धर्मशास्त्रानुसार विशेष बातें

व्रत हिंदू संस्कृति एवं धर्मके प्राण है;व्रतोंपर वेद, धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वेदाङ्गोंमें बहुत कहा गया है ।


कुछ विशेष बातें धर्मशास्त्रोंसे जानी जा सकती है । व्रतोंमें बहुत-से व्रत ऐसे हैं जो व्रत, पूजा और दान- तीनोंके सहयोगसे सम्पन्न होते हैं । उनके विषयके कुछ आवश्यक वाक्य यहाँ देते हैं ।

१. शान्तः सन्तः सुशीलश्च सर्वभूतहिते रतः ।
क्रोधं कर्तुं न जानाति स वै ब्राह्मण उच्यते ॥
(धन्वन्तरि)
सरल भावार्थ - 'ब्राह्मण' शान्त, संत, सुशील, अक्रोधी और प्राणिमात्रका हित करनेवाला श्रेष्ठ होता है ।
२. अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव पालनम् ।
आतिथ्यं वैश्वदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते ॥
(अंगिरा)
सरल भावार्थ - 'ब्राह्मणके कर्म' अग्निहोत्र, तपश्चर्या, सत्यवाक्य, वेदाज्ञाका पालन, अतिथि-सत्कार और वैश्वदेव-साधन मुख्य है ।
३. कार्पासक्षौमगोबालशणवल्कतृणादिभिः । (हरिहरभाष्य)
वामावर्तं त्रिगुणितं कृत्वा प्रदक्षिणावर्तं नवगुणं विधाय तदेवं त्रिसरं कृत्वा ग्रन्थिं विदध्यात् । (ह० ह०)
सरल भावार्थ - 'यज्ञोपवीत' त्रैवर्णिकोंके और विशेषकर ब्राह्मणोंके स्वरूपज्ञानका आदर्श और धर्म-कर्मादिका साधन है । यह सूत,
रेशम, गोबाल (सुरगौके रोम), सन, वल्कल और तृणपर्यन्तसे निर्माण किया जाता है । इनसे बने हुए यज्ञोपवीत कार्यानुसार
उपयुक्त होते है । सूतका सर्वप्रधान है । उसके बनानेके लिये सूतके धागेको वामावर्तसे तिगुना करके दक्षिणावर्तसे नौगुना करे और उसे त्रिसर बनाकर गॉंठ लगावे ।
४. यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
(ब्रह्मकर्म०)
एतावाद्दिनपर्यन्त ब्रह्म त्वं धारितं मया ।
जीर्णत्वात् त्वं परित्यक्तो गच्छ सूत्र यथासुखम् ॥ (आह्निक)
सरल भावार्थ - 'यज्ञोपवीत' धारण करते समय 'यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं' का उच्चारण करे और विसर्जनके समय
'एतावद्दिनपर्यन्तं०' से क्षमा मांगे । बायें कंधेपर यज्ञोपवीत रहनेसे सव्य और दायेंपर रहनेसे अपसव्य होता है तथा दोनोंकेबदले गलेमें रहनेसे कण्ठीवत हो जाता है । मूत्रादिके त्यागनेमें इसे कर्णस्थ रखना आवश्यक है और इसके बिना मल-मूत्रका त्याग करना निषिद्ध माना गया है ।
५. सूतके मृतके चैव गते मासचतुष्टये ।
नवयज्ञोपवीतानि धृत्वा पूर्वाणि संत्यजेत् ॥
(मुक्तक)
सरल भावार्थ - 'यज्ञोपवीत' को स्वाभाविक रूपमें बायें कंधेके ऊपर और दाहिने हाथके नीचे नाभितक लटकाये रखना चाहिये । नित्य-कर्मादिमें दो वस्त्र (धोती और गमछा) एवं दो यज्ञोपवीत (एक नित्यका और एक कार्यका) रखना चाहिये । यदि गमछा न हो तो तीन यज्ञोपवीत होने चाहिये । धारण किये हुए यज्ञोपवीतको चार मास हो जायॅं या जन्म-मरणादिका सूतक आ जाय तो उसे बदल देना चाहिये ।
६. हैमो वा राजतस्ताम्रो मृण्मयो वापि ह्यव्रणः । (कर्मप्रदीप)
सरल भावार्थ - 'कलश' सोने, चांदी, तांबे या (छेदरहित) मिट्टीका और सुदृढ़ उत्तम माना गया है । वह मङ्गलकार्योंमें मङ्गलकारी होता है ।
७. प्रवाहितं ब्रह्मतोयं क्षात्रतोयं सरोवरम् ।
कूपोदकं वैश्यतोयं गृहभाण्डेषु शूद्रवत् ॥
(मुक्तक)
सरल भावार्थ - 'जल' नदी आदिका बहता हुआ 'ब्राह्मण', सरोवर आदिका बंधा हुआ 'क्षत्रिय', कूपादिका ढॅंका हुआ 'वैश्य' और घरके बर्तनोंमें रखा हुआ 'शूद्र' वर्ण माना गया है । अतः व्रतोपवासादिमें पवित्र जल लेना आवश्यक है ।
८. पयो दधि घृतं गव्यं दुग्धत्रितयमिष्यते । (गौतम)
सरल भावार्थ - 'दुग्धत्रितय' में दूध, दही और घी है । ये गौकें उत्तम, महिषीके मध्यम और बकरी आदिके निकृष्ट होते है । रोगादिमेम यथायोग्य सब उपयोगी है ।
९. आज्यं क्षीरं मधु तथा मधुरत्रयमुच्यते । (कात्यायन)
सरल भावार्थ - 'मधुरत्रय' में घी, दूध और शहद मुख्य है ।
१०. दधिमधुघृतानि विषमभागमिलितानि मधुपर्कः । (कर्मप्रदीप)
सरल भावार्थ - 'मधुपर्क' दही एक भग, शहद दो भाग और घी एक भाग मिलानेसे होता है ।
११.प्रातर्मध्याह्नसायाह्नास्त्रयः कालाः । (श्रुति)
सरल भावार्थ - 'कालत्रय' प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल है ।
१२. पञ्च पञ्च उषःकालः सप्तपञ्चारुणोदयः ।
अष्ट पञ्च भवेत् प्रातस्ततः सूर्योदयः स्मृतः ॥
(विष्णु)
सरल भावार्थ - 'कालचतुष्टय- रात्रि व्यतीत होते समय ५५ घड़ीपर 'उषःकाल', ५७ पर 'अरुणोदय', ५८ पर 'प्रातःकाल' और ६० पर 'सूर्योदय' होता है । इसके पहले पांच घडीका 'ब्राह्ममुहूर्त्त' ईश्वर-चिन्तनका है ।
१३. ऋग्यजुःसामाथर्वाणि ।
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं शिल्पकं तथा ॥
(मुक्तक)
सरल भावार्थ - 'वेद ऋक्, यजुः, साम और अथर्व - ये चार वेद है । 'उपवेद आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व और स्थापत्य - ये उनके यथाक्रम उपवेद और ईति, धृति, शिवा और शक्ति-ये योषिता है ।
१४. कर्पूरं चन्दनं दर्पः कुङ्कुमं च चतुःसमम् । (गृह्यपरिशिष्ट)
सरल भावार्थ - 'चतुःसम' - कपूर, चन्दन, कस्तूरी और केसर- ये चारों समान भागमें होनेपर 'चतुःसम' कहलाते है ।
१५. ब्रह्मक्षत्रियविट्‌शूद्राः सुप्रसिद्धाः ।
सरल भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये चार वर्ण 'चातुर्वर्ण्य' है ।
१६. आदित्यो गणनाथश्च देवी रुद्रश्च केशवः । (वाचस्पति)
सरल भावार्थ - 'पञ्चदेव' - सूर्य, गणेश, शक्ति, शिव और विष्णु आराध्य है । इनकी गणना विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य और शक्ति
इस क्रमसे भी की जाती है । इनकी प्रदक्षिणामें एक गणेशजीके, दो सूर्यके, तीन शक्तिके, चार विष्णुके और आधी शिवके नियत है ।
१७. गन्धपुष्पे धूपदीपौ नैवेद्यं पञ्च ते क्रमात् ॥ (जाबालि)
सरल भावार्थ - 'पञ्चोपचार' - गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करनेसे पञ्चोपचार पूजा होती है ।
१८. भागीरथी समाख्याता यमुना च सरस्वती ।
किरणा धूतपापा च पञ्चनद्यः प्रकीर्तिताः ॥
(वाचस्पति)
सरल भावार्थ - 'पञ्चनदी' - भागीरथी, यमुना, सरस्वती, गोदावरी और नर्मदा- ये पांच मुख्य नदियॉं है ।
१९. अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षचूतन्यग्रोधपल्लवाः । (ब्रह्माण्डपुराण)
सरल भावार्थ - 'पञ्चपल्लव' - पीपल, गूलर, अशोक (आशोपालो), आम और वट- इनके पत्ते पञ्चपल्लव है ।
२०. चम्पकाम्रशमीपद्म करवीरं च पञ्चमम् । (देवीपुराण)
सरल भावार्थ - 'पञ्चपुष्प' - चमेली, आम, शमी (खेजड़ा), पद्म (कमल) और करवीर (कनेर) के पुष्प-पञ्चपुष्प है ।
२१. चूर्णीकृतो वा घृष्टो वा दाहकर्षित एव वा ।
रसः सम्मर्दजो वापि प्राण्यङ्गोद्भव एव वा ।
(कालीपुराण)
सरल भावार्थ - 'पज्चगन्ध' - चूर्ण किया हुआ, घिसा हुआ, दाहसे खींचा हुआ, रससे मथा हुआ और प्राणीके अङ्गसे पैदा हुआ (कस्तूरी) ये पञ्चगन्ध है ।
२२. गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । (पाराशर)
ताम्रारुणश्वेतकृष्णनीलानामाहरेद् गवाम् । (वीरमित्रोदय- स्कन्दपुराण)
अष्ट षोडश अर्कांशा दश अष्ट क्रमेण च । (नृसिंह)
गायत्र्या गन्धद्वारां च आप्यायदधिक्रावणः ।
तेजोऽसिशुक्रमन्त्रैश्च पञ्चगव्यमकारयेत् ॥
(स्कन्द)
यत् त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके ।
प्राशनात् पञ्चगव्यस्य दहत्वग्निरेविन्धनम् ॥
(ब्रह्मकर्म)
सरल भावार्थ - 'पञ्चगव्य' तांबेके वर्ण जैसी गौका गोमूत्र 'गायत्री' से ८ भाग, लाल गौका गोबर 'गन्धद्वारां० से १६ भाग; सफेद गौका दूध 'आप्यायस्व०' से १२भाग, काली गौका दही 'दधि क्राव्णो०' से १० भाग और नीली गौका घी 'तेजोऽसि शुक्र० से ८ भाग लेकर मिलाने और फिर उन्हें छान लेनेसे पञ्चगव्य होता है । इस प्रकारसे तैयार किये हुए पञ्चगव्यको 'यत्‌ त्वगस्थिगतं पापं०' से तीन बार पीवे, तो देहके सम्पूर्ण पाप-ताप, रोग और वैर-भाव नष्ट हो जाते है ।
२३. गव्यमाज्यं दधि क्षीरं माक्षिकं शर्करान्वितम् । (धन्वन्तरि)
सरल भावार्थ - 'पञ्चामृत' -गौके दुध, दही और घीमें चीनी और शहद मिलाकर छाननेसे पञ्चामृत बनता है और इसका यथाविधि उपयोग करनेसे शान्ति मिलती है ।
२४. कनकं हीरकं नीलं पद्मरागश्च मौक्तिकम् । (बृहन्निघण्टु)
सरल भावार्थ - 'पञ्चरत्न' -सोना, हीरा, नीलमणि, पद्मराग और मोती- ये पांच रत्न है ।
२५. तिथिवारं च नक्षत्रं योगं करणमेव च ।
पञ्चाङ्गमिति विख्यातं......
(धर्मसार)
सरल भावार्थ - 'पञ्चाङ्ग' तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करणका ज्ञापक है । इससे व्रतादि निश्चय होते है ।
२६. स्नानं संध्या जपो होमः स्वाध्यायो देवतार्चनम् ।
वैश्वदेवातिथेयश्च षट् कर्माणि..........॥
(पराशर)
सरल भावार्थ - 'षट्‍कर्म'४ -१-स्नान, २- संध्या-जप, ३-होम, ४- पठन-पाठन, ५- देवार्चन, ६- वैश्वदेव तथा अतिथि-सत्कार- ये छःकर्म है । द्विजातिमात्रके लिये इनका करना परम आवश्यक है ।
२७. वक्षः शिरः शिखा बाहू नेत्रम्‍ अस्त्राय फट् इति । (मुक्तक)
सरल भावार्थ - 'षडङ्ग'- ह्रदय, मस्तक, शिखा, दोनो नेत्र, दोनों भुजा और परस्पर कर-स्पर्श षडङ्ग है ।
२८. शिक्षाकल्पव्याकरणनिरुक्तच्छन्दोज्योतींषि वेदषडङ्गानि । (कारिका)
सरल भावार्थ - 'वेद - षडङ्ग' - कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, शिक्षा और ज्यौतिष- ये छः शास्त्र वेदके अङ्ग है ।
२९. कश्यपोऽथ भरद्वाजो गौतमश्चात्रिरेव च ।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रो.....॥
(वाचस्पति)
सरल भावार्थ - 'सप्तर्षि' - कश्यप, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, जमदग्नि, वसिष्ठ और विश्वामित्र - ये सप्तर्षि है ।
३०. पितृर्मातुश्च भार्याया भगिन्या दुहितुस्तथा ।
पितृष्वसामातृष्वस्त्रोर्गोत्रानां सप्तकं स्मृतम् ।
(धाता)
सरल भावार्थ - 'सप्तगोत्र' - पिता, माता, पत्नी, बहिन, पुत्री, फूआ और मौसि- ये सात गोत्र (कुटुम्ब) है ।
३१. गजाश्वरवल्मीकसङ्गमाद्‌ध्रदगोकुलात् ।
राजद्वारप्रवेशाच्च मृदमानीय निःक्षिपेत् ॥
(स्मृतिसङ्‌ग्रह)
सरल भावार्थ - 'सप्तमृद्' - हाथ-घोड़ेके चलनेका रास्ता, संकुचित मार्ग, दीमक, सरिता-सङ्गम, गोशाला और राजद्वारमें प्रवेश करनेकी जगह-इन स्थानोंकी मृत्तिका सप्तमृद्‌ है ।
३२. यवगोधूमधान्यानि तिलाः कङ्गुस्तथैव च ।
श्यामाकं देवधान्यं च सप्तधान्यमुदाह्रतम् ॥
(स्मृत्यन्तर)
सरल भावार्थ - 'सप्तधान्य' - जौ, गेहूं, धान, तिल, कांगनी, श्यामाक (सावां) और देवधान्य-ये सप्तधान्य है ।
३३. सुवर्णं राजतं ताम्रमारकूटं तथैव च ।
लौहं त्रपु तथा सीसं धातवः सप्त कीर्तिताः ॥
(भविष्यपुराण)
सरल भावार्थ - 'सप्तधातु' - सोना, चांदी, तांबा, आरकूट, लोहा, राँगा और सीसा- ये सप्तधातु है ।
३४. दधिदूर्वाकुशाग्रैश्च कुसुमाक्षतकुङ्कुमैः ।
सिद्धार्थोदकपूगैश्च अष्टाङ्ग ह्यर्घ्यमुच्यते ॥
(पूजापद्धति)
सरल भावार्थ - 'अष्टाङ्ग अर्घ्य - जल, पुष्प, कुशाका अग्रभाग, दही, अक्षत, केसर, दूर्वा और सुपारी- इन आठ पदार्थोंसे अर्घ्य सम्पादन किया जाता है ।
३५. कार्पासं लवणं सर्पिः सप्तधान्यं सुवर्णकम् ।
लौहं चैव क्षितिर्गावो महादानानि चाष्ट वै ॥
(दानखण्ड)
सरल भावार्थ - 'अष्ट' महादान' - कपास, नमक, घी, सप्तधान्य, सुवर्ण, लौह, पृथ्वी और गौ- ये महादान है ।
३६. माणिक्यं मौक्तिकं चैव प्रवालं हेम पुष्पकम् ।
वज्रं नीलं च गोमेदं वैदूर्यं नवरत्नकम् ॥
(दानखण्ड)
सरल भावार्थ - 'नवरत्न' - माणिक, मोती, मूंगा, सुवर्ण, पुखराज, हीरा, इन्द्रनील, गोमेद और वैदूर्यमणि - ये नवरत्न है । इनके धारण करने या दान देनेसे सूर्यादिकी प्रसन्नता बढ़ती है ।
३७. कुष्टं मांसी हरिद्रे द्वे मुरा शैलेयचन्दनम् ।
वचाचम्पकभुस्ताश्च सर्वोषध्यो दश स्मृताः ॥
(छन्दोगपरिशिष्ट)
सरल भावार्थ - 'दशौषधि' - कूट, जटामांसी, दोनों हलदी, मुरा, शिलाजीत, चन्दन, बच, चम्पक और नागरमोथा - ये दस द्रव्य सर्वौषधिके है ।
३८. गोभूतिलहिरण्याज्यवासोधान्यगुडानि च ।
रौप्यं लवणमित्याहुर्दश दानान्यनुक्रमात् ॥
(कर्मसमुच्चय)
सरल भावार्थ - 'दस दान' - गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी और लवण - ये दस दान है ।
३९. दूरस्थं जलमध्यस्थं धावन्तं मदगर्वितम् ।
क्रोधवन्तं चाशुचिकं नमस्कारं विवर्जयेत् ॥
पुष्पहस्तो वारिहस्तस्तैलाभङ्गो जलस्थितः ।
आशीःकर्त्ता नमस्कर्ता उभयोर्नरकं भवेत ॥
(कर्मलोचनं)
सरल भावार्थ - 'नमस्कार' - अभिवादनके समय जो मनुष्य दुर हो, जलमें हो, दौड रहा हो, धनसे गर्वित हो, नहाता हो, मूढ़ हो
या अपवित्र हो तो ऐसी अवस्थामें उसे नमस्कार नहीं करना चाहिये । अस्तु ।

इस प्रकारके आचार-विचार, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ और हरिस्मरण- ये सब स्वर्गीय सुख प्राप्त होनेके प्रधान साधन है ।
यक्षकर्दम - कर्पूरागरुकस्तूरीकङ्कोलैर्यक्षकर्दमः । (अमरकोश)
'यक्षकर्दम' - कस्तुरिकाया द्वौ भागौ द्वौ भागौ कुङ्कुमस्य च ॥
चन्दनस्य त्रयो भागाः शशिनस्त्वेक एव हि ।
(प्रतिष्ठाप्रकाश)
सरल भावार्थ - 'यक्षकर्दम' - व्रतादिमें पञ्चगव्यादिके समान इसका भी उपयोग होता है । यह दो प्रकारसे बनता है । एक केशर, अगर, कस्तूरी और कंकोल- इन चार औषधियोंके समान भाग लेकर कर्दम बनावे । दूसरेमें कस्तूरी २ भाग, केशर २ भाग, चन्दन ३ भाग और हरिद्रा १ भाग लेकर कर्दम बनावे ।
('शतकर्दम- शान्तिसारादिमें शतौषधि (सौ ओषधियों) के नाम बताये है । उन्हींसे शतकर्दम बनता है । सौ कर्णिकाका कमल-पुष्प होता है । मतान्तरमें उसीको शतकर्दम बतलाया है ।)
अहोरात्रोषितो भूत्वा पौर्णमास्यां विशेषतः ।
पञ्चगव्यं पिबेत्प्रातर्ब्रह्मकूर्चविधिः स्मृतः ॥
(प्रायश्चित्तविवेक)
सरल भावार्थ - 'ब्रह्मकूर्च' - यज्ञादिमें पञ्चगव्यादिका हवन ब्रह्मकूर्चसे ही किया जाता है । यह आगेके भागमें गाँठवाली सात हरी दर्भा (दाभ) से बनता है ।

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Last Updated : January 22, 2014

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