श्राद्धकर्म -३

श्राद्ध ग्रहण करनेवाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं ।


आनर्तनरेश ने कहा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावस्या को ही विशेष रूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांति काल, व्यतिपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयो में पितरों कि तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्रद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का उपदेश किया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित होकर सुनो । सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनो लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम 'अमावस्या' है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बताई गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।
अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक तथा नान्दीमुख - ये नौ दिव्य पितर बताये गए हैं ।  आदित्य, वसु, रूद्र और दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं । ये पितृगण ब्रह्मा जी के समान बताये गए हैं; अतः पद्मयोनि ब्रह्मा जी उन्हें तृप्त करने के पश्चात सृष्टिकार्य आरम्भ करते हैं ।
इनके सिवा दुसरे भी ऐसे मर्त्य-पितर होते हैं, जो स्वर्गलोक में निवास करते हैं । वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दुसरे दुखी ।  मर्त्यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं, वे सभी वहां हर्ष में भरकर वहां देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं । जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्यास से व्याकुल और दुखी देखे जाते हैं । एक समय कि बात है, अग्निष्वात आदि सभी पितर देवराज इन्द्र के पास गए । महाराज इन्द्र उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया । इसके बाद जब वे देवदुर्लभ पितृलोक जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्यपितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों तथा पितरों को संतुष्ट करनेवाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले - 'सुव्रतों ! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?

मर्त्यपितर बोले - दिव्य पितृगण ! हम मनुष्यों के पितर हैं । अपने कर्मो द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते हैं परन्तु यहाँ हमें अत्यंत भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है । जान पड़ता है हम आग में जल रहे हैं । यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं । सबमें फल लगे हुए हैं, परन्तु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर जोर से खींचते हैं, तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते । प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता । इस स्वर्गलोक में कोई खाता पीता नहीं दिखाई देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिए भयंकर हो गया है । यहाँ जो देवता या गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं, इन्हें भूख प्यास का कष्ट नहीं है । ये अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न हैं । क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ? भूख प्यास के कष्ट से रहित हो परम संतोष पा सकेंगे ।

दिव्यपितरों ने कहा: इन्द्र आदि केवल दुसरे दुसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों कि ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है । उस समय हम वहां से आकर देवताओं से कहते हैं, प्रार्थना करते हैं । उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध-तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है । इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिए श्राद्ध का दान देते हैं, उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त होओगे ? अब प्रमादी वंशज, पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उसके कष्ट का तो कहना ही क्या है ?
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्यपितरों को साथ ले ब्रह्मा जी के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूछा । तब ब्रह्मा जी ने कहा - 'पितरों ! यदि मनुष्य, पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुम्हें सनातन तृप्ति प्राप्त होगी । अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (पितृपक्ष/महालय) में जो मनुष्य तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एकवर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी ।  यदि मनुष्य गयाशीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से तुम सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाओगे ।

भर्तृयज्ञ कहते हैं: राजन ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे । इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गयाशीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिए । जो मनुष्य श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुखी होते हैं । मन ही मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे पितृपक्ष की प्रतीक्षा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात-दिन वर्षा की राह देखते हैं । पितृपक्ष बीत जाने पर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक सूर्य कन्याराशि पर रहते हैं, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं । उसके भी बीत जाने पर पितर तुलाराशि के सूर्य तक पूरे कार्तिकमास में अपने वंशजो द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं । जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं । राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं । अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए । कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावस्या में अवश्य करें । वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है ।

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Last Updated : May 08, 2024

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