श्राद्ध की विधि, विहित और निषिद्ध ब्राह्मण तथा मन्वादि एवं युगादी पुण्यतिथियों का वर्णन
आनर्त ने पूछा: मुनीश्वर ! सब मनुष्यों को किस विधि से श्राद्ध करना चाहिए ?
भर्तृयज्ञ ने कहा: उत्तम कर्मो द्वारा उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना उचित है । छल-कपट, चोरी और ठगी से कमाए हुए धन से कदापि श्राद्ध न करें । अपने वर्णोचित वृत्ति के द्वारा उपार्जित धन से श्राद्ध के लिए सामग्री एकत्र करें । पहले संध्याकाल आने पर काम-क्रोध से रहित एवं पवित्र हो श्राद्धकर्म के योग्य श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यपरायण ब्राह्मणो को निमंत्रित करें । उनके अभाव में ब्रह्मज्ञानपरायण, अग्निहोत्री, वेदविद्या में निपुण गृहस्थ ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । जिनका कोई अंग विकल न हो, जो निरोग, आहार पर संयम रखनेवाले तथा पवित्र हों, ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध के योग्य बताये गए हैं ।
जो किसी अंग से हीन हो या जिनका कोई अंग अधिक हो, जो सर्वभक्षी हों, निकले गए हो, जिनके दांत काले हों या जिनके दांत गिर गए हों, जो वेद बेचनेवाले और यञवेदी को नष्ट करनेवाले हों, जिनमें वेद-शास्त्रों का ज्ञान न हो, जिनके नख ख़राब हो गए हों, जो रोगी, निर्धन, दूसरों की हिंसा करनेवाले, दुसरे लोगों पर लांछन लगनेवाले, नास्तिक, नाचनेवाले, सूदखोर, बुरे कर्मो में संलग्न, शौचाचार से शून्य, अत्यंत लम्बे, अति दुर्बल, बहुत मोठे, अधिक रोमवाले तथा रोमरहित हों ऐसे ब्राह्मणो को श्राद्ध में त्याग दे । जो पितरों का गौरव रखना चाहे, उसे ऐसा अवश्य करना चाहिए । जो परायी स्त्री में आसक्त, शूद्रजातीय स्त्री से संपर्क रखनेवाले, नपुंसक, मलिन, चोर, क्षत्रिय तथा वैश्य की वृत्ति वाले, माता-पिता का त्याग करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, निर्दोष पत्नी को छोड़नेवाले, कृतघ्न, खेती करनेवाले, शिल्प से जीविका चलनेवाले, भाला बेचकर या भाला चलकर जीववाले, चमड़े के व्यापार से जीवन-निर्वाह करनेवाले तथा अज्ञात कुलवाले हों ऐसे ब्राह्मणो को भी श्राद्ध में त्याग देना चाहिए ।
अब उन ब्राह्मणो का परिचय देता हूँ, जो श्राद्धकार्य में प्रशस्त माने गए हैं । त्रिणाचिकेत( नाचिकेत नामक विविध अग्नि का सेवन करनेवाले), 'मधुवाता' आदि तीन ऋचाओं का जप करनेवाले, छहों अंगो के ज्ञाता, त्रिसुपर्ण नामक ऋचाओं का पाठ करनेवाले, विद्या एवं व्रत को पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हों, धर्मद्रोण(धर्मशास्त्र) के पाठक, पुराणवेत्ता, ग्यानी, ज्येष्ठमास के ज्ञाता, अथर्वशीर्ष के विद्वान्, ऋतुकाल में अपनी पत्नी के साथ सहवास करनेवाले, उत्तम कर्मपरायण, सद्यःप्रक्षालक(तत्काल पात्र धो डालने वाले अर्थात एक ही समय के लिए अन्न संग्रह करने वाले ), शुक्ल, पुत्री के पुत्र, दामाद, भांजे, परोपकारी, मिष्ठान्न खाने वाले और पचने में समर्थ, मीठे वचन बोलनेवाले एवं सदा जप में तत्पर रहनेवाले - ये सभी ब्राह्मण पंक्तिपावन जानने चाहिए । ये पितरों के तृप्ति करते हैं । इसलिए थोड़ी विद्यावाले होने पर भी कुल और अचार में जो श्रेष्ठ हों, उन्ही को श्राद्ध में नियुक्त करना चाहिए ।
इस प्रकार ब्राह्मणो का ज्ञान करके सवयभाव से उनके चरणों का स्पर्श करते हुए प्रणाम करें और विश्वेदेव श्राद्ध के लिए दो ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । दाहिना घुटना पृथ्वी पर टेककर इस मन्त्र का उच्चारण करें -
आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।
भक्त्याहूता मया चैव त्वम् चापि व्रतभाग्भव॥
मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक बुलाये हुए परम सौभाग्यशाली महाबली विश्वदेवगण इस श्राद्धकर्म में पधारें और हे ब्राह्मणदेव ! आप भी व्रत के भागी, क्रोधरहित, शौचपरायण तथा ब्रह्मचर्यपालक हों ।
निमंत्रित ब्राह्मणो को उस दिन विशेष संयम से रहना चाहिए । यजमान भी शांतचित्त और ब्रह्मचर्य युक्त रहे । वह रात बीत जाने पर प्रातः काल शयन से उठकर मनुष्य दिनभर किसी पर क्रोध न करे। उस दिन स्वाध्याय बंद रखे और आने द्वारा कोई कुत्सित कर्म न होने दे। तेल लगाना, परिश्रम करना, सवारी या वाहन आदि को दूर से ही त्याग दे।
जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण ह्रदय से स्नान करके पितरों के लिए दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधक होता है, उनका वर्णन करता हूँ - आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रवण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएं - ये मन्वादि तिथियां कही गयी हैं ।
इनमें स्नान करने से जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । कार्तिक शुक्ल नवमी तथा वैशाख शुक्ला तृतीया, माघ की अमावस्या और श्रवण की तृतीया - ये क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियां हैं । ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि करने पर अक्षयपुण्य उत्पन्न करने वाली महान फल देनेवाली होती हैं । जब सूर्य मेषराशि अथवा तुलाराशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक 'विषुव' नामक योग होता है । जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय 'अयन' नामक काल होता है । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना 'संक्रान्ति' कहलाता है । ये सब स्नान, दान, जप,होम आदि का महान फल देने वाले हैं । इस प्रकार संक्रान्ति और युगादि तिथियों का वर्णन किया गया । इनमें दी गयी वस्तु का पुण्य अक्षय होता है ।