अखंडध्याननाम - ॥ समास सातवां - युगधर्मनिरूपणनाम ॥

‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
नाना वेष नाना आश्रम । सब का मूल गृहस्थाश्रम । जहां पाते विश्राम । त्रैलोक्यवासी ॥१॥
देव ऋषि मुनि योगी । नाना तपस्वी वीतरागी । पितृआदि कर विभागी । अतिथि अभ्यागत ॥२॥
गृहस्थाश्रम में निर्माण हुये । अपना आश्रम स्थापित किये । परंतु गृहस्थ गृहों में भटकने लगे । कीर्तिरूप में ॥३॥
इस कारण गृहस्थाश्रम । सभी में उत्तमोत्तम । परंतु चाहिये स्वधर्म । और भूतदया ॥४॥
जहां षट्कर्म होते । विधियुक्त क्रिया का आचरण करते । वाक्माधुर्य से बोलते । प्राणिमात्रों से ॥५॥
सभी प्रकार से नेमक । शास्त्रोक्त करना कुछ एक । उनमें भी अलौलिक । वह यह भक्तिमार्ग ॥६॥
पुरश्चरणों में कायाक्लेशी । दृढव्रती परम सायासी । जगदीश से अलग नहीं। जिसके लिये महान ॥७॥
काया वाचा जीव प्राण । से कष्ट करे भगवंत के कारण । मन में करे दृढ धारण । भजन मार्ग ॥८॥
ऐसा भगवंत का भक्त । विशेष अंतरंग से विरक्त । संसार त्यागकर हुआ मुक्त । देव के कारण ॥९॥
अंतरंग से वैराग्य । उसे ही जानें महद्भाग्य । लोलुपता समान अभाग्य । अन्य नहीं ॥१०॥
राजे राज्य त्याग कर गये । घूमे बहुत भगवंत के लिये । कीर्तिरूप में पावन हुये । भूमंडल में ॥११॥
ऐसा जो कि योगेश्वर । अंतरंग में प्रत्यय का विचार । सुलझाना जाने अंतरंग । प्राणीमात्रों के ॥१२॥
ऐसी वृत्ति उदासीन । उस पर भी विशेष आत्मज्ञान । दर्शनमात्र से समाधान । पाते हैं लोग ॥१३॥
बहुतों का करे उपाय । जिसे जन देख ना पाये । अखंड जिसका हृदय । भगवरुप ॥१४॥
जनों को दिखे यह दुश्चित । परंतु है वह सावधचित्त । अखंड जिसका चित्त । परमेश्वर में ॥१५॥
उपासनामूर्ति ध्यान में। अथवा आत्मानुसंधान में । नहीं तो फिर श्रवण मनन में । निरंतर ॥१६॥
पूर्वजों का कोटि पुण्य । अगर होता है संचित । तभी फिर ऐसों से भेंट । होती जनों की ॥१७॥
प्रचीति बिन जो ज्ञान । वह सारा ही अनुमान । वहां कैसे परत्रसाधन । प्राणियों को ॥१८॥
इस कारण मुख्य प्रत्यय । प्रचीति बिना काम न आये । उपाय सरीखा अपाय । सयाने जानते ॥१९॥
पागल संसार छोड़ गये । फिर वे कष्ट सह सहकर ही मर गये । दोनों ओर से दूर हुये । इहलोक और परलोक से ॥२०॥
क्रोध ही क्रोध में चला गया । तो वह लड़ लड़कर ही मर गया । बहुत लोगों को कष्ट दिया । और स्वयं भी कष्टी ॥२१॥
निकल गया परंतु अज्ञान । उसकी संगत में लगे जन । गुरु शिष्य दोनों समान । अज्ञानरूप में ॥ २२॥
आशाबद्ध अनाचारी । निकल गया देशांतर भी । फिर वह करे अनाचार ही। जनों में ॥२३॥
गृह में पेट के कारण कष्टी । निकल गये होकर दुःखी । उसे मारते ठाई ठाई । चोरी के कारण ॥२४॥
संसार मिथ्या यह समझ में आया । ज्ञान समझकर निकल गया । उसने जनों को पावन किया । अपने जैसा ॥२५॥
एक की संगति से तरते । एक की संगति से डूबते । सत्संगति इस कारण से । देखो अच्छी ॥२६॥
जहां नहीं विवेक परीक्षा । वहां कैसे होगी दीक्षा । घर घर में मांगने पर भिक्षा । मिले ना कहीं भी ॥२७॥
जो दुसरों का अंतरंग जाने । देश काल प्रसंग जाने । उस पुरुष को भूमंडल में । क्या कमी ॥२८॥
नीच प्राणी ने गुरुत्व पाया । वहां आचरण ही डूब गया । वेदशास्त्र ब्राह्मण को भला । कौन पूछे ॥२९॥
ब्रह्मज्ञान का विचारु । उसका ब्राह्मण को ही अधिकारु । 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः' । ऐसे वचन ॥३०॥
ब्राह्मण बुद्धि से उन्मत्त हुये । आचार से भ्रष्ट हुये । गुरुत्व त्याग कर हुये । शिष्य शिष्यों के ॥३१॥
कई दावलमलक को जाते । कई पीर को ही भजते । कई तुरक बनते । अपनी इच्छा से ॥३२॥
ऐसा कलियुग का आचार । कहां रहा है विचार । आगे आगे वर्ण संकर । होने वाला है ॥३३॥
गुरुत्व नीच जाती में आया । कुछ एक बढी महत्ता । आचरण ब्राह्मणों का । डूबाते शुद्र ॥३४॥
यह ब्राह्मण को समझे ना । उसकी वृत्ति ही पलटे ना । मिथ्या अभिमान गले ना । मूर्खता का ॥३५॥
म्लेंच्छ क्षेत्र में गया राज्य । कुपात्र ले गये गुरुत्व । स्वयं अरत्र और परत्र । कहीं भी नहीं ॥३६॥
ब्राह्मण डूबे ग्रामज्य से । विष्णु शोभायमान श्रीवत्स से । श्राप दिया उसी विष्णु ने । परशुराम रूप में ॥३७॥
हम भी वही ब्राह्मण । दुःख से कहे ये वचन । पूर्वजों के अज्ञान परिणाम । भोगने पडते हमें ॥३८॥
अब के ब्राह्मणों ने क्या किया । अन्न मिले ना जैसे हुआ । आप सबके प्रचीति में आया । अथवा नहीं ॥३९॥
अच्छा पुरखों को क्या कहें । ब्राह्मण का अदृष्ट जानिये । प्रसंगवश सहजता से कहे । क्षमा करना चाहिये ॥४०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे युगधर्मनिरूपणनाम समास सातवा ॥७॥

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Last Updated : December 09, 2023

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