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गंगा

सुमित्रानंदन पंत - गंगा

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


अब आधा जल निश्‍चल, पीला,-

आधा जल चंचल औ' नीला-

गीले तन पर मृदु संध्यातप

सिमटा रेशम पट सा ढीला ।

ऐसे सोने के साँझ प्रात,

ऐसे चाँदी के दिवस रात,

ले जाती बहा कहाँ गंगा

जीवन के युग क्षण, - किसे ज्ञात !

विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,

किरणोज्वल चल कल उर्मि निरत,

यमुना, गोमती आदि से मिल

होती यह सागर में परिणत ।

यह भौगोलिक गंगा परिचित,

जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,

इस जड़ गंगा से मिली हुई

जन गंगा एक और जीवित !

वह विष्णुपदी, शिव मौलि स्त्रुता,

वह भीष्म प्रसू औ' जह्नु सुता,

वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,

वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता ।

वह गंगा, यह केवल छाया,

वह लोक चेतना, यह माया,

वह आत्म वाहिनी ज्योति सरी,

यह भू पतिता, कंचुक काया ।

वह गंगा जन मन से निःसृत,

जिसमें बहु बुदबुद युग नर्तित,

वह आज तरंगित, संसृति के

मृत सैकत को करने प्लावित ।

दिशि दिशि का जन मत वाहित कर,

वह बनी अकूल अतल सागर,

भर देगी दिशि पल पुलिनों में

वह नव जीवन की मृद्‌ उर्वर !

अब नभ पर रेखा शशि शोभित,

गंगा का जल श्यामल, कंपित,

लहरों पर चाँदी की किरणें

करती प्रकाशमय कुछ अंकित !

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References :

कवी - श्री सुमित्रानंदन पंत

फरवरी' ४०

Last Updated : October 11, 2012

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