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नारी

सुमित्रानंदन पंत - नारी

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंथित,

वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित !

युग युग की वंदिनी, देह की कारा मे निज सीमित,

वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित !

सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,

पूत योनि वह मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;

अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,

वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित !

वह समाज की नही इकाई, - शून्य समान अनिश्चित,

उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित ।

मुक्त ह्रदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,

दृष्टि, स्पर्श, संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित !

योनि नही है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित ।

द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,

नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हो विकसित ।

आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित

नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित ।

सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,

नर नारी की ह्रदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत ।

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References :

कवी - श्री सुमित्रानंदन पंत

दिसंबर' ३९

Last Updated : October 11, 2012

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