गुणरूपनाम - ॥ समास सातवां - विकल्पनिरसननाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पहले स्थूल है एक । बाद में फिर अंतःकरणपंचक । ज्ञातापन का विवेक । स्थूल के कारण ॥१॥
वैसे ही ब्रह्मांड बिन । नहीं कुछ मूलमाया का ज्ञान । स्थूल के आधारपर संपूर्ण । ही कार्य चलता ॥२॥
वह स्थूल ही न हो निर्माण । तो कहां रहेगा अंतःकरण । ऐसा श्रोताओं ने किया प्रश्न । उसका उत्तर सुनो ॥३॥
तंतुकोष अथवा कांटे का घर । पृथ्वी पर रहते नाना घर । जीव बनाते शक्तिनुसार । छोटे या बड़े ॥४॥
शंख सीप कौडी घोंघा । पहले उनका घर होता । अथवा पहले कीड़ा निर्माण होता । उसका पहले ही विचार करे ॥५॥
पहले प्राणी होते । पश्चात घर निर्माण करते । प्रत्यक्ष प्रचीति है ये। कहना न पडे ॥६॥
वैसे ही पहले सूक्ष्म जान । बाद में स्थूल होता निर्माण । इस दृष्टांत से प्रश्न । मिटा श्रोताओं का ॥७॥
तब श्रोता पूछे और अधिक । जी स्मरण हुआ कुछ एक । जन्ममृत्यु का विवेक । मुझे निरूपित करें ॥८॥
कौन जन्म में लाता । और फिर कौन जन्म लेता । यह प्रत्यय कैसे आता । किस प्रकार से ॥९॥
ब्रह्मा जन्म देता । विष्णु प्रतिपालन करता । रुद्र सबका संहार करता। ऐसे कहते ॥१०॥
ये तो है प्रवृत्ति का कथन । प्रत्यय के लिये है कम । प्रत्यय देखो तो खरापन । होता नहीं ॥११॥
ब्रह्मा को किसने जन्म दिया । विष्णु का किसने प्रतिपालन किया । रुद्र का किसने संहार किया । महाप्रलय में ॥१२॥
इस कारण यह सृष्टिभाव । सारा माया का स्वभाव । कर्ता कहें निर्गुण देव । फिर भी वह निर्विकारी ॥१३॥
कहें कि माया जन्म देती । तो वह स्वयं ही विस्तारित हुई । और विचार करनेपर ठहरी । यह तो होता नहीं ॥१४॥
अब जन्म लेता वह कौन । कैसी उसकी पहचान । और संचित के लक्षण । वे भी निरूपित करें ॥१५॥
पुण्य का कैसा रूप । और पाप का कैसा स्वरूप । इसी शब्द का आक्षेप । कौन कर्ता ॥१६॥
इसका कुछ भी ना होता अनुमान । कहते जन्म लेती वासना । मगर उसे देखें तो दिखे ना । ना उसे पकड़ सके ॥१७॥
वासना कामना और कल्पना । हेतु भावना मति नाना । जानें ऐसी अनंत वृत्तियां । अंतःकरणपंचक की ॥१८॥
अस्तु यह सारा ज्ञातृत्वयंत्र । ज्ञातृत्व याने स्मरणमात्र । ऐसे स्मरण से जन्मसूत्र । जुड़े कैसे ॥१९॥
देह निर्मित भूतों का । वायु चालक उसका । जानना यह मन का । मनोभाव ॥२०॥
ऐसा यह सहज ही हुआ । तत्त्वों का गुत्थमगुत्था हुआ । किसने किसे जन्म दिया । किस प्रकार से ॥२१॥
फिर भी यह देखने पर दिखे ना । इसकारण जन्म ही रहे ना । उपजा प्राणी आये ना । फिर जन्म लेकर ॥२२॥
जन्म नहीं किसी का । तो संतसंग क्यों किया । अभिप्राय सभी श्रोताओं का । है ऐसा ॥२३॥
पहले स्मरण ना विस्मरण । बीच में ही हुआ यह निर्माण । अंतर्याम में अंतःकरण । ज्ञातृत्वकला ॥२४॥
सावधान है तो स्मरण । विकल होते ही विस्मरण । विस्मरण होते ही मरण । पाता है प्राणी ॥२५॥
स्मरण विस्मरण रह गया । तो फिर देह का अंत आया । आगे चलकर जन्म दिया । किसने किसे ॥२६॥
इसकारण जन्म होता ही नहीं । और यातना भी दिखती नहीं । सब कल्पना व्यर्थ ही । प्रबल हुई ॥२७॥
इस कारण किसीको जन्म ही नहीं । श्रोताओं की आशंका ऐसी । मर गये वे जन्म ही । लेते नहीं फिर से ॥२८॥
सूखा काष्ठ हरियाये ना । टूटा हुआ फल लगे ना । वैसे ही मृत शरीर आये ना । फिर जन्म लेकर ॥२९॥
घड़ा अचानक फूट गया । फूटा तो फूट ही गया । वैसे ही जन्म पुनः । नहीं हुआ मनुष्य का ॥३०॥
यहां अज्ञान और सज्ञान । सरीखे ही हुये एक समान । ऐसे प्रबल हुआ अनुमान । श्रोताओं में ॥३१॥
वक्ता कहे रे सुनो । व्यर्थ पाखंड मत करो । सावधान होकर अवलोकन करो । विवेक से ॥३२॥
प्रयत्नबिना कार्य हुआ । खायेबिना पेट भरा । ज्ञान बिना मुक्त हुआ । यह तो होये ना ॥३३॥
स्वयं अपना भोजन किया । लोग संतुष्ट हुये उसे लगा । परंतु यह समस्तों का । अनुभव होना चाहिये ॥३४॥
तैरना सीखा वह तरेगा । तैरना न जाने वह डूबेगा । यहां भी अनुमान करेगा । ऐसा कौन ॥३५॥
वैसे ज्ञान हुआ जिन्हें । वे सब तर गये उतने । टूटे बंधन जिनके । वे ही मुक्त ॥३६॥
मुक्त कहे कि नहीं बंधन । और प्रत्यक्ष बंदी पडे है जन । उन्हें कैसा समाधान । देखो आप ही ॥३७॥
न जाने दूसरों की तलमल । वह मनुष्य परदुःखशीतल । वैसे ही यह भी केवल । अनुभव जानो ॥३८॥
जिसे आत्मज्ञान हुआ । तत्त्व से तत्त्व विवेचन हुआ । चिन्ह पाते ही दृढ हुआ । समाधान ॥३९॥
ज्ञान से चूके जन्ममरण । सभी के लिये कहना अप्रमाण । वेदशास्त्र और पुराण । फिर किस कारण ॥४०॥
वेदशास्त्रों की विचारबोली । महानुभवों की मंडली । भूमंडल के लोग सकल ही। यह मानते ना ॥४१॥
सभी रहने पर अप्रमाण । तो फिर अपना ही क्या प्रमाण । अतः जिसे आत्मज्ञान । वही मुक्त ॥४२॥
सभी मुक्त देखने पर नर । यह भी ज्ञान का उद्गार । ज्ञान बिना तो उद्धार । होगा नहीं ॥४३॥
आत्मज्ञान समझ में आया । इस कारण दृश्य मिथ्या हुआ । मगर इसने घेर लिया । समस्तों को ॥४४॥
अब प्रश्न यह मिट गया । ज्ञानी ज्ञान से मुक्त हुआ । अज्ञानी वह बंधा रहा । अपनी कल्पना से ॥४५॥
विज्ञान समान अज्ञान । और मुक्त के समान बंधन । निश्चय के समान अनुमान । मानें ही नहीं ॥४६॥
बंधन याने कुछ भी नहीं । मगर घेर लिया सर्व ही । इसका उपाय ही नहीं । समझे बिना ॥४७॥
कुछ भी नहीं और बाधा करे । यह आश्चर्य देखो पहले । उपाधि मिथ्या नहीं जाने । इस कारण ॥४८॥
भोला भाव सिद्धि पाये । यह उधार का उपाय । रोकडा मोक्ष का अभिप्राय । विवेक से जानें ॥४९॥
प्राणी मुक्त है होना । पहले चाहिये ज्ञातृत्वकला । सभी जानने पर निराला । सहज ही होये ॥५०॥
कुछ भी न जानता वह अज्ञान । सभी जानता वह ज्ञान । ज्ञातृत्व होते ही विज्ञान । स्वयं ही आत्मा ॥५१॥
हुआ अमर करके अमृत सेवन । वह कहे मृत्यु कैसे पातें जन । वैसे ही विवेकी का बद्ध से प्रश्न । कि जन्म वह कैसा ॥५२॥
ज्ञानी कहे जनों से । तुम्हें भूत झपटता कैसे । तुम्हें विष चढ़ता कैसे । निर्विष कहता ॥५३॥
पहले बद्ध समान बनें । फिर यह प्रश्न पूछना ही न पड़े । विवेक दूर रख देखें । लक्षण बद्ध के ॥५४॥
जागृत निद्रित से पूछे । यह क्यों रे बड़बड़ाये । अनुभव लेना ही है । तो फिर देखो सोकर ॥५५॥
ज्ञाता की प्रफुल्लित वृत्ति । बद्ध समान नहीं उलझती । तृप्त की अनुभवप्राप्ति । नहीं भूखे को ॥५६॥
इससे आशंका टूटी । हुई ज्ञान से मोक्षप्राप्ति । विवेक से देखने पर दृढ हुई । आत्मस्थिति ॥५७॥
इति श्रीदासबोध गुरुशिष्यसंवादे विकल्पनिरसननाम समास सातवां ॥७॥

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Last Updated : December 04, 2023

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