भीमदशक - ॥ समास दूसरा - चत्वारदेवनिरूपणनाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
एक निश्चल एक चंचल । चंचल में उलझे सकल । निश्चल में वह निश्चल । जैसे का वैसा ॥१॥
देखे निश्चल का विवेक । ऐसा लाखों में एक । निश्चल जैसा निश्चयात्मक । निश्चल ही वह ॥२॥
इस निश्चल की बातें करते । पुनः चंचल की ओर भागते । चंचलचक्र से बच निकलते । ऐसे थोड़े ॥३॥
चंचल से चंचल जन्मे । चंचल में ही बढ़े । सारे चंचल ही बिंबित हुये । जन्मभर ॥४॥
पृथ्वी सारी चंचल की ओर । होते चंचल सारे व्यवहार । चंचल छोड़ निश्चल में प्रविष्ठ । ऐसा कौन ॥५॥
चंचल कुछ भी निश्चल होये ना । निश्चल कभी चंचल नही होता ना । नित्यानित्यविवेक से समझता । जनों को कुछ कुछ ॥६॥
कुछ जाना फिर भी न जानता । कुछ समझा फिर भी न समझता । कुछ बूझा फिर भी न बूझता । किंचित मात्र ॥७॥
संदेह अनुमान और भ्रम । सारा चंचल में श्रम । निश्चल में कभी नहीं मर्म । समझना चाहिये ॥८॥
चंचलाकार उतनी माया । मायिक का होगा विलय । छोटा बड़ा कहने का । काम नहीं ॥९॥
समस्त माया विस्तारित हुई । अष्टधा प्रकृति फैल गई । चित्रविचित्र विकारित हुई । नाना रूपों में ॥१०॥
नाना उत्पत्ति विकार नाना । छोटे बड़े प्राणी नाना । पदार्थ प्रकार नाना । नाना रूपों में ॥११॥
विकारवंत विकारित हुये । सूक्ष्म जड़ रूप पाये । अमर्याद दिखने लगे । कुछ के कुछ ॥१२॥
फिर नाना शरीर हुये निर्माण । नाना नामाभिधान दिये । भाषानुरुप समझ में आये । कुछ कुछ ॥१३॥
फिर नाना रीति नाना दंडक । आचार एक से एक । व्यवहार करते सकल लोक । लोकाचार से ॥१४॥
अष्टधा प्रकृति के शरीर । छोटे बड़े हुये निर्माण । आगे अपने अपने प्रकार । से क्रियारत हुये ॥१५॥
नाना मत निर्माण हुये । नाना पाखंड बढ़े । नाना प्रकार के उठे । नाना विद्रोह ॥१६॥
जैसा प्रवाह पडे । वैसे ही लोग चले। कौन बचाये किसे । एक नहीं ॥१७॥
खलबली मची पृथ्वी पर । एक से एक बढकर । कौन खोटा कौन खरा । कौन जाने ॥१८॥
आचार अडचन में आया । पेट के लिये बहुत से डुबाया । सारा दिखावा रह गया । साभिमानवश ॥ १९॥
देव हुये उदंड । देवों का रचाया पाखंड । भूत देवताओं के थोथे मत । एक ही हुये ॥२०॥
मुख्य देव बह समझेना । कोई किसी का माने ना । एक से दूसरा पलटे ना । हुये अनावर ॥२१॥
ऐसा नष्ट हुआ विचार । कौन देखता सारासार । कौन हीन कौन बेहतर । समझे ही नहीं ॥२२॥
शास्त्रों का भरा बाजार । देवों की जमी भीड । लोग कामना के व्रतों पर । टूट पड़ते ॥२३॥
ऐसे सारा नष्ट हुआ । सत्यासत्य खो गया । सारा अराजक हुआ । चारों ओर ॥२४॥
मतांतरों का गलबला ऐसे । कोई पूछे ना किसी से । जो विचार दिखे जैसे जैसे । माने उसे ही श्रेष्ठ ॥२५॥
असत्य का अभिमान । उससे होता पतन । इसी कारण ज्ञाता जन । सत्य खोजते ॥२६॥
लोगों के व्यवहार सकल । वे ज्ञाता का कर तलमल । अब सुनो केवल । विवेकी जन हो ॥२७॥
लोग जाते किस पंथ से । और भजते देव को कौन से । इसकी रोकडी प्रचीति ऐसे । सुनो सावधानी से ॥२८॥
मृत्तिका धातु पाषाणादिक । ऐसी प्रतिमायें अनेक । बहुतेक लोगों का दंडक । प्रतिमा देवों में ॥२९॥
नाना देवों के अवतार । सुनते चरित्र कुछ नर । जप ध्यान निरंतर । करते पूजा ॥३०॥
एक सबका अंतरात्मा । विश्व में क्रियात्मक वह विश्वात्मा । दृष्टा साक्षी ज्ञानात्मा । मानते कुछ ॥३१॥
एक वह निर्मल निश्चल । कभी भी न होता चंचल । अनन्यभाव से केवल । वस्तु ही वे ॥३२॥
एक नाना प्रतिमा । दूसरी अवतार महिमा । तीसरा वह अंतरात्मा । चौथा निर्विकारी ॥३३॥
ऐसे ये चत्वार देव । सृष्टि अंतर्गत स्वभाव में । इससे अलग अंतर्भाव । कहीं भी नहीं ॥३४॥
सारे एक ही मानते । वे साक्ष देव जानते । परंतु पहचानना चाहिये । अष्टधा प्रकृति ॥३५॥
प्रकृति में देव । वह प्रकृति का स्वभाव । भावातीत महानुभाव । विवेक से जानें ॥३६॥
जो निर्मल का ध्यान लगायेगा । वह निर्मल ही बनेगा । जो जिसे भजेगा । वह तद्रूप जानें ॥३७॥
क्षीर नीर चुनते । वे राजहंस कहलाते । सारासार जानते । वे महानुभाव ॥३८॥
अरे जो चंचल का ध्यान करेगा । वह सहज ही विचलित होगा । जो निश्चल को भजेगा । वह निश्चल ही ॥३९॥
प्रकृतिनुसार चलें । परंतु भीतर शाश्वत पहचानें । सत्य होकर व्यवहार करें । लोगों जैसा ॥४०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चत्वारदेवनिरूपणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 05, 2023

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