एक जङगल में चंडकर्मा नाम का राक्षस रहता था । जङगल में घूमते-घूमते उसके हाथ एक दिन एक ब्राह्मण आ
गया ।
वह राक्षस ब्राह्मण के कन्धे पर बैठ गया । ब्राह्मण के प्रश्न करने पर वह बोला----"ब्राह्मण ! मैंने व्रत लिया हुआ है । गीले पैरों से मैं ज़मीन को नहीं छू सकता । इसीलिए तेरे कन्धों पर बैठा हूँ ।"
थोड़ी दूर पर जलाशय था । जलाशय में स्नान के लिये जाते हुए राक्षस ने ब्राह्मण को सावधान कर दिया कि---"जब तक मैं स्नान करता हूँ, तू यहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा कर ।" राक्षस की इच्छा़ थी कि वह स्नान के बाद ब्राह्मण का वध करके उसे खा जायगा । ब्राह्मण को भी इसका सन्देह हो गया था । अतः ब्राह्मण अवसर पाकर वहाँ से भाग निकला । उसे मालूम हो चुका था कि राक्षस गीले पैरों से ज़मीन नहीं छू सकता, इसलिये वह उसका पीछा़ नहीं कर सकेगा ।
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ब्राह्मण यदि राक्षस से प्रश्न न करता तो उसे यह भेद कभी मालूम न होता । अतः मनुष्य को प्रश्न करने से कभी चूकना नहीं चाहिये । प्रश्न करने की आदत अनेक बार उसकी जीवन-रक्षा कर देती है ।
स्वर्णसिद्धि ने कहानी सुनकर कहा----"यह तो ठीक ही है । दैव अनुकूल हो तो सब काम स्वयं सिद्ध हो जाते हैं । फिर भी पुरुष को श्रेष्ठ मित्रों के वचनों का पालन करना ही चाहिये । स्वेच्छाचार बुरा है । मित्रों की सलाह से मिल-जुलकर और एक दूसरे का भला चाहते हुए ही सब काम करने चाहियें । जो लोग एक दूसरे का भला नहीं चाहते और स्वेच्छया सब काम करते हैं, उनकी दुर्गति वैसी ही होती है जैसी स्वेच्छाचारी भारण्ड पक्षी की हुई थी ।
चक्रधर ने पूछा़---"वह कैसे ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब यह कथा सुनाई----