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खिड़की से

सुमित्रानंदन पंत - खिड़की से

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


पूस - निशा का प्रथम प्रहर - खिड़की से बाहर

दूर क्षितिज तक स्तब्ध आम्र वन सोया क्षण भर

दिन का भ्रम होता पूनो ने तृण तरुओं पर

चाँदी मढ़ दी है, भू को स्वप्नों से जड़कर !

चारु चंद्रिकातप से पुलकित निखिल धरातल

चमक रहा है, ज्यों जल में बिम्बित जग उज्वल !

स्पष्ट दीखते - खिड़की की जाली में विजड़ित

कटहल, लीची, आम, घूक गेंदुर से कंपित;

फाटक औ हाते के खंभे, बगिया के पथ,

आधी जगत कुँए की, कुरिया की छाजन श्लथ;

अस्पताल का भाग, मेहराबें दरवाजे,

स्फटिक सदृश जो चमक रहे चूने से ताजे ।

औ टेढ़ी मेड़्ही दिगंत रेखा के ऊपर

पास पास दो पेड़ ताड़ के खड़े मनोहर !

आधी खिड़की पर अगणित ताराओं से स्मित

हरित धरा के ऊपर नीलांबर छायांकित ।

कचपचिया (कृत्तिका) सामने शोभित सुंदर-

मोती के गुच्छे सी - भरणी ज्यों त्रिकोण वर !

पास रोहिणी, प्रिय मिलनातुर, बाँह खोलकर,

सेंदुर की बेंदी दे, जुडुओं को गोदी भर ।

लुब्ध दृष्टि लुब्धक, समीप ही छोड़ रहा शर

आदि काल से मृग पर मृग शिर सहज मनोहर ।

उधर जड़े पुखराज लाल-से गुरु औ मंगल

साथ-साथ, जिनमें अवश्य गुरु सबसे उज्वल !

हस्ता है प्रत्यक्ष कठिन वृश्चिक का मिलना,

वह शायद आर्द्रा, कहता हिमजल सा हिलना ।

ज्योति फेन सी स्वर्गंगा नभ बीच तरंगित,

परियों की माया सरसी सी छायालोकित;

ज्वलित पुंज ताराओं के बाष्पों से सस्मित,

नीलम के नभ में रत्‍न प्रभु पुल सी निर्मित ।

खोज रहा हू कहाँ उदित सप्तर्षि गगन में

अरुंधती को लिए साथ, विस्मित से मन में !

प्रश्न चिह्न-से जो अनादि से नभ में अंकित,

उत्तर में स्थिर ध्रुव की ओर किए चिर इंगित,

पूछ रहे हो संसृति का रहस्य ज्यों अविदित,-

'क्या है वह ध्रुव सत्य? गहन नभ जिससे ज्योतित!'

ज्योत्सना में विकसित सहस्त्रदल भू पर, अंबर

शोभित ज्यों लावण्य स्वप्न अपलक नयनों पर !

यह प्रतिदिन का दृश्य नहीं, छल से वातायन

आज खुल गया अप्सरियों के जग में मोहन !

चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,

निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित !

आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल,

सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल !

एक शक्ति से, कहते, जग प्रपंच यह विकसित,

एक ज्योति कर से समस्त जड़ चेतन निर्मित;

सच है यह आलोक पाश में बँधे चराचर

आज आदि कारण की ओर खींचते अंतर !

क्षुद्र आत्म पर भूल, भूत सब हुए समन्वित,

तण, तरु से तारालि - सत्य है एक अखंडित !

मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित ?

ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूड, विभाजित !!

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References :

कवी - श्री सुमित्रानंदन पंत

दिसंबर' ३९

Last Updated : October 11, 2012

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