चैत्र कृष्णपक्ष व्रत - शीतलाष्टमी

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


शीतलाष्टमी ( स्कन्दपुराण ) -

इस देशमें शीतलाष्टमीका व्रत केवल चैत्र कृष्ण अष्टमीको होता हैं, किंतु स्कन्दपुराणमें चैत्रादि ४ महीनोमें इस व्रतके करनेका विधान है । इसमें पूर्वविद्धा अष्टमी ली जाती है । व्रतीको चाहिये कि अष्टमीको शीतल जलसे प्रातः स्त्रानादि करके

' मम गेहे शीतलारोगजनितोप्रद्रवप्रशमनपूर्वकायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमीव्रतं करिष्ये ।'

यह संकल्प करे । तदनन्तर सुगन्धयुक्त गन्ध - पुष्पादिसे शीतललाका पूजन करके प्रत्येक प्रकारके मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल - भात, लपसी और रोटी - तरकारी आदि कच्चे - पक्के, सभी शीतल पदार्थ ( पहले दिनके बनाये हुए ) भोग लगाये और शीतलास्तोत्रका पाठ करके रात्रिमें जागरण और दीपावली करे । नैवेद्यमें यह विशेषता है कि चातुर्मासी व्रत हो तो - १ चैत्रमें शीतल पदार्थ, २ वैशाखमें घी और शर्करासे युक्त सत्तू, जेष्ठमें पूर्व दिनके बनाये हुए अपूप ( पूए ) और ४ आषाढ़में घी और शक्कर मिली हुई खीरका नैवेद्य अर्पण करे । इस प्रकार करनेसे व्रतीके कुलमें दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े, नेत्रोंके समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियोकें चिह्न और शीतलाजनित सर्वदोष दूर होते हैं और बतलाया है, वह शीतलाके रोगीके लिये बहुत हितकारी है । उसमें बतलाया है कि ' शीतला दिगम्बरा है, गर्दभपर आरुढ़ रहती है, शूप , मार्जनी ( झाडू ) और नीमके पत्तोंसे अलङ्गखत होती है और हाथमें शीतल जलका कलश रखती है ।' वास्तवमें शीतलाके रोगीके सर्वाङ्गमें दाहयुक्त फोड़े होनेसे वह बिलकुल नग्न हो जाता है । ' गर्दभपिण्डी ' ( गधेकी लीद ) की गन्धसे फोड़ोंकी पीड़ा कम होती है । शूपके काम ( अन्नकी सफाई आदि ) करने और झाडू लगानेसे बीमारी बढ़ जाती है, अतः इन कामोंको सर्वथा बंद रखनेके लिये शूप और झाडू बीमारके समीप रखते हैं । नीमके पतोंसे शीतलाके फोड़े सड़ नहीं सकते और शीतल जलके कलशका समीप रखना तो आवश्यक है ही ।

१. व्रतमात्रेऽष्टमी कृष्णा पूर्वा शुक्लाष्टमी परा । ( माधव )

२. भक्षयेद् वटकान् पूपांश्चैत्रे शीतजलान्वितान् ।

वैशाखे सक्तुकं तावत् साज्यं शर्करयान्वितम् ॥

एवं या कुरुते नारी व्रतं वर्षचतुष्टयम् ।

तत्कुले नोपसर्पन्ति गलगण्डाग्रहादयः ॥

विष्फोटभयं घोरं कुले तस्य न जायते ।

शीतले ज्वरदग्धस्य पूतगन्धतस्य च ॥

प्रणष्टचक्षुषः पुंसस्तामाहुर्जीवनौषधम् । ( स्कन्द० )

३. वन्देऽहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम् ।

मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालङ्कृतमस्तकाम् ॥ ( शीतलास्तोत्र )

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Last Updated : January 16, 2009

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