भीमदशक - ॥ समास चौथा - विवेकनिरूपणनाम ॥
३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ब्रह्म याने निराकार । गगन समान विचार । विकार नहीं निर्विकार । वही ब्रह्म ॥१॥
ब्रह्म याने निश्चल । अंतरात्मा वह चंचल । द्रष्टा साक्षी केवल । कहते उसे ॥२॥
वह अंतरात्मा याने देव । उसका चंचल स्वभाव । पालता है सकल जीव । रहकर अंतरंग में ॥३॥
उससे अलग जड़ पदार्थ । उसके बिन देह व्यर्थ । उससे ही समझे परमार्थ । सब कुछ ॥४॥
कर्ममार्ग उपासनामार्ग । ज्ञानमार्ग सिद्धांतमार्ग । प्रवृत्ति निवृत्ति नाना मार्ग । चलाये देव ही ॥५॥
चंचल बिन निश्चल समझे ना । चंचल फिर भी स्थिर होये ना । ऐसे ये विचार नाना। देखो अच्छी तरह ॥६॥
चंचल निश्चल की संधि । वहां भ्रमित होती बुद्धि । कर्ममार्ग की जो विधि । वह फिर इस ओर ॥७॥
देव इन सब का मूल । देव को न मूल न डाल । परब्रह्म वह निश्चल । निर्विकारी ॥८॥
निर्विकारी और विकारी । एक कहे वह भिखारी । विचारों की निवृत्ति होती वही । देखते देखते ॥९॥
सकल परमार्थ का मूल । पंचीकरण महावाक्य केवल । वही करें प्रांजल । पुनः पुनः ॥१०॥
पहला देह स्थूल काया । आठवां देह मूलमाया । अष्टदेहों का निरसन हुआ । तो विकार कैसा ॥११॥
इस कारण विकारी। सच जैसी बाजीगरी । एक समझे एक खरी । मानता है ॥१२॥
उत्पत्ति स्थिति संहार । इनसे अलग निर्विकार । समझने के लिये सारासार । विचार किया ॥१३॥
सार असार दोनों एक । वहां कैसे रहे विवेक । परीक्षा न जानते रंक । पापी अभागे ॥१४॥
जो एक ही विस्तारित हुआ । वह अंतरात्मा कहलाया । नाना विकारों से विकारित हुआ । नहीं निर्विकारी ॥१५॥
प्रगट ही है ऐसे । देखें अपने प्रत्यय से । क्या रहे क्या न रहे । यह भी समझें ना ॥१६॥
जो अखंड होते जाता । जो सर्वदा संहार करता । रोकडी प्रचीति में आता । जनों में ॥१७॥
कोई रोता कोई तड़पता । कोई किसी का गला पकडता । एक दूसरे पर टूट पडता । अकालग्रस्त जैसे ॥१८॥
नहीं न्याय नहीं नीति । ऐसी लोगों की आचरण रीति । और समस्त ही कहते सार । विवेकहीन ॥१९॥
पत्थर त्यागकर सोना लें । मिट्टी त्यागकर अन्न खायें । और सभी को सार कहें । विवेकहीनता से ॥२०॥
इस कारण यह विचार । सत्यमार्ग ही धरें । लाभ जान स्वीकार करें । विवेक का ॥२१॥
सार असार एक ही समान । वहां क्या बचा परीक्षण । चतुर लोग इस कारण । परीक्षा करें ॥२२॥
जहां परीक्षा का अभाव । वहां दे घाव ले घाव । सभी समान स्वभाव । चालाकी का ॥२३॥
ले सके वही लिया जाये । न ले सके वह त्यागें । ऊंच नीच पहचानें। इसका नाम ज्ञान ॥२४॥
संसार के बाजार में आये । कोई लाभ से अमर हुये । कोई अभागे फंस ग ये। मुद्दल खोया ॥२५॥
ज्ञानीजन ऐसा न करें । सार को ही खोजकर लें । असार पहचानकर त्यागें । जैसे वमन ॥२६॥
वह वमन करे प्राशन । फिर वह श्वान का लक्षण । वहां शुचिश्मंत ब्राह्मण । क्या करे ॥२७॥
जिन्होंने जैसा संचित किये । वे वैसे ही फल पाये । जो भी अभ्यास में पड़कर जकड़े । वे तो छूटे ना ॥२८॥
कोई दिव्यान्न खाते । कोई विष्ठा संग्रह करते । अपने पूर्वजों पर करतें । साभिमान ॥२९॥
अस्तु विवेक के बिन । बोलो यह सब थकान । कोई एक श्रवणमनन । करें ही करें ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे विवेकनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥
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Last Updated : December 05, 2023
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