की पीडा न हो’। यह कार्तिक वद्य चतुर्दशी को मृत हुआ । इसलिये उस दिन को ‘नरक चतुर्दशी’ कहने की प्रथात शुरु हुई । उस दिन किया प्रातःस्नान पुण्यप्रद मानने की जनरीति प्रचलित हुई
[पद्म. उ.७६.६७] । लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थाटन के लिये गये थे । अलकनंदा नदी के पास जाने पर, शुभ्र पर्वत के समान प्रतीत होनेवाला शिखर लोमश ने उन्हें दिखाया । वे नरकासुर की अस्थियॉं थी
[म.व.परि.१.क्र.१६. पंक्ति२८-३१] । वरुण सभा में नरकासुर को सम्माननीय स्थान प्राप्त हुआ था
[म.स.९.१२] । नरकासुर के वध के बाद उसकी माता के कथनानुसार, कृष्ण ने इसने पुत्र भगदत्त को अभयदान दिया । उस पर वरदहस्त रखा तथा उसे राज्य दिया
[भा.१०.५९] । नरकासुर की कथा कालिकापुराण में निम्नलिखित ढंग से दी गयी है । त्रेतायुग के उत्तारार्ध में यह वराहरुपी विष्णु को भूमि के द्वारा उत्पन्न हुआ । विदेह देश के राजा जनक ने सोलह वर्षो तक इसका पालन किया । प्राग्ज्योतिषपुर के किरातों से युद्ध कर के, इसने उनका नाश किया । बाद में राज्यश्री के कारण मदोन्मत्त होने पर द्वापार युग में कृष्ण ने इसका नाश किया
[कालि.३९-४०]