अखंडध्याननाम - ॥ समास पांचवां - हरिकथालक्षणनिश्चयनाम ॥

‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पीछे हरिकथा के लक्षण । श्रोताओं ने किया था प्रश्न । सावध होकर विचक्षण । सुनो अब ॥१॥
हरिकथा कैसी करें । रंग कैसे भरें । पायें पदवी जिससे । रघुनाथकृपा की ॥२॥
सोना और परिमल । इक्षुदंड में लगते फल । गोल मधुर और रसाल। फिर यह अपूर्वता ॥३॥
वैसे हरिदास और विरक्त । ज्ञाता और प्रेमल भक्त । व्युत्पन्न और वादरहित । फिर यह भी अपूर्वता ॥४॥
रागज्ञानी तालज्ञानी । सकलकला ब्रह्मज्ञानी । जनों में आचरण निराभिमानी । फिर यह भी अपूर्वता ॥५॥
मत्सर नहीं जिसमें । जो अत्यंत प्रिय सज्जनों में । चतुरंग जाने मन में । अंतर्निष्ठ ॥६॥
जयंति आदि नाना पर्व । तीर्थ क्षेत्र जो अपूर्व । जहां बसते देवाधिदेव । सामर्थ्य रूप में ॥७॥
उन तीर्थो को जो ना मानते । शब्दज्ञान से मिथ्या कहते । उन पामरों का श्रीपति से । होगा योग कैसे ॥८॥
निर्गुण ले गया संदेह । सगुण ले गया ब्रह्मज्ञान । दोनों ओर अभिमान । ने रिक्त किया ॥९॥
सगुणमूर्ति समक्ष रहते । निर्गुणकथा जो करते । प्रतिपादन कर उच्छेद करते । वे ही पढतमूर्ख ॥१०॥
हरिकथा न करें ऐसे । अंतर पडे उभय पंथ में । अब लक्षण सुनें । हरिकथा के ॥११॥
सगुणमूर्ति सम्मुख भाव से । करुणाकीर्तन करें । नना ध्यान वर्णन करें । प्रताप कीर्ति के ॥१२॥
ऐसे गाते ही सहज । रसीली कथा होती प्रकट । सर्वांतर में प्रेमसुख । डोलने लगता ॥१३॥
कथा रचना की पहचान । सगुण में न लायें निर्गुण । न कहें कदापि दोष गुण । सम्मुख बैठे उनके ॥१४॥
वर्णन करें देव का वैभव । नाना प्रकार के महत्त्व । सगुण में रखकर भाव । हरिकथा करें ॥१५॥
लाज छोड़ कर जनों की । आस्था त्याग धन की। नित्य नूतन कीर्तन की । रुचि धरें ॥१६॥
नम्र होकर राजागन में । निःशंक साष्टांग नमन करें । करतालिका नृत्य वाणी से । नामघोष का गजर करें ॥१७॥
एक की कीर्ति दूसरे के समक्ष । वर्णन करते ना पुरता साहित्य । इस कारण निर्णय । जहां का वहीं ॥१८॥
मूर्ति न होते सगुण । श्रवण में बैठे साधुजन । फिर अध्यात्मनिरूपण । अवश्य करें ॥१९॥
नहीं मूर्ति नहीं सज्जन । श्रवण में बैठे भाविक जन । फिर करें अवश्य कीर्तन । प्रास्ताविक वैराग्य ॥२०॥
शृंगारिक नवरसिक । इसमें से त्यागें एक । स्त्रियादि के कौतुक । वर्णन न करें ॥२१॥
लावण्य स्त्रियों के वर्णन करते । तत्त्वतः विकार बाधते । धारिष्ट से श्रोता विचलित होते । तत्काल ॥२२॥
इस कारण त्यागें उसे । जो बाधक साधकों को सहजता से । सुनते ही अंतरंग में ठूंसे । ध्यान स्त्रियों का ॥२३॥
लावण्य स्त्रियों का ध्यान । कामाकार हुआ मन । आयेगा फिर कैसे ध्यान । ईश्वर का ॥२४॥
स्त्री वर्णन में सुख पाया । लावण्य चिंतन में मग्न हुआ । तो जानो वह स्वयं हुआ । दूर ईश्वर से ॥२५॥
भावपूर्ण हरिकथा से । भग्न रंग भी उभरे । क्षण एक भी यदि समझे । ध्यान से परमात्मा ॥२६॥
ध्यान में डूबा मन । कैसे याद आयेंगे जन । निःशंक निर्लज कीर्तन । करने से रंग भरता ॥२७॥
रागज्ञान तालज्ञान । स्वरज्ञान में व्युत्पन्न । अर्थ अन्वय का कीर्तन । करना जाने ॥२८॥
छप्पन भाषा नाना कला । कंठ माधुर्य कोकिला । परंतु वह भक्तिमार्ग निराला । भक्त जानते ॥२९॥
भक्त को देव का ध्यान । देव बिन न जाने अन्य । कलावंतों का जो मन । वहां कलाकार होता ॥३०॥
श्रीहरि बिन जो कला । वही जानें अवकला । देव त्यागकर निराला । प्रत्यक्ष पडे ॥३१॥
सर्प लपेटे चंदन को जैसे । पिशाचिनी पकड के आडे धन जैसे । नाना कलायें देव के लिये वैसे । आडे आये ॥३२॥
त्यागकर देव सर्वज्ञ । नाद में हों मग्न । यह तो प्रत्यक्ष विघ्न । आया आडे ॥३३॥
एक मन जो डूबा स्वरों में । श्रीहरि का चिंतन कौन करे । बलात् जैसे चोर धरे । शुश्रुषा करवा ले ॥३४॥
करने पर देव का दर्शन । आडे आया रागज्ञान । जिसने पकडकर मन । ले गया स्वरों के पीछे ॥३५॥
मिलने चला राजद्वार पर । बलात् पकडा बेगारी समझकर । कलावंतों का वैसा ही प्रकार । कला ने किया ॥३६॥
मन रखकर ईश्वर में । जो कोई हरिकथा करे । वही इस संसार में । हुआ धन्य ॥३७॥
जिसे रुचि हरिकथा में । नित्य नई चाह उठे उसमें । जोडी जोडी उसने । सर्वोत्तम से ॥३८॥
हरिकथा होती हो जहां । सर्व छोड़ कर दौड़े वहां । त्यागकर आलस निद्रा । स्वार्थ से हरिकथा को सादर ॥३९॥
हरिभक्त के घर । करे नीच कृत्य अंगिकार । सहायक सर्व प्रकार । साक्षेपी होये ॥४०॥
इसका नाम हरिदास । जिसे हो नाम में विश्वास । यहां से यह समास । संपूर्ण हुआ ॥४१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे हरिकथालक्षणनिश्चयनाम समास पांचवां ॥५॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 09, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP