संध्याका समय - सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुए हो, उस समयकी संध्या उत्तम मानी गयी है । ताराओंके छिपनेसे सूर्योदयतक मध्यम और सूर्योअदयके बादकी संध्या अधम होती है ।
सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम, सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम और तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी है ।
संध्याकी आवश्यकता
नियमपूर्वक जो लोग प्रतिदिन संध्या करते है, वे पापरहित होकर सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त होते है -
संध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः ।
विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥
(अत्रि)
इस पृथ्वीपर जितने भी स्वकर्मरहित द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) है, उनको पवित्र करनेके लिये ब्रह्माने संध्याकी उत्पत्ति की है । रात या दिनमें जो भी अज्ञानवश विकर्म हो जायँ, वे त्रिकाल-संध्या करनेसे नष्ट हो जाते है-
यावन्तोऽस्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थातु वै द्विजाः ।
तेषां वै पावनार्थाय संधय सृष्ट स्वयम्भुवा ॥
निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत् ।
त्रैकाल्यसंध्याकरणात् तत्सर्वं विप्रणश्यति ॥
(याज्ञवल्क्यस्मृ० प्रायश्चित्ताध्याय ३०७)
संध्या न करनेसे दोष
जिसने संध्याका ज्ञान नही किया, जिसने संध्याकी उपासना नही की, वह (द्विज) जीवित रहते शूद्र-सम रहता है और मृत्युके बाद कुत्ते आदिकी योनिको प्राप्त करता है-
संध्या येन न विज्ञाता संध्या येनानुपासिता ।
जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चाभिजायते ।
(दे० भा० ११।१६।७)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि संध्या नही करे, तो वे अपवित्र है और उन्हे किसी पुण्यकर्मके करनेका फल प्राप्त नही होता ।
संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्म्सु ।
यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥
(दक्षस्मृ० २।२७)
संध्या-कालकी व्याख्या
सूर्य और तारोंसे रहित दिन-रातकी संधिको तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्याकाल माना है-
अहोरात्रस्य या संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जिता ।
सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
(आचारभूषण ८९)