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ध्रुव

   { dhruva }
Script: Devanagari

ध्रुव

Puranic Encyclopaedia  | English  English |   | 
DHRUVA   I.
1) Birth and childhood.
Manu Svāyambhuva the son of Brahmā, had two sons named Priyavrata and Uttānapāda. They were mighty heroes and of righteous character. Uttānapāda had two wives, Suruci and Sunīti. Suruci gave birth to Uttama and Sunīti to Dhruva. Uttānapāda showed more favour towards Uttama and Suruci. But he looked upon Dhruva and his mother with disfavour. Once Uttama sat on the lap of his father when the latter was sitting on the throne. Seeing this, Dhruva wanted to sit along with his brother. But fearing the displeasure of Suruci, who was also there, the King did not take Dhruva on to his lap. Seeing the endeavour of Dhruva, Suruci said to him, “Child, if you wish to sit on the lap of your father, you ought to have been born in my womb. You cherish high ambition which you do not deserve.” These words of Suruci were not palatable to Dhruva who ran to his mother and sat on her lap. When Sunīti knew what had happened she shed tears. After a few moments Dhruva stood up and made a vow. “I will get a position unattainable even for my father, by my own endeavour.” He then started for the forest. He attained self-renunciation even in childhood becoming a disciple of hermits and performing severe penance. Dhruva began penance in the forest of Madhuvana on the river Jamunā. Sunīti came and tried to take him to the palace. But he did not return. He intensified his penance more and more. At last Mahāviṣṇu appeared before him. Dhruva requested for a lofty, and eternal place which would become a prop of the world. Accordingly, Viṣṇu pointed out to Dhruva, a noble place, higher than the planets, stars Saptarṣis (Ursa Major) and the devas who travelled in aeroplanes. Mahāviṣṇu said that Dhruva would live in a lofty place as a star till the end of the Kalpa and his mother Sunīti would also remain as a star near Śiva as long as Dhruva lived [Viṣṇu Purāṇa, Aṁśa 1, Chapters 11 and 12] .
2) The previous birth of Dhruva.
Mahāviṣṇu appeared before Dhruva and revealed his previous birth. Dhruva was a Brahmin in his previous birth. He used to meditate on Viṣṇu with concentration of mind. In course of time he befriended a prince who was a youth, of beautiful and bright complexion, enjoying all the pleasures of the world. Attracted by the position and status of the prince, the Brahmin wanted to become a prince. Mahāviṣṇu granted his wish. Accordingly Dhruva took his next birth as the son of Uttānapāda. [Viṣṇu Purāṇa, Aṁśa 1, Chapter 12] .
3) The reign and end of Dhruva.
After receiving the boon from Mahāviṣṇu, Dhruva returned. All who were there embraced Dhruva. Years passed by. Uttānapāda left his kingdom to Dhruva and became a forest householder. Dhruva became King. The King Dhruva married Brāhmī, the daughter of Śiśumāra a Prajāpati. The queen gave birth to two sons Kalpa and Vatsara. Dhruva married Ilā the daughter of Vāyu (wind). She gave birth to a son named Utkala. Uttama remained unmarried. While he was hunting in the forest a Yakṣa (a demi-god) killed him. Suruci was caught in wild fire and died. Hearing about the death of Uttama, Dhruva took his weapons and reached the realm of the Yakṣas. He stood at their gate and challenged them for battle. One lac and thirty thousand Yakṣa warriors fought with Dhruva. Dhruva destroyed the entire army. The Yakṣas began illusive and magical arts. Dhruva overcame that also. At last Kubera himself appeared before Dhruva and blessed him. They got him into a plane and placed him in a place higher than all the planets. [Viṣṇu Purāṇa, Bhāgavata] .
4) The descendants of Dhruva.
Two sons named Śiṣṭi and Bhavya were born to Dhruva by his wife Śambhu. Succhāyā the wife of Śiṣṭi gave birth to five sinless sons named Ripu, Ripuñjaya, Vipra, Vṛkala and Vṛkatejas. Bṛhatī the wife of Ripu gave birth to Cākṣuṣa of extreme bright complexion. Manu was born to Cākṣuṣa by his wife Puṣkaraṇī the daughter of Vīraṇaprajāpati and included in the children of Varuṇa. Ten sons were born to the bright Manu by his wife Naḍvalā, daughter of Prajāpati Vairāja. These ten bright sons were Kuru, Pūru, Śatadyumna Tapasvī, Satyavān, Śuci, Agniṣṭomā, Atirātra, Sudyumna, and Abhimanyu. Āgneyī, the wife of Kuru gave birth to six children. They were Aṅga, Sumanas, Khyāti, Kratu, Aṅgiras and Śibi. A son named Vena was born to Aṅga by his wife Sunīthā. Hermits churned the right hand of Vena to obtain children. As a result of churning Vaineya was born from the right hand of Vena. That King is the famous Pṛthu. This Pṛthu milked the earth for the prosperity of his subjects. [Viṣṇu Purāṇa, Aṁśa 1, Chapter 13] .
5) The place of Dhruva.
The origin of the river Gaṅgā was through the hole at the top of the shell of the mundane egg. It flowed down and fell on the highest part of heaven. That place is called Viṣṇupāda. Sitting in this Viṣṇupāda, Dhruva does penance to Viṣṇu. So this place got the name Dhruvamaṇḍala. [Devī Bhāgavata, Skandha 8] .
DHRUVA II   He was the son of Nahuṣa and the brother of Yayāti. [M.B. Ādi Parva, Chapter 75, Stanza 30]
DHRUVA III   A king. He sits in the council of Yama and serves him. [M.B. Sabhā Parva, Chapter 8, Stanza 10]
DHRUVA IV   A warrior who fought on the side of the Kauravas against the Pāṇḍavas. He was killed by Bhīmasena [M.B. Droṇa Parva, Chapter 155, Stanza 27]
DHRUVA V   A king who supported Yudhiṣṭhira. [M.B. Droṇa Parva, Chapter 158, Verse 39] .
DHRUVA VI   A son born to Dharmadeva by his wife Dhūmrā. He was one of the aṣṭa Vasus (eight Vasus) [M.B. Ādi Parva, Chapter 66, Stanza 19] .

ध्रुव

हिन्दी (hindi) WN | Hindi  Hindi |   | 
 noun  राजा उत्तानपाद के एक पुत्र जो सुनीति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे   Ex. पाँच वर्ष की उम्र में ही ध्रुव भगवान की तपस्या करने वन में चले गए ।
ONTOLOGY:
पौराणिक जीव (Mythological Character)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
Wordnet:
kokध्रुव
marध्रुव
oriଧ୍ରୁବ
panਧਰੁਵ
urdدھرو
 noun  पृथ्वी के दक्षिण और उत्तर के सिरे में से प्रत्येक और इन दोनों के मध्य ही अक्ष रेखा की स्थिति मानी जाती है   Ex. एशिया उत्तरी ध्रुव से लेकर भूमध्य रेखा तक फैला हुआ है ।
ONTOLOGY:
भौतिक स्थान (Physical Place)स्थान (Place)निर्जीव (Inanimate)संज्ञा (Noun)
Wordnet:
sanध्रुवम्
   See : ध्रुव तारा

ध्रुव

ध्रुव n.  (स्वा.उत्तान.) उत्तानपाद राजा एवं सुनीति का पुत्र, एवं एक प्रातःस्मरणीय राजा [म.अनु.१५०] । अपने दृढनिश्चय एवं लगन के कारण, पॉंच वर्ष की छोटी उम्र में, इसने ऋषियों को भी अप्राप्य ‘श्रीविष्णुदर्शन’ एवं नक्षत्रमंडल में ध्रुवपद प्राप्त किया । नक्षत्रमंडल में सप्तर्षिओं के पास स्थित ‘ध्रुव तारा’ यही है [भा.४.१२.४२-४३] । उत्तानपाद राजा की सुरुचि एवं सुनीति नामक दो रानियॉं थी । उनमें से सुरुचि उसकी प्रिय रानी थीं, एवं सुनीति (सुनृता) से वह नफरत करता था । राजा के अप्रिय पत्नी का पुत्र होने के कारण, बालक ध्रुव को भी प्रतिदिन अपमान एवं मानहानि सहन करनी पडती थी । एक बार उत्तानपाद राजा की गोद में, सुरुचि का पुत्र उत्तम खेल रहा था । यह देख, ध्रुव को भी पिता की गोद में खेलने की इच्छा हुई । अतः यह अपने पिता के गोद पर चढने लगा । किंतु राजा ने ध्रुव के तरफ देखा तक नही । ध्रुव की सौतेली माता सुरुचि ने ध्रुव का हाथ पकड कर कहा ‘ईश्वर की आराधना कर के तुम मेरे उदर से पुनः जन्म लो । तभीं तुम राजा की गोद में खेल सकोंगे’। सौतेली माता का कठोर भाषण सुन कर, ध्रुव अत्यंत खिन्न हुआ । उस समय राजा भी चूपचाप बैठ गया । फिर ध्रुव रोते रोते अपनी माता के पास गया । सुनीति ने इसे गोद में उठा लिया । सौत का कठोर भाषण पुत्र के द्वार सुन कर, उसे अत्यंत दुख हुआ । अपने कमनसीब को दोष देते हुई, वह फूट फूट कर रोने लगी । पश्चात् ईश्वराराधना का निश्चय कर, ध्रुव ने अपने पिता के नगर का त्याग किया । यह बात नारद को ज्ञात हुई । ध्रुव का ईप्सित जान लेने पर, उसने अपना वरदहस्त ध्रुव के सिर पर रखा । ध्रुव का स्वाभिभानी स्वभाव तथा क्षात्रतेज देख कर, नारद आश्चर्यचकित हो गया । उसने ध्रुव से कहा “तुम अभी छोटे हो । इतनी छोटी उम्र में तुम इतने स्वाभिमानी हो, य बडी खुषी की बात है । किंतु मान-अपमान के झँझटों में पड कर, मन में असंतुष्टता का अग्नि सिलगाना ठीक नही है । क्यों कि, असंतोष का कारण मोह है, तथा मोह से दुःख ही दुःख पैदा होते है । भाग्य सें जो भी मिले, उस पर संतोष मानना चाहिये । ईश्वर के आराधना का तुम्हारा निश्चय बडा ही कठीन हैं । उसमें बडोबडों ने हार खाई है । अतः यह मार्ग त्याग कर, तुम घर लौट जाओ । नारद का भाषण सुन कर ध्रुव ने कहा, ‘मैंने न्याय निष्ठुर क्षत्रिय वंश में जन्म लिया है । मेरे स्वभाव में लाचारी नहीं है । सुरुचि के अपशब्दों से मेरा हृदय भग्न हो गया है । अतः आपके उपदेश का परिणाम मेरे उपर होना असंभव है । त्रिभुवन में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने की आकांक्षा मेरे मन में जाग उठी है । वह स्थान मुझे कैसे प्राप्त होंगा, यह आप मुझे बताइये । आप त्रैलोक्य में घूमते हैं । उस कारण मेरी समस्या का सुझाव, केवल आप ही कर सकते है।’ ध्रुव का यह भाषण सुन कर, नारद के अन्तःकरण में ध्रुव प्रति अनुकंपा उत्पन्न हुई । उसने कहा, ‘अपने माता की आज्ञानुसार तुम श्रीहरि की कृपा संपादन करो । उसके लिये यमुना के किनारे मधुवन में जा कर, तुम इन्द्रिय दमन करो’। इतना कह कर नारद ने ध्रुव से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ नामक द्वादशाक्षर गुप्तमंत्र प्रदान किया, एवं आशीर्वाद दे कर वह चला गया । स्कंद.तथा विष्णु पुराण में लिखा गया है कि, यह मंत्रोपदेश ध्रुव को सप्तर्षियों द्वारा प्राप्त हुआ । बाद में उत्तानपाद राजा को अपने कृतवर्म का पश्चात्ताप हुआ, एवं वह ध्रुव को वापस लाने के लिया घर से निकला । किंतु उसे नारद से कहा, ‘तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही महत्कार्य कर के वापस आनेवाला है । इसलिये उसे वापस बुलवाने की कोशिश, इस समय तुम मत करो।’ नारद के कथनानुसार, ध्रुव ने मथुरा के पास यमुना के तट पर मधुबन में तपस्या प्रारंभ की, एवं ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह द्वादशाक्षरी मंत्र का जाप प्रारंभ किया । तपस्या के समय ध्रुव की उम्र केवल पॉंच साल की थी । फलाहार, उदकपान, एवं वायुभक्षण क्रमशः कर के, एक पैर पर खडा हो कर, ध्रुव श्रीविष्णु की आराधना करने लगा । तपस्या के पहले दिन ध्रुव ने ‘अनशन’ किया । दूसरे दिन से यह विधिपूर्वक आराधना करने लगा । तपस्या के पहले महीने में, तीन दिन में एक बार यह कैथ एवं बेर के फल खा कर गुजारा करता था । दूसरे महीनें में, हर छठे दिन सूखे पत्ते एवं कुछ तिनखे खाने का क्रम इसने शुरु किया । तीसरे महीने में केवल पानी पर रहना इसने प्रारंभ किया । वह पानी भी यह हर नवे दिन पीता था । चौथे महीने में, इसने पानी पीना भी छोड दिया, एवं केवल वायु पी कर, यह रहने लगा । तपस्या के पॉंचवे महीने में, प्राणवायु भी इसके वश में आ गया, एवं वायु पीना भी ध्रुव ने बंद किया । एक पॉंव पर खडा हो कर, अहोरात्र यह श्रीविष्णु के ध्यान में मगन होने लगा । छः महिनों तक ऐसी कडी तपस्या करने के पश्चात्, तपस्या की सिद्धि ध्रुव को प्राप्त हुई । इसकी अंगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी, एवं इन्द्रादिकों के श्वासों का अवरोध होने लगा । फिर सारे देव श्रीविष्णु की शरण में गये । विष्णु ने ध्रुव को तपश्चर्या से परावृत्त करने का आश्वासन देवजनों को दिया । उस आश्वासन से सारे देव संतुष्ट हुएँ, एवं अपने अपने स्थान पर वापस लौटे । पश्चात् गरुड पर आरुढ हो कर, श्रीविष्णु मधुबन में ध्रुव के पास आये, एवं उन्होंने, सगुण स्वरुप में इसे दर्शन दिया । जिसके ध्यान में छः महिनों तक ध्रुव मग्न था, उसे साक्षात् देख कर वह अवाक् हो गया [भा.४.८-९] । श्रीविष्णु का गुणवर्णन करने की बहुत सारी कोशिश ध्रुव ने की । किंतु वह करने में इसे असमर्थता प्रतीत हुई । फिर श्रीविष्णु ने ध्रुव के कपोल वेदस्वरुपी शंख से स्पर्श किया । पश्चात् उस शंख के कारण प्राप्त हुएँ वेदमय वाणी से, ध्रुव ने विष्णु का स्तवन किया । इससे प्रसन्न हो कर, विष्णु ने इसे इच्छित वर मॉंगनें के लिये कहा । ध्रुव ने नक्षत्रमंडल में अचल स्थान प्राप्त करने का वर श्रीविष्णु से मॉंग लिया । विष्णु ने वह वर इसे दिया, एवं कहा, ‘उत्तानपाद राजा तुम्हें राजगद्दी पर बैठा कर वने में जावेगा । तुम छत्तिस हजार वर्षो तक राज्य करने के बाद, नक्षत्रमंडल में अचलस्थान प्राप्त करोगे । तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम, मृगया के लिये वन में जावेगा, तब वहीं उसका नाश होगा । उत्तम की माता सुरुचि उसके मृत्यु के दुख के कारण, अरण्य में दावानल में प्रविष्ट होगी । तुम अनेक यज्ञ कर के सब को वंद्य तथा संसारमुक्त हो जाओंगे’। बाद में ध्रुव ने श्रीविष्णु की पूजा की, तथा पश्चात् यह स्वनगर चला आया । ध्रुव के आगमन की वार्ता उत्तानपाद को ज्ञात होते ही वह अत्यंत आनंदित हुआ । ध्रुव महत्कार्य कर के वापस आनेवाला है, यह नारद के भविष्यवाणी से उत्तानपाद पहले से जानता ही था । ध्रुव ने राजधानी में प्रवेश करते ही, इसे शृंगारित हाथी पर बैठा कर, नगर में लाया गया । पिता ने इसके मस्तक का अवघ्राण किया । ध्रुव दोनों माताओं से मिला । सुरुचि ने इसे ‘चिरंजीव हो’ऐसा आशीर्वाद दिया । माता, पिता तथा बंधुओं के साथ ध्रुव सुख से कालक्रमणा करने लगा । पश्चात् राजा ने इसे राज्याभिषेक किया, तथा स्वयं वन में चला गया । एक बार ध्रुव का सौतेला भाई उत्तम, पर्वत पर मृगया के हेतु से गया । एक बलाढय यक्ष ने उसका वध किया । यह सुन कर ध्रुव ने अत्यंत क्रोधित हो कर, यक्षों के पारिपत्य के लिये विजयशाली रथ में बैठ कर, यक्षनगरी अलका पर आक्रमण किया । वहॉं घमासान युद्ध हुआ । यक्ष ने मायाजाल फैला कर, ध्रुव को निर्बल बना दिया । फिर ऋषियों ने ध्रुव को आशीर्वाद दिया, तुम्हारे शत्रु का निःपात होगा’। बादमें ‘नारायणशास्त्र’ के योग से, ध्रुव ने यक्षों का मायापटल दूर कर के, यक्षों को पराजित किया । इस प्रकार ध्रुव गुहयक नामक यक्षों का नाश कर रहा था । तब स्वायंभुव मनु को यक्षों पर दया आई । अपने नाती ध्रुव को उसने युद्ध से तथा गुह्य के हनन से परावृत्त किया । इतना ही नहीं, यक्षवध के कारण क्रोधित हुए कुबेर को प्रसन्न करने के लिये, मनु ने इसे कहा । फिर ध्रुव ने युद्ध बंद किया, एवं पितामह के कथनानुसार कुबेर का स्नेहभाव संपादित किया । कुबेर ध्रुव पर प्रसन्न हुआ एवं उसने इसे वर मॉंगने के लिये कहा । तब ध्रुव ने वर मॉंगा, ‘मैं श्रीहरि का अखंड स्मरण करता रहूँ’। छत्तिस हजार वर्षो तक राज्य करने के बाद, अपने वत्सर नामक पुत्र को गद्दी पर बैठा कर, ध्रुव बदरिकाश्रम में गया । इस स्वर्ग में ले जाने के लिये एक विमान आया । उसमें बैठने के लिये यह जैसे ही तैयार हुआ, वैसे ही मृत्यु ने आ कर इससे कहा, ‘स्वर्ग में जाने से पहले तुम्हें देहत्याग करना पडेगा’। परंतु यह मान्य न कर, मृत्यु के सिर पर पॉंव रख कर, ध्रुव विमान में बैठ गया । स्वर्ग जाते समय, इसे अपने सुनीति माता का स्मरण हुआ, तथा उसे भी अपने साथ स्वर्ग के जाने की इच्छा हुई । इतने में इसने देखा कि, सुनीति इसके पहले ही स्वर्ग जी पहुंची है । अन्त में इसे सप्तर्षियों के समीप अचल ध्रुवपद प्राप्त हुआ । वह तारा ‘ध्रुव’ नाम से प्रसिद्ध है [भा.४.८-१२] ;[विष्णु.१.११-१२] ;[मत्स्य.४.३५-३८] ;[लिंग १.६२] ;[स्कंद.४.१.१९-२१] ;[ह.वं.१.२.९-१३] । अपने पूर्वजन्म में ध्रुव एक ब्राह्मणपुत्र था । इसने मातापिता की योग्य सुश्रूषा तथा धर्मपालन किया । पश्चात् एक राजपुत्र से इसकी मित्रता हुई । उसका वैभव देख कर इसे भी राजपुत्र बनने की इच्छा हुई। अपने पूर्वसंचित पुण्य के कारण, अगले जन्म में यह उत्तानपाद राजा का पुत्र बना । [विष्णु.१.१२.८४-९०] । ध्रुव ने पक्षवर्धिनी एकादशी का व्रत किया था [पद्म.उ.३६]
ध्रुव n.  ध्रुव के कुल चार पत्नीयों का निर्देश प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त है । उनके नाम इसप्रकार हैः--- (१) भ्रमि---यह शिशुमार प्रजापति की कन्या थी । इससे ध्रुव को कल्प एवं वत्सर नामक दो पुत्र हुएँ । उनमें से वत्सर ध्रुव के पश्चात् राजगद्दी पर बैठी । (२) इला---यह वायु ऋषि की कन्या थी । इससे ध्रुव को उत्कल (विरक्त) नामक एक पुत्र हुआ । (३) शंभु---इससे ध्रुव को श्लिष्टि एवं भव्य नामक दो पुत्र हुएँ [विष्णु१.१३.१] ;[ह.वं.१.२-१४] । (४) धन्या---यह मनु की कन्या थी । इससे ध्रुव को शिष्टि नामक एक पुत्र हुआ [मत्स्य.४.३८]
ध्रुव (आंगिरस) n.  -सूक्तद्रष्टा [ऋ.१०.१७३] । इसके सूक्तों में राष्ट्र तथा राजा के संबंध प्रजातंत्रात्मकविचार दिखाई देते हैं ।
ध्रुव II. n.  (सो. पुरुरवस्.) नहुष का पुत्र, एवं ययाति का भाई [म.आ.७०.२८] । इसके नाम के लिये ‘उद्धव’ पाठभेद उपलब्ध है ।
ध्रुव III. n.  पांडवपक्षीय एक राजा । भारतीय युद्ध में पांडवों का ही विजय होगा, यह कर्ण को बताते समय, कृपाचार्य ने जिन पांडवपक्षीय राजाओं के नाम बताये, उनमें से यह एक था ।
ध्रुव IV. n.  एक राजा । यमसभा में बैठ कर, यह सूर्यपुत्र यम की उपासना करता था [म.स.८.१०] । इसके नाम के लिये ‘भव’ पाठभेद भी उपलब्ध है ।
ध्रुव IX. n.  धर्म एवं वसु का पुत्र ।
ध्रुव V. n.  कौरवपक्ष का एक योद्धा । भीम ने इसका वध किया [म.द्रो.१३०.२३]
ध्रुव VI. n.  सुख देवों में से एक ।
ध्रुव VII. n.  विकुंठ देवों में से एक ।
ध्रुव VIII. n.  लेख देवों में से एक ।
ध्रुव X. n.  ०. धर्म को धूम्रा के गर्भ से उत्पन्न द्वितीय वसु [म.आ.६०.१८]
ध्रुव XI. n.  १. मधुबन के शाकुनि ऋषि के नौ पुत्रों में से ज्येष्ठ ।

ध्रुव

कोंकणी (Konkani) WN | Konkani  Konkani |   | 
 noun  जो सुनितीच्या गर्भांतल्यान उत्पन्न जाल्लो असो राजा उत्तानपादाचो एक पूत   Ex. पांच वर्साच्या पिरायेंतच ध्रुव देवाचो तप करपा खातीर रानांत गेलो
ONTOLOGY:
पौराणिक जीव (Mythological Character)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
Wordnet:
marध्रुव
oriଧ୍ରୁବ
panਧਰੁਵ
urdدھرو
 noun  पृथ्वीच्या दक्षीण आनी उत्तर तोंकांतलो दर आनी ह्या दोनांच्याय मद्दीं अक्ष रेशेची स्थिती मानतात असो   Ex. आशिया उत्तर ध्रुवा सावन भूंयमध्य रेशे मेरेन पातळ्ळ्या
ONTOLOGY:
भौतिक स्थान (Physical Place)स्थान (Place)निर्जीव (Inanimate)संज्ञा (Noun)
Wordnet:
sanध्रुवम्

ध्रुव

A dictionary, Marathi and English | Marathi  English |   | 
   The polar star; also the north pole. 2 The twelfth of the twenty-seven astronomical Yog. 3 The introductory stanza of a song. It is repeated after each of the stanzas as a burden or chorus.
   dhruva a S Fixed, stable, firm, constant, established.

ध्रुव

Aryabhushan School Dictionary | Marathi  English |   | 
  m  The polar star; the north pole.
   Fixed, stable, firm, constant, established.

ध्रुव

 वि.  अचल , अढळ , निश्चल , स्थिर ;
 वि.  चिरंतन , निरंतर , शाश्वत .

ध्रुव

मराठी (Marathi) WN | Marathi  Marathi |   | 
 noun  राजा उत्तानपादचा एक पुत्र ज्याने सुनितीच्या पोटी जन्म घेतला होता   Ex. पाच वर्षाचा असतानाच ध्रुव देवाची तपस्या करण्यासाठी जंगलात गेला.
ONTOLOGY:
पौराणिक जीव (Mythological Character)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
SYNONYM:
ध्रुवबाळ
Wordnet:
kokध्रुव
oriଧ୍ରୁବ
panਧਰੁਵ
urdدھرو
   See : ध्रुव तारा

ध्रुव

  पु. नाकाचा शेंडा ; नासिकाग्र . ( सं .)
  पु. १ पृथ्वीच्या उत्तरेस असणारा एक अढळ तारा . नोहेचि समुद्र प्रवाहो । नुटीचि ध्रुवा जावो । - ज्ञा १८ ४२१ . २ पृथ्वीच्या किंवा खगोलाच्या आसांच्या दोन टोकांपैकी प्रत्येक . उत्तर - दक्षिण ध्रुव . ३ ( ज्यो . ) सत्तावीस योगांपैकी बारावा योग . ४ सूर्य वंशांतील उत्तानपाद राजाचा पुत्र . धृव धृव खरास्तवा उचित होय विश्वास तो । - केका ६५ . ५ गाणे , पद इ० कांचे पालुपद ; ध्रुपद ; अकडकडवे . ६ ( ताल . ) एक मात्राप्रमाण . ध्रुवताल पहा . - वि . १ शाश्वत ; निरंतर . ध्रुव सुख नसेचि कैंचा जय कैंचे राज्य कीर्ति जोडावी । - मोशल्य १ . ५२ . श्रीगुरु म्हणे त्या अवसरी । सुवासिनी होय ध्रुव । - गुच ३२ . १३७ . २ स्थिर ; अढळ ; अचल . हृदय शुद्धीचिया आवारी । आराध्यु तो निश्चल ध्रुव करी । - ज्ञा १३ . ३८५ . [ सं . ] सामाशब्द -
०ताल  पु. ( संगीत ) कर्नाटक संगीत पद्धतीतील एक ताल . याचे मात्रा प्रकार पांच आहेत ते येणे प्रमाणे . ११ , १४ , १७ , २३ , २९ . [ ध्रुव + ताल ]
०पद  न. १ धुवाला दिलेले अचल स्थान ; ध्रुव तार्‍याचे स्थान . रुसला ध्रुव कवतिके । बुझाविला देऊनि भातुके । ध्रुवपदाचे । - ज्ञा १० , १८ . २ ( ल ) शाश्वत टिकणारे , वैभवाचे उच्च स्थान , पद . ३ ( संगीत ) पद , गाणे इ० कांचे पालुपदाचे कडवे ; ( विरु . ) ध्रुपद . ४ ( संगीत ) चीजेचा एक प्रकार . ह्यांत देवतांची स्तुति , ऋतुवर्णने , सृष्टिसौंदर्य , वीर - शृंगारादि रस इ० विषय असतात . ही चीज बहुधा गंभीर प्रकृतीच्या रागांत व प्रौढ भाषेत रचिलेली असते व चौताल , सलताल , तीव्रा , ब्रह्मताल इ० कांत गाइली जाते . [ ध्रुव + सं . पद = स्थान ]
०पदी   - उक्रि . १ ( एखाद्यास ) शाश्वत , स्थिर असे स्थान देणे . २ उच्चस्थानी बसविणे ; वैभवाला पोंचविणे .
बसविणे   - उक्रि . १ ( एखाद्यास ) शाश्वत , स्थिर असे स्थान देणे . २ उच्चस्थानी बसविणे ; वैभवाला पोंचविणे .
०मत्स्य  पु. ( ज्यो . ) लघुऋक्ष किंवा लघुऋक्षांतील दोन मुख्य तार्‍यांपैकी एक . दुसरा मुख्य तारा ध्रुव होय . सप्तर्षि , नरतुरंगम ध्रुवमत्स्य , यताति वगैरे राशींची ओळख मुलांना करुनि देता येईल . - अध्यापन २०० . [ ध्रुव + सं . मत्स्य = मासा ]
०लोक  पु. स्वर्गलोकाप्रमाणे असलेला ध्रुव तार्‍याचा लोक . [ ध्रुव + लोक = जग ]
०वृत्त  न. ध्रुवापासून २३॥ अंशावर असलेले विषुववृत्ताशी समांतर असे कल्पितवृक्ष . विषुववृत्तापासून उत्तरेस व दक्षिणेस असलेले ६६॥ अंशावरील अक्षांशवृत्त . [ ध्रुव + आकर्ष = ओढणे + सं . प्रेरणा ] ध्रुवात्मक वि . ( पदार्थ ) ज्यामध्ये चुंबकासारखे आकर्षण उत्पन्न केले आहे असा ; ध्रुवसंपन्न झालेला ; केलेला ( धातुमय पदार्थ , शलाका इ० ). [ ध्रुव + आत्मा ] ध्रुवांश पु . ( ज्यो . ) खस्थ गोलाचे ( त्याला जवळ असलेल्या ) ध्रुवापासूनचे अंशात्मक अंतर . [ ध्रुव + अंश ] ध्रुवीभवन न . १ ( एखाद्या पदार्थाची , धातूची , दुसर्‍या पदार्थावर रासायनिक क्रिया होऊन तो पदार्थ ) ध्रुवसंपन्न चुंबकासारखा आकर्षणयुक्त बनणे . २ प्रकाशलहरींच्या कंपनामध्ये फरक होणे . ( इं . ) पोलरायझेशन . ध्रुवीभूत किरण वेगवेगळ्या बाजूमध्ये निरनिराळे गुणधर्म दाखवितो . - ज्ञाको ध ८६ . [ सं . ] ध्रुवोत्सारप्रेरणा स्त्री . मध्यापासून दूर लोटणारी प्रेरणा . ( इं . ) सेंट्रिफ्युगल फोर्स . [ ध्रुव + उत + सार = दूर , वर लोटणे + प्रेरणा = शक्ति , जोर ] ध्रुवोन्नति स्त्री . ( ज्यो . ) ध्रुवाची ( एखाद्या ) पातळीपासून अंशात्मक उंची ; ध्रुवाचा उन्नतांश . [ ध्रुव + सं . उन्नति = उंची ] ध्रुवोन्मुखता स्त्री . ( चुंबकाची दोन टोके अनुक्रमे ) उत्तर व दक्षिण या दिशांकडे आकर्षिली जाण्याचा चुंबकाचा गुण . - मराठी ६ वे ( १८७५ ) पुस्तक , पृ . ७८ . [ ध्रुव + सं . उन्मुखता = तोंड समोर , पुढे करणे , असणे ]

ध्रुव

नेपाली (Nepali) WN | Nepali  Nepali |   | 
   See : ध्रुव तारा

ध्रुव

A Sanskrit English Dictionary | Sanskrit  English |   | 
ध्रुव  f. mf(आ॑)n. (prob.fr.धृ, but cf.ध्रु and ध्रुव्) fixed, firm, immovable, unchangeable, constant, lasting, permanent, eternal, [RV.] &c. &c. (e.g. the earth, a mountain, a pillar, a vow &c.; with स्वा-ङ्गn. an inseparable member of the body, [Pāṇ. 6-2, 177] ; with धेनुf. a cow which stands quiet when milked, [AV. xii, 1, 45] ; with दिश्f. the point of the heavens directly under the feet [reckoned among the quarters of the sky cf.2.दिश्] [AV.] ; [Br.] ; with स्मृतिf. a strong or retentive memory, [ChUp. vii, 26, 2] ; cf. also under करण and नक्षत्र)
   staying with (loc.), [RV. ix, 101, 12]
   settled, certain, sure, [Mn.] ; [MBh.] ; [Kāv.] &c.
पाप   ifc. = , [L.]
ध्रुव  m. m. the polar star (personified as son of उत्तान-पाद and grandson of मनु), [GṛS.] ; [MBh.] &c.
   celestial pole, [Sūryas.]
   the unchangeable longitude of fixed stars, a constant arc, ib.
   a knot, [VS. v, 21; 30]
   a post, stake, [L.]
   the Indian fig-tree, [L.]
   tip of the nose (?), [L.]
   a partic. water-bird, ib.
   the remaining (i.e. preserved) ग्रह which having been drawn in the morning is not offered till evening, [ŚBr.] ; [Vait.]
ताल-विशेष   (in music) the introductory verse of a song (recurring as a kind of burthen) or a partic. time or measure ()
ROOTS:
ताल विशेष
   any epoch to which a computation of dates is referred, [W.]
   N. of an astrol.योग
   of the syllable Om, [RāmatUp.]
   of ब्रह्मा, [L.]
   of विष्णु, [MBh.]
   of शिव, [Śivag.]
   of a serpent supporting the earth, [GṛS.] ; [TĀr.]
   of a वसु, [MBh.] ; [Hariv.] ; [Pur.]
   of a son of वसु-देव and रोहिणी, [BhP.]
   of an आङ्गिरस (supposed author of [RV. x, 173] ), [Anukr.]
   of a son of नहुष, [MBh.]
   of a follower of the पाण्डुs, ib.
   of a son of रन्ति-नार (or रन्ति-भार), [Pur.]
ध्रुव  n. n. the fixed point (from which a departure takes place), [Pāṇ. 1-4, 24]
   the enduring sound (supposed to be heard after the अभिनिधान), [RPrāt.]
   air, atmosphere, [L.]
   a kind of house, [Gal.]
ध्रुव   [cf.Zd.drva.]

ध्रुव

The Practical Sanskrit-English Dictionary | Sanskrit  English |   | 
ध्रुव [dhruva]   a.
   (a) Fixed, firm, immovable, stable, permanent, constant, unchangeable; इति ध्रुवेच्छाम- नुशासती सुताम् [Ku.5.5.] (b) Perpetual, everlasting, eternal; ध्रुवेण भर्त्रा [Ku.7.85;] [Ms.7.28.]
   Fixed (in astrology).
   Certain, sure, inevitable; जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च [Bg.2.27;] यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते [Chāṇ.63;] [Pt.1.419.]
   Retentive, tenacious; as in ध्रुवा स्मृति [Ch. Up.7.26.2.]
   Strong, fixed, settled (as a day).
   वः The polar star; शरत्प्रसन्नैर्ज्योतिर्भिर्विभावर्य इव ध्रुवम् (अन्वयुः) [R.17.35;] 18.34; ध्रुवेण भर्त्रा ध्रुवदर्शनाय प्रयुज्यमाना प्रियदर्शनेन (सा दृष्टा) [Ku.7.85.]
   The pole of any great circle.
   The distance of a planet from the beginning of the sidereal zodiac, polar longitude.
   The Indian figtree.
   A post, stake.
   The stem or trunk (of a tree lopped off).
   The introductory stanza of a song (repeated as a kind of chorus; see Gīt.).
   Time, epoch, era.
   An epithet of Brahmā.
   Of Viṣṇu.
   Of Śiva.
   A constant arc.
   The tip of the nose.
   A sacrificial vessel.
  N. N. of the son of Uttānapāda and grandson of Manu. [Dhruva is the polar star, but personified in mythology as the son of Uttānapāda. The account of the elevation of an ordinary mortal to the position of the polar star runs thus: Uttānapāda had two wives, Suruchi and Sunīti, but the latter was disliked by him. Suruchi had a son named Uttama, and Sunīti gave birth to Dhruva. One day the boy tried, like his elder brother, to take a seat in his father's lap, but he was contemptuously treated both by the King and his favourite wife. The poor child went sobbing to its mother who told him in consolatory terms that fortune and favour were not attainable without hard exertions. At these words the youth left the paternal roof, retired to the woods, and, though quite a lad, performed such rigorous austerities that he was at last raised by Viṣṇu to the position of the Polar Star.]
   Peg [Nm.]
  N. N. of an astrological yoga (Nm.).
   वम् The sky, atmosphere.
   Heaven.
   The fixed point (from which a departure takes place); [P.I.4.24.]
   A certain Yoga (अमृतसिद्धि); सेनामाज्ञापयामासुर्नक्षत्रेऽहनि च ध्रुवे [Mb.14.63.18.] (Com. रोहिण्यामुत्तररात्रये च अहनि वारे ध्रुवे रविवारे उत्तरार्केऽमृतसिद्धि- योगे).
   वा A sacrificial ladle (made of wood); साधारण्यान्न ध्रुवायां स्यात् Jaiminisūtras.
   A virtuous woman.
   A cow who stands still when being milked; सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती [Av.12.1.45.]
   A bow-string.
   clapping the hands together to show a particular measure of time in music; स्रुचि मौर्व्यां तालभेदे स्त्रियाम् [Nm.]
   The upper quarter (ऊर्ध्व); किंदेवतोऽस्यां ध्रुवायां दिशि [Bṛi. Up.3.9.24.] (MW's meaning is अधर- दिशा?)
-वम्   ind. Certainly, surely, verily; [R.8.49;] ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया समिल्लतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति [Ś.1.18.] -Comp.
-अक्षरः   an epithet of Viṣṇu (ओम्).
-आयर्तः   the point on the crown of the head from which the hair radiate.
-केतुः   a kind of meteor.
-गतिः   a firm position.-तारा,
-तारकम्   the Polar star.
-भागः   the unchangeable longitude of fixed stars.
-मण्डलम्   the polar region.
-यष्टिः   the axis of the poles.
-योनि a.  a. having a firm resting place.
-रत्ना  N. N. of one of the मातृकाs (attending on Skanda).
-शीलः a.  a. having a fixed residence.

ध्रुव

Shabda-Sagara | Sanskrit  English |   | 
ध्रुव   r. 6th cl. (ध्रुवति)
   1. To stand, firm.
   2. To go or move. ध्रु अच् .
ध्रुव  mfn.  (-वः-वा-वं)
   1. External.
   2. Fixed, stable, firm.
   3. Continual, permanent.
   4. Certain, ascertained.
   5. Spread, extended.
  m.  (-वः)
   1. A name of BRAMHĀ.
   2. SIVA.
   3. VISHṆU.
   4. The polar star or north pole itself; in mythology, personified by DHRUVA, the son of UTTĀNAPĀDA, and grandson of the first MANU.
   5. The pole of any great circle, particularly either of the celestial poles.
   6. (In Astronomy,) The distance of a planet from the beginning of the sydereal zodiac.
   7. Any epoch to which a computation of dates is referred.
   8. One of the demi-gods called VASUS.
   9. The trunk of a lopped tree.
   10. The Indian fig tree, (Ficus Indica.)
   11. One of the twenty-seven astronomical Yogas, or the Yoga star of the twelfth lunar asterism, supposed to be Leonis.
   12. A sort of bird: see शराटि.
  n.  (-वं)
   1. Ascertainment, certainty.
   2. Logic, reasoning, discussion.
   3. Heaven.
  f.  (-वा)
   1. A sacrificial vase made in the shape of the Indian fig leaf, and of the wood of the Flacourtia sapida.
   2. A plant, (Hedysarum gangeticum.)
   3. A small tree from the fibres of which bow strings are made: see मूर्ब्बा.
   4. The intro- ductory stanza of a song: it is distinct form the verses of the song, after each of which it is again repeated as a burden or chorus.
   5. A virtuous woman.
   E. ध्रु to be fixed affix अच्.
ROOTS:
ध्रु अच्

ध्रुव

संस्कृतम् (Sanskrit) WN | Sanskrit  Sanskrit |   | 
 adjective  यद् निवारितुं न शक्यते।   Ex. जातस्य ही मृत्युः ध्रुवः।
MODIFIES NOUN:
घटना
ONTOLOGY:
गुणसूचक (Qualitative)विवरणात्मक (Descriptive)विशेषण (Adjective)
SYNONYM:
अनिवार्य
Wordnet:
asmঅৱশ্যম্ভাবী
bdएंगारथावहायि
benঅবশ্যম্ভাবী
gujનિશ્ચિત
hinअवश्यंभावी
kanಅನಿವಾರ್ಯ
kasاَٹَل
kokनिश्चीत
marअटळ
nepअवश्यम्भावी
oriଅବଶ୍ୟମ୍ଭାବୀ
urdیقینی , لازمی , واجبی , ضروری , لابدی
   See : सुदृढ, ध्रुवतारा

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