सुभट सहस चौदह सहित भाइ काल बस जानि ।
सूपनखा लंकहि चली असुभ अमंगल खानि ॥१॥
चौदह सहस्त्र उच्च कोटिके योद्धा राक्षसोंसहित भाइयों ( खर - दूषण ) को कालवश हुआ ( मरा ) जानकर अशुभ और अमंगलोंकी खान शूर्पणखा लंकाके लिये प्रस्थित हुई ॥१॥
( प्रश्न-फल अशुभ है । )
बसन सकल सोनित समल, बिकट बदन गत गात ।
रोवति रावन की सभाँ, तात मात हा भ्रात ॥२॥
उस ( शूर्पणखा ) के सब वस्त्र रक्तसे लथपथ हैं, भयंकर मुख है और अंग ( नाक - कान ) कटे हैं । रावणकी सभामें वह 'हाय बाप! हाय मैया! हाय भैया !'कहकर रो रही है ॥२॥
प्रश्न - फल अशुभ है । )
काल कि मुरति कालिका कालराति बिकराल ।
बिनु पहिचाने लंकपति सभा सभय तेहि काल ॥३॥
कालकी मूर्ति, कालिका अथवा कालरात्रिके समान भयंकर उसे ( शूर्पणखाको ) पहिचान न सकनेके कारण उस समय रावणकी सभाके लोग भयभीत हो गये ॥३॥
( प्रश्न-फल अनिष्ट है । )
सूपनखा सब भाँति गत असुभ अमंगल मूल ।
समय साढ़साती सरिस नृपहि प्रजहि प्रतिकूल ॥४॥
शनैश्चरकी साढे़ सात वर्षकी दशाके समान सब प्रकारसे अशुभ और अमंगलकी जड़ शूर्पणखा राजा रावण तथा उसकी प्रजाके लिये प्रतिकूल ( विपत्ति लानेवाली ) बनकर ( लंका ) पहूँची ॥४॥
( प्रश्न - फल राजा - प्रजा सबके लिये अनिष्टसूचक है । )
बरबस गवनत रावनहि असगुन भए अपार ।
नीचु गनत नहिं मीचु बस मिलि मारीच बिचार ॥५॥
हठपूर्वक ( पत्र्चवटीकी ओर ) जाते समय रावणको अपार ( बहुत अधिक ) अपशकुन हुए; किंतु मृत्युवश हुआ वह नीच उनको गिनता ( समझता ) नहीं, मारीचसे मिलकर ( सीताहरणका ) विचार करता है ॥५॥
( प्रश्न - फल अनिष्ट है । )
इत रावन उत राम कर मीचु जानि मारीच ।
कनक कपट मृग बेस तब कीन्ह निसाचर नीच ॥६॥
इधर रावण और उधर श्रीरामके हाथों दोनों ओर मृत्यु ( निश्चित ) समझकर नीच राक्षस मारीचने तब स्वर्णमृगका कपटमय रूप बनाया ॥६॥
( प्रश्न - फल अशुभ है । )
पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत ।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत ॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि पंचवटीमें एक वटवृक्षके नीचे श्रीजानकीजी तथा लक्ष्मणजीके साथ प्रभु शोभित हैं, वे समस्त मंगल ( शुभ- फल ) प्रदान करते हैं ॥७॥
( प्रश्न - फल शुभ है । )