भीमदशक - ॥ समास पहला - सिद्धांतनिरूपणनाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
आकाश से वायु होता । इसका प्रत्यय आता । वायु से अग्नि कैसे होता । सुनो सावधानी से ॥१॥
वायु की कठिन घर्षणी । वहां निर्माण होता वन्हि । मंद वायु शीतल पानी। वहां से हुये ॥२॥
पृथ्वी हुई आप से । उसे नाना बीजरूप जान । उत्पत्ति होती बीज से । है यह स्वभाविक ॥३॥
मूलतः सृष्टि कल्पना की । कल्पना है मूल की । जिससे देवत्रयों की । काया हुई ॥४॥
निश्चल में जो चंचल । वही कल्पना केवल । अष्टधा प्रकृति का मूल । कल्पनारूप ॥५॥
कल्पना वहीं अष्टधा प्रकृति । अष्टधा वही कल्पनामूर्ति । मूलाग्र से उत्पत्ति । अष्टधा जानें ॥६॥
पांच भूत तीन गुण । आठ हुआ दोनों का मिलन । अष्टधा प्रकृति इस कारण । कहलाती है ॥७॥
मूल में कल्पनारूप हुई । वही आगे फैली फूली । केवल जड़त्व में आई । सृष्टिरूप में ॥८॥
मूल में हुई वह मूलमाया । त्रिगुण हुये वह गुणमाया । जडत्व पाये वह अविद्यामाया । सृष्टि रूप में ॥९॥
आगे हुई चार खाणी । विस्तारित हुई चारों वाणी । प्रकट हुई नाना योनि । नाना व्यक्ति ॥१०॥
ऐसी निर्मिति हुई । अब सुनो संहारणी । पिछले दशक कथन की । स्पष्ट रूपसे ॥११॥
परंतु अब संकलित । कहा जाता संहारसंकेत । श्रोता वक्ता कथा को चित्त । देकर सुनें ॥१२॥
शत वर्ष अनावृष्टि । उससे सूखेगी जीवसृष्टि । ऐसी बातें कल्पांत की । शास्त्रों में है निरूपित ॥१३॥
बारा कला से तपे सूर्य । जिससे पृथ्वी की रक्षा होये । फिर वह रक्षा घुल जाये । जल के भीतर ॥१४॥
उस जल को सोखे वैश्वानर । वन्हि को झड़पे समीर । समीर पिघले निराकार । जैसे का वैसा ॥१५॥
हुई सृष्टिसंहारणी ऐसे । पीछे कही विस्तार से । रही शेष मायानिरसन से । स्वरूपस्थिति ॥१६॥
वहां जीवशिव पिंडब्रह्मांड । नष्ट होता पाखंड । माया अविद्या का विद्रोह । हुआ लुप्त ॥१७॥
विवेक से ही कहा गया क्षय । इस कारण विवेकप्रलय । विवेकी जानते क्या । समझे मूर्ख को ॥१८॥
सृष्टि खोजने पर सकल । एक चंचल एक निश्चल । चंचल का कर्ता चंचल । चंचल रूप में ॥१९॥
जो सकल शरीर में व्यवहार करे । सकल कर्तृत्व प्रवर्तन करे । करकेभी अकर्ता का लगे । शब्द जिसे ॥२०॥
ब्रह्मादि राव रंक । समस्तों में क्रियमाण एक । नाना शरीरों का चालक । इंद्रियों द्वारा ॥२१॥
उसे परमात्मा कहते । सकल कर्ता ऐसे जानते । मगर वह नष्ट होता देखें । विवेक से प्रचीति ॥२२॥
जो श्वान में गुरगुराता । जो शूकर में घुरघुराता । गर्दभ में रहकर रेंकता । अट्टाहास से ॥२३॥
लोग नाना देह देखते । विवेकी देहान्तर्गत देखते । पंडित समदर्शन लेते । इस प्रकार ॥२४॥

॥ श्लोक ॥ विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥छ॥

देह देखें तो होते अलग । परंतु अंतरंग एक ही होता । प्राणीमात्रों को एक ही अंतरंग । से देखे ॥२५॥
अनेक प्राणी निर्माण होते । परंतु एक ही कला से क्रियान्वित रहते । जगज्जोति है नाम उसे । ज्ञातृत्व कला ॥२६॥
श्रोत्रों से नाना शब्द जाने । त्वचा से शीतोष्ण जाने । चक्षुओं से देखना जाने । नाना पदार्थ ॥२७॥
रसना से रस जाने । नाक से गंध वह पहचाने । कर्मेंद्रियों से जाने । नाना विषयस्वाद ॥२८॥
सूक्ष्म रूप मे स्थूल की रक्षा करे । नाना सुखदुःखों की परीक्षा करे । उसे अंतरसाक्षी । कहते अंतरात्मा ॥२९॥
आत्मा अंतरात्मा विश्वात्मा । चैतन्य सर्वात्मा सूक्ष्मात्मा । जीवात्मा शिवात्मा परमात्मा । द्रष्टा साक्षी सत्तारूप ॥३०॥
विकारों के बीच विकारी । अखंड नाना विकार कारी । उसे वस्तु कहते भिखारी । परम हीन ॥३१॥
सभी एक ही देखते । समस्त एकाकार करते । सब मायिक स्थिति ये । चंचल में ॥३२॥
चंचल माया वह मायिक । निश्चल परब्रह्म एक । नित्यानित्यविवेक । इस कारण ॥३३॥
ज्ञाता जीव वह प्राण । ना जानता जीव वह अज्ञान । जन्मा जीव वह जान । वासनात्मक ॥३४॥
ऐक्य जीव वह ब्रह्मांश । जहां पिंडब्रह्माड का होता निरसन । यहा कहे गये विशेष । चत्वार जीव ॥३५॥
अस्तु ये समस्त चचल । चचल जायेगा सकल । निश्चल वह निश्चल । आदिअंत में ॥३६॥
आदि मध्य अवसान । जो वस्तु समसमान । निर्विकारी निर्गुण निरंजन । निःसंग निःप्रपच ॥३७॥
उपाधि निरसन से तत्त्वतः । जीव शिव की एकता । विवेचन से देखा । उपाधि कैसे ॥३८॥
अस्तु जानना याने उतना ज्ञान । परंतु होता है विज्ञान । मन से पहचानें उन्मन । किस प्रकार ॥३९॥
वृत्ति को न समझे निवृत्ति । गुणों को कैसे निर्गुणप्राप्ति । गुणातीत साधक को सत सत ही । विवेक से बनाया ॥४०॥
श्रवण से परे मनन बेहतर । मनन से समझे सारासार । निजध्यास से साक्षात्कार । निःसंग वस्तु ॥४१॥
निर्गुण में जो अनन्यता । वही मुक्ति सायुज्यता । अब लक्ष्याश वाच्यांश की कथा । पूर्ण हुई ॥४२॥
अलक्ष्य पर रहा लक्ष्य । सिद्धात में कैसा पूर्वपक्ष । अप्रत्यक्ष को कैसा प्रत्यक्ष । रहकर भी नहीं ॥४३॥
रहकर मायिक उपाधि । वही सहजसमाधि । श्रवण से पलटाये बुद्धि । निश्चयात्मक ॥४४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सिद्धांतनिरूपणनाम समास पहला ॥१॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 05, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP