एक दिन ब्रह्मदत्त नाम का एक ब्राह्मन अपने गांव से प्रस्थान करने लगा । उसकी माता ने कहा ----"पुत्र ! कोई न कोई साथी रास्ते के लिये खोज लो । अकेले यात्रा नहीं करनी चाहिये ।"
ब्रह्मदत्त ने उत्तर दिया ----"डरो मत मां ! इस मार्ग में कोई उपद्रव नहीं है । मुझे जल्दी जाना है, इतने में साथी नहीं मिलेगा । मेरे पास साथी खोजने का समय नहीं है ।" मां ने कुछ और उपाय न देख पड़ोस से एक ’कर्कट’ ले लिया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को कहा कि "यदि तुझे जाना ही है तो इस कर्कट को भी साथ लेता जा । यह तुझे बहुत सहायता देगा ।"
ब्रह्मदत्त ने माता का कहना मान कर्कट को ही साथी बना लिया; उसे कपूर की डिबिया में रखकर यात्रा के लिये चल दिया ।
थोड़ी दूर जाकर जब वह थक गया और गर्मी बहुत सताने लगी तो उसने मार्ग के एक वृक्ष की छाया में विश्राम लिया । थका हुआ तो था ही, नींद आगई । उसी वृक्ष के बिल में एक सांप रहता था । वह जब ब्रह्मदत्त के पास आया तो उसे कपूर की गन्ध आगई । कपूर की गन्ध सांप को प्रिय होती है । सांप ने ब्रह्मदत्त के कपड़ों में से कपूर की डिबिया खोज ली, लेकिन जब उसे खाने लगा, कर्कट ने सांप को मार दिया ।
ब्रह्मदत्त जब जागा तो देखा कि पास ही काला सांप मरा पड़ा है । उसेक पास कपूर की डिबिया भी पड़ी थी । वह सम्झ गया कि यह काम कर्कट का ही है । प्रसन्न होकर वह सोचने लगा---"मां सच कहती थी कि पुरुष को यात्रा में कभी एकाकी नहीं जाना चाहिये । मैंने श्रद्धा-पूर्वक मां का वचन पूरा किया, इसीलिये काला सांप मुझे काट नहीं सका; अन्यथा मैं मर जाता ।"
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इस कहानी के बाद स्वर्णसिद्धि अपने मित्र चक्रधर को वहीं छोड़कर अपने घर वापिस आ गया ।
पंचमतन्त्र समाप्त
॥इति॥