मुनियों ने पूछा: भगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।
व्यास जी बोले: मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।
अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।
मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।
जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।
मुनियों ने पूछा: द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।
व्यास जी बोले: ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर 'ये समानाः समनसः' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।
ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।
श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।
'देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः॥' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।
मुनियों ने पूछा: ब्रह्मन ! जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।
व्यास जी बोले: पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।
मुनियों ने पूछा: विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।
व्यास जी बोले: पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।