दंडकबन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ ।
ऊसर जामहि, खल तरहिं, होइँ रंक तें राउ ॥१॥
दण्डकवनको पवित्र करनेवाले ( श्रीरामके ) चरणकमलोंके प्रभावसे ऊसर भूमिमें भी अन्न उगने लगता है, दुर्जन भी ( संसार-सागरसे ) पार हो जाते हैं और ( (मनुष्य) दरिद्रसे राजा हो जाता है ॥१॥
( प्रश्न - फल परम शुभ है । )
कपट रूप मन मलिन गइ सुपनखा प्रभु पास ।
कुसगुन कठिन कुनारि कृत कलह कलुष उपहस ॥२॥
मलिन मनवाली शूर्पणखा छलसे रूपवती बनकर प्रभुके समीप गयी । यह भारी अपशकुन है, दुष्ट नारीके कारण झगडा़, पाप तथा हँसी ( अकीर्ति ) होगी ॥२॥
नाक कान बिनु बिकल भइ बिकट कराल कुरूप ।
कुसगुन पाउ न देब मग, पग पग कंटक कूप ॥३॥
( शूर्पणखा ) नाक - कानके ( काटे जानेसे उनके ) बिना व्याकुल हो गयी, उसका रूप अटपटा, भयंकर तथा भद्दा हो गया । यह अपशकुन है - ( यात्राके लिये ) मार्गमें पैर मत रखना, पद पदपर काँटे और कुएँ ( विघ्न बाधाएँ ) हैं ॥३॥
खर दूषन देखी दुखित, चले साजि सब साज ।
अनरथ असगुन अघ असुभ अनभल अखिल अकाज ॥४॥
खर - दूषणने ( शूर्पणखाको ) दुःखी देखा तो ( सेनाका ) सब साज सजाकर चले । यह अपशकुन बुराइयों, पाप, अशुभ. अहित तथा सब प्रकारकी हानि बतलता है ॥४॥
कटु कुठायँ करटा रटहिं, केंकरहिं फेरु कुभाँति ।
नीच निसाचर मीच बस अनी मोह मद माति ॥५॥
कौवे बुरे स्थानोंमें बैठे बार-बार कठोर ध्वनि करते हैं, श्रृगाल बुरी तरह रो रहे हैं, नीच राक्षसोंकी सेना मृत्युके वश होकर मोह तथा गर्वसे मतवाली हो रही है ॥५॥
( शकुन अनिष्टसूचक है ।)
राम रोष पावक प्रबल निसिचर सलभ समान ।
लरत परत जरि जरि मरत, भए भसम जगु जान ॥६॥
श्रीरामजीका क्रोध प्रज्वलित अग्निके समान है और राक्षस पंतगोंके समान हैं । लडा़ई करते हुए वे उस ( क्रोधाग्रि ) में पद़कर जल-जलकर मर रहे हैं । इस प्रकार वे भस्म हो गये, यह बात संसार जानता है ॥६॥
( प्रश्न फल अशुभ है । )
सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास ।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास ॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीराम श्रीजानकी और लक्ष्मणजीके साथ सुशोभित हैं । देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं । यह शकुन सुमंगलका निवासरूप है ॥७॥