एक नगर में चार ब्राह्मण पुत्र रहते थे । चारों में गहरी मैत्री थी । चारों ही निर्धन थे । निर्धनता को दूर करने के लिए चारों चिन्तित थे । उन्होंने अनुभव कर लिया था कि अपने बन्धु-बान्धवों में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे कंटीले जङगल में रहना अच्छा़ है । निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते हैं, बन्धु-बान्धव भी उस से किनारा कर लेते हैं, अपने ही पुत्र-पौत्र भी उस से मुख मोड़ लेते हैं, पत्नी भी उससे विरक्त हो जाती है । मनुष्यलोक में धन्के बिना न यश संभव है, न सुख । धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है, कुरुप भी सुरुप कहलाता है, और मूर्ख भी पंडित बन जाता है ।
यह सोचकर उन्होंने धन कमाने के लिये किसी दूसरे देश को जाने का निश्चय किया । अपने बन्धु-बान्धवों को छो़ड़ा, अपनी जन्म-भूमि से विदा ली और विदेश-यात्रा के लिये चल पड़े ।
चलते-चलते क्षिप्रा नदी के तट पर पहुँचे । वहाँ नदी के शीतल जल में स्नान करने के बाद महाकाल को प्रणाम किया । थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें एक जटाजूटधारी योगी दिखाई दिये । इन योगिराज का नाम भैरवानन्द था । योगिराज इन चारों नौजवान ब्राह्मणपुत्रों को अपने आश्रम में ले गए और उनसे प्रवास का प्रयोजन पूछा़ । चारों ने कहा---"हम अर्थ-सिद्धि के लिये यात्री बने हैं । धनोपार्जन ही हमारा लक्ष्य है । अब या तो धन कमा कर ही लौटेंगे या मृत्यु का स्वागत करेंगे । इस धनहीन जीवन से मृत्यु अच्छी है ।"
योगिराज ने उनके निश्चय की परीक्षा के लिये जब यह कहा कि धनवान बनना तो दैव के अधीन है, तब उन्होंने उत्तर दिया---- "यह सच है कि भाग्य ही पुरुष को धनी बनाता है, किन्तु साहसिक पुरुष भी अवसर का लाभ उठा कर अपने भाग्य को बदल लेते हैं । पुरुष का पौरुष कभी-कभी दैव से भी अधिक बलवान हो जाता है । इसलिए आप हमें भाग्य का नाम लेकर निरुत्साहित न करें । हमने अब धनोपार्जन का प्रण पूरा करके ही लौटने का निश्चय किया है । आप अनेक सिद्धियों को जानते हैं । आप चाहें तो हमें सहायता दे सकते हैं, हमारा पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं । योगी होने के कारण आपके पास महती शक्तियाँ हैं । हमारा निश्चय भी महान् है। महान् ही महान् की सहायता कर सकता है ।"
भैरवानन्द को उनकी दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई । प्रसन्न होकर धन कमाने का एक रास्ता बतलाते हुए उन्होंने
कहा ---"तुम हाथों में दीपक लेकर हिमालय पर्वत की ओर जाओ । वहाँ जाते-जाते जब तुम्हारे हाथ का दीपक नीचे गिर पड़े तो ठहर जाओ । जिस स्थान पर दीपक गिरे उसे खोदो । वहीं तुम्हें धन मिलेगा । धन लेकर वापिस चले आओ ।"
चारों युवक हाथों में दीपक लेकर चल पड़े । कुछ दूर जाने के बाद उन में से एक के हाथ का दीपक भूमि पर गिर पड़ा । उस भूमि को खोदने पर उन्हें ताम्रमयी भूमि मिली । वह तांबे की खान थी । उसने कहा----"यहाँ जितना चाहो, ताँबा ले लो ।" अन्य युवक बोले ---"मूर्ख ! ताँबे से दरिद्रता दूर नहीं होगी । हम आगे बढ़ेंगे । आगे इस से अधिक मूल्य की वस्तु मिलेगी ।"
उसने कहा---"तुम आगे जाओ, मैं तो यहीं रहूँगा ।" यह कहकर उसने यथेष्ट ताँबा लिया और घर लौट आया ।
शेष तीनों मित्र आगे बढ़े । कुछ़ दूर आगे जाने के बाद उन में से एक के हाथ का दीपक जमीन पर गिर पड़ा । उसने जमीन खोदी तो चाँदी की खान पाई । प्रसन्न होकर वह बोला---"यहाँ जितनी चाहो चाँदी ले लो, आगे मत
जाओ ।" शेष दो मित्र बोले---"पीछे़ ताँबे की खान मिली थी, यहाँ चाँदी की खान मिली है; निश्चय ही आगे सोने की खान मिलेगी । इसलिये हम तो आगे ही बढ़ेंगे ।" यह कहकर दोनों मित्र आगे बढ़ गये ।
उन दो में से एक के हाथ से फिर दीपक गिर गया । खोदने पर उसे सोने की खान मिल गई । उसने कहा---"यहाँ जितना चाहो सोना ले लो । हमारी दरिद्रता का अन्त हो जायगा । सोने से उत्तम कौन-सी चीज है । आओ, सोने की खान से यथेष्ट सोना खोद लें और घर ले चलें ।" उसके मित्र ने उत्तर दिया---"मूर्ख ! पहिले ताँबा मिला था, फिर चाँदी मिली, अब सोना मिला है; निश्चय ही आगे रत्नों की खान होगी । सोने की खान छो़ड़ दे और आगे चल ।" किन्तु, वह न माना । उसने कहा---"मैं तो सोना लेकर ही घर चला जाऊँगा, तूने आगे जाना है तो जा ।"
अब वह चौथा युवक एकाकी आगे बढ़ा । रास्ता बड़ा विकट था । काँटों से उसका पैर छ़लनी हो गया । बर्फी़ले रास्तों पर चलते-चलते शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, किन्तु वह आगे ही आगे बढ़ता गया ।
बहुत दूर जाने के बाद उसे एक मनुष्य मिला, जिसका सारा शरीर खून से लथपथ था , और जिसके मस्तक पर चक्र घूम रहा था । उसके पास जाकर चौथा युवक बोला---"तुम कौन हो ? तुम्हारे मस्तक पर चक्र क्यों घूम रहा है ? यहाँ कहीं जलाशय है तो बतलाओ, मुझे प्यास लगी है ।"
यह कहते ही उसके मस्तक का चक्र उतर कर ब्राह्मणयुवक के मस्तक पर लग गया । युवक के आश्चर्य की सीमा न रही । उसने कष्ट से कराहते हुए पूछा---"यह क्या हुआ ? यह चक्र तुम्हारे मस्तक से छूटकर मेरे मस्तक पर क्यों लग गया ?"
अजनबी मनुष्य ने उत्तर दिया---"मेरे मस्तक पर भी यह इसी तरह अचानक लग गया था । अब यह तुम्हारे मस्तक से तभी उतरेगा जब कोई व्यक्ति धन के लोभ में घूमता हुआ यहाँ तक पहुँचेगा और तुम से बात करेगा ।"
युवक ने पूछा---"यह कब होगा ?"
अजनबी----"अब कौन राजा राज्य कर रहा है ?"
युवक---"वीणा वत्सराज ।"
अजनबी---"मुझे काल का ज्ञान नहीं । मैं राजा राम के राज्य में दरिद्र हुआ था, और सिद्धि का दीपक लेकर यहाँ तक पहुँचा था । मैंने भी एक और मनुष्य से यही प्रश्न किये थे, जो तुम ने मुझ से किये हैं ।"
युवक ---"किन्तु, इतने समय में तुम्हें भोजन व जल कैसे मिलता रहा ?"
अजनबी ---"यह चक्र धन के अति लोभी पुरुषों के लिये बना है । इस चक्र के मस्तक पर लगने के बाद मनुष्य को भूख, प्यास, नींद, जरा, मरण आदि नहीं सताते । केवल चक्र घूमने का कष्ट ही सताता रहता है । वह व्यक्ति अनन्त काल तक कष्ट भोगता है ।"
यह कहकर वह चला गया । और वह अति लोभी ब्राह्मण युवक कष्ट भोगने के लिए वहीं रह गया । थोड़ी देर बाद खून से लथपथ हुआ वह इधर-उधर घूमते-घूमते उस मित्र के पास पहुँचा जिसे स्वर्ण की सिद्धि हुई थी, और जो अब स्वर्ण-कण बटोर रहा था । उससे चक्रधर ब्राह्मण युवक ने सब वृत्तान्त कह सुनाया । स्वर्ण-सिद्धि युवक ने चक्रधर युवक को कहा कि---"मैंने तुझे आगे जाने से रोका था । तू ने तब मेरा कहना नहीं माना । बात यह है कि तुझे ब्राह्मण होने के कारण विद्या तो मिल गई, कुलीनता भी मिली; किन्तु भले बुरे को परखने वाली बुद्धि नहीं मिली । विद्या की अपेक्षा बुद्धि का स्थान ऊँचा है । विद्या होते हुए जिनके पास बुद्धि नहीं होती, वे सिंहकारकों की तरह नष्ट हो जाते हैं ।"
चक्रधर ने पूछा़---"किन सिंहकारकों की तरह ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब अगली कथा सुनाई---