ब्राह्मणरूपी वृक्षका मूल संध्या है, चारो वेद चार शाखाएँ है, धर्म और कर्म पत्ते है । अतः मूलकी रक्षा यत्नसे करनी चाहिये । मूलके छिन्न हो जानेपर वृक्ष और शाखा कुछ भी नही रह सकते है-
विप्रो वृक्षो मूलकान्यत्र संध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव वृक्षो न शाखा ॥
(देवीभा० ११।१६।६।
समयपर की गयी संध्या इच्छानुसार फल देती है और बिना समयकी की गयी संध्या वन्ध्या स्त्रीके समान होती है -
स्वकाले सेविता संध्या नित्यं कामदुघा भवेत् ।
अकाले सेविता सा च संध्या वन्ध्या वधूरिव ॥
(मित्रकल्प)
प्रातःकालमें तारोके रहते हुए, मध्याह्नकालमे जब सूर्य आकाशमें मध्यमें हो, सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी संध्या करनी चाहिये -
प्रातः संध्या सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम् ॥
ससूर्या पश्चिमां संध्यां तिस्त्रः संध्या उपासते ।(दे० भा० ११।१६।२-३।
सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो, तबतक जप करता रहे-
जपन्नासीत सावित्रीम्प्रत्यगातारकोदयात् ॥
संध्या प्राक् प्रातरेवं हि तिष्ठेदासूर्यदर्शनात् ।(या०स्मृ० २।२४-२५)
गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमे 'ॐ' का उच्चारण करके जप करे, और अन्तमें'ॐ' का उच्चारण न करे, क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नही होती है-
गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत् ।
अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात् ॥
(याज्ञवल्क्यस्मृ०, आचाराध्याय २४-२५ बालम्भट्टी)
जपके आदिमे चौंसथ कलायुक्त विद्याओं तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्योंका सिद्धिदायक 'गायत्री-ह्रदय' का तथा अन्तमें 'गायत्री-कवच' का पाठ करे । (यह नित्य संध्यामें आवश्यक नही है, करे तो अच्छा है)-
चतुष्षष्टिकला विद्या सकलैश्वर्यसिद्धिदा ।
जपारम्बे च ह्रदयं जपान्ते कवचं पठेत् ॥
घरमें संध्या-वन्दन करनेसे एक, गोस्थानमें सौ, नदी-किनारे लाख तथा शिवके समीमपें अनन्त गुना फल होता है-
गृहेषु तत्समा संध्या गोष्ठे शतगुना स्मृता ।
नद्यां सह्तगुना प्रोक्ता अनन्ता शिवसंनिधौ ॥
(लघुशातातपसृ० ११४)
पैर धोनेसे, पीनेसे और संध्या करनेसे बचा हुआ जल श्वानके मूत्रके तुल्य हो जाता है, उसे पीनेपर चान्द्रायण-व्रत करनेसे मनुष्य पवित्र होता है । इसलिये बचे हुए जलको फेंक दे-
पादशेषं पीतशेषं संध्याशेषं तथैव च ।
शुनो मूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥
संध्याके लिये पात्र आदि
१. लोटा प्रधान जलपात्र - १
२. घंटी और संध्याका विशेष जलपात्र - १
३. पात्र-चन्दन-पुष्पादिके लिये
४. पञ्चपात्र-२
५. आचमनी-२
६. अर्घा-१
७. जल गिरानेके लिये तामड़ी (छोटी थाली) - १
८. आसन